गगन गिल की ये कविता स्त्री के एकाकीपन और उसके दुखों को एक अलग ही आयाम तक ले जाती है.कविता पढ़े जाने के बाद भी कई बार लौट लौट कर आती है. आप भी पढ़ें इसे.
श्राद्ध के दिनों में - गगन गिल
कभी कभी आकाश से
हमारी मांएं उतर आतीं थी.
हम पिताओं का तर्पण करते
उनके लिए नाना भोजनों की गंध
देवलोक में भेजते
मांएं हमारी निचले आकाशों में
हमारी प्रार्थनाओं की अनुपस्थिति में
मंडराती होतीं.
हम उनकी शांति की चिंता नहीं करते थे
और सोचते थे उन्हें भी शांति पाने की
ऐसी जल्दी न होगी.
पिताओं को भोज पर आने में
देर लगती थी
ऐसा लगता वे दूसरे लोकों में
सुख से हैं
भोजन समाप्त करते हुए
वे हमारे चिंतित चेहरे देखते
उसी उदासीनता से
जो उनमें जीवित रहते समय थी
मांओं को हम नहीं परोसते थे
हालांकि वो वहीं होतीं थीं
पिताओं की थाली के पास.
शांति के लिए हम भटकते थे
हमारी मांएं भटकती थीं
लेकिन तर्पण हम
पिताओं का ही करते थे.
5 comments:
कविता की सघनता हमारे परिवेश को उधेड़ती हुई भीतर तक आती है. मैंने इसे अभी कई बार पढ़ा है. बस आभार व्यक्त करने को जी चाहता है.
... umdaa !!
बहुत अच्छा :कभी समय मिले तो हम्रारे ब्लॉग //shiva12877.blogspot.com पर भी आयें /
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
उफ्फ़ ये तो एक नयी फिलोसोफी हो गयी........
i can't get it , because Shraddh is observed for male, female both ancestors.
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