Thursday, January 6, 2011

परिंदे - तीसरा भाग

[पिछली किश्त से आगे]

"जब मैं छोटा था तो सोचा करता था कि पहाड़ों में कहीं मेरा एक छोटा सा घर होगा , जिसमे मैं दिन भर बैठा हुआ विओलिन बजाता रहूँगा |" प्रोफ़ेसर हल्के से हँसे, हाथ सर के पीछे ले जाकर बोले - "अब देखो, घर तो नहीं लेकिन सरकारी कमरा है मेरे पास , जिसमे दिन भर मैं अपने अकेलेपन की विओलिन बजाता रहता हूँ |" सुधीर चुपचाप इस एकालाप को सुनता रहा | धूप खिली हुई थी | तीन दिन हलकी बारिश के बाद आज धूप निकली थी | "यार डॉक्टर ! जीने का मजा तो अकेलेपन में है | है नहीं ?" प्रोफ़ेसर ने धूप में आँखे मिचमिचाते हुए कहा | "जी सर !" सुधीर ने कहा | "रेगिस्तान में चलते रहो , धूप में , न किसी मंजिल की तलाश न कहीं कोई पड़ाव , बस एक सफ़र हो | सफ़र भी ऐसा जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना हो , बस एक सफ़र हो , ना आगे कुछ , ना पीछे |" प्रोफ़ेसर ने हथेलियों को आँखों के ऊपर रख लिया , "धूप में आँखें बन्द करो तो नारंगी रंग दिखायी देता है | जोर से पलकों को दबाओगे तो वही रंग काला पड़ जाता है |" आँखें खोलकर उन्होंने गहरी साँस ली | "वो सामने चौखम्भा है न ?" उन्होंने ऊँगली से इशारे किया | सुधीर अनमने भाव से उनकी बात सुन रहा था | अचानक मुड़ कर देखा, बोला "हाँ" | "कभी चलें क्या वहाँ पे ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | सुधीर हल्के से मुस्कुरा दिया | "अरे वाकई ! चलते हैं कभी | कितनी खूबसूरत जगह है वो |" "कब चलना है ?" सुधीर ने पूछा | "यार ! चलते हैं कभी , मई जून में | अगले सेमेस्टर एंड पे" प्रोफ़ेसर पूरे विश्वास से बोले | जेब से सिगरेट निकाली ही थी , कि सुधीर उनकी ओर देखने लगा, " प्रोफ़ेसर! एक दिन में दो , केवल | उससे ज्यादा नहीं |" प्रोफ़ेसर मुस्कुराये - "अरे यार ! आज मौसम अच्छा है |" थोड़ी देर सोचकर बोले , "स्वामी को मत बताना , नहीं तो साला बखेड़ा खड़ा करेगा |" अचानक प्रोफ़ेसर जैसे सोते से जगे, "आज तारीख क्या है ?" "पंद्रह दिसंबर" सुधीर ने हाथ में पकडे हुए अख़बार के उपरी हिस्से में तारीख देखकर उसमे दो जोड़कर बता दिया | "अरे यार ! कल तो मेकैनिकल का जरूरी पेपर है |" ट्रांसिट की ओर जाती सड़क पर दो लड़कों को टहलते हुए देखा , "अरे सुनो ! मेकैनिकल के किसी लड़के को भेज देना यहाँ , जल्दी |" वे दोनों उलटे कदम वापस होस्टल की ओर चल दिए |

मीरा (स्वामीजी की पत्नी) और मिस अर्चना बैठे हुए बात कर रहे थे | प्रोफ़ेसर उप्रेती के आते ही दोनों चुप हो गए | "स्वामी कहाँ है ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | "आज सुबह से ही मुझसे नाराज हैं | मुझे लगा कि शायद आपके पास गए होंगे |" मिसेज स्वामी ने जवाब दिया | " अरे मेरे पास तो नहीं आया |" प्रोफ़ेसर कुछ सोचते हुए वापस जाने लगे | "अंकल , पापा बहुत गुस्से मे थे |" जाह्नवी ने पास आकर कहा | "अरे तेरा पापा तो ऐसे ही नाराज होता रहता है | अभी तेरे से भी छोटा है वो |" प्रोफ़ेसर ने उसकी नाक को छूकर कहा | जाह्नवी हँसने लगी, घर के अन्दर भाग गयी | "सर , जाह्नवी की पढाई भी रुक रही है यहाँ | देहरादून में कुछ दिन मम्मी के पास जाना चाहती हूँ , उसके बाद जाह्नवी को बोर्डिंग स्कूल में डाल देती |" मीरा अपनी भड़ास निकाल रही थी , स्वामी ने जरूर ये सब सुनने से मना कर दिया होगा, प्रोफ़ेसर ने मन में सोचा | "ठीक है ! मैं देखता हूँ | शायद मेरे ही रूम पे गया होगा वो |" प्रोफ़ेसर ने मीरा को तसल्ली देने की कोशिश की | "मुझे जाह्नवी के करियर की बेहद चिंता होती रहती है | अगर यहाँ रहेगी तो ..." प्रोफ़ेसर जाना चाहते थे लेकिन मीरा की बातें मानों आज ही ख़त्म होना चाहती हों, "आपने सही किया था सर, जो डॉली को पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया था | सुना है डॉली अब बाहर जाने वाली है |" प्रोफ़ेसर को अचानक अपनी साँस फूलती सी लगी, वहीं सीढ़ी पर बैठ गए - "हाँ ! जर्मनी जा रही है, दो महीने के लिए | कुछ रिसर्च फेलोशिप का मामला है | " मीरा "बहुत अच्छा है | बहुत तरक्की मिली है बेटी को | हमारी जाह्नवी जितनी थी , जब गयी थी न ? उसका चेहरा अभी भी याद आता है |" प्रोफ़ेसर जल्दी से बोले - "मीरा , मैं अभी स्वामी को ढूंढ के लाता हूँ | तुम बैठो |" तेज क़दमों से बाहर निकल गए |

कॉलेज होस्टल से पीछे के रास्ते से सीधा सीधा उतर जाओ तो सामने कई छोटे मंझोले खेत दिखाई देते हैं , जो जानवरों को चराने के ज्यादा काम आते हैं | उसी पर बनी हुई पगडण्डी चलते हुए एक छोटी पहाड़ी के पास से गुजरती है | दूर, हॉस्टल से ये पहाड़ी एक मेंढक के मुँह जैसी लगती है | लोग इसे मेंढक पहाड़ी कहते हैं | इसी पहाड़ी के दूसरे छोर पर , जहाँ गहरी खाई है, स्वामी बैठे हुए दिखायी दिए | प्रोफ़ेसर चुपचाप जाकर उनके साथ बैठ गए | " प्रोफ़ेसर यार ! हम शापित हैं , हीदन देवताओं का सोना चुराने वाले समुद्री लुटेरों की तरह | न हम जी सकते हैं , न मर सकते हैं | है न ?" स्वामी प्रोफ़ेसर की ओर देखकर मुस्कुराये | प्रोफ़ेसर ने आश्वस्त भाव से स्वामी की बात को सुना , जवाब देना ही चाहते थे कि यकायक चुप हो रहे , धीरे से इतना ही कहा , "स्वामी |"
"पहले डॉली, अभी जाह्नवी | हम लोग, ऐसा लगता है जैसे विस्थापित लोग हैं | अतीत से विस्थापित, भविष्य में हमारे लिए कोई जगह नहीं |"
"क्या तुम सेल्फिश होना चाहते हो ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा |
स्वामी ने मुँह फेर लिया, सामने पहाड़ियों पर बादल उतर आये थे | आँखों में धुंध गहराने लगी थी, "प्रोफ़ेसर , तुम रिटायर कब होने वाले हो ?"
"दो या तीन साल में , क्यूँ?" प्रोफेसर खुश हुए कि स्वामी ने विषय बदल दिया है |
"नहीं , मैं सोच रहा हूँ कि तुम उसके बाद क्या करोगे ?"
प्रोफ़ेसर उप्रेती से कुछ कहते न बना, ज़मीन पर उगी घास को उखाड़ने लगे | पहाड़ी से नीचे अलकनंदा बहती हुई दिखायी दे रही थी | पानी से उठती हुई भाप ने उसके किनारे बसे छोटे कसबे को अपने में समेट लिया था | पहाड़ी कस्बों की अपनी कोई इच्छा नहीं होती | एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ पानी , उनकी रोजमर्रा के जीवन की दिशा तय करते हैं | पहाड़ और पानी , बारहों महीने ठण्ड सहते सहते, ठिठुरते हुए पहाड़ | पानी बर्फ बनकर जम सकता है , पहाड़ वो भी नहीं कर सकते | पहाड़ सिर्फ टूट सकता है |

"सुधीर ! दरवाजा खोलो |" दासगुप्ता सर दरवाजे को लगातार पीट रहे थे | सुधीर अचानक चौंककर उठे | बाहर जाकर देखा, दासगुप्ता सर दरवाजे के बाहर खड़े हैं | "प्रोफ़ेसर की तबियत खराब हो गयी है | उनको लेकर पौड़ी जाना है | चलो |" सुधीर और दासगुप्ता तेज क़दमों से चलते हुए ट्रांसिट के बाहर के मैदान में गए | हल्के हल्के रुई के फाहे जैसे आसमान से बूँदे गिर रही थी | इंदिरा और मीरा बाहर मैदान में एक ओर बैठे हुए थे | कुछ और टीचर भी एक एक झुण्ड सा नियत करके उसमे शामिल थे | "स्वामी सर कहाँ हैं ?" सुधीर ने इधर उधर घूमकर पूछा | "कॉलेज की एम्बुलेंस लेने गए हैं | प्रोफ़ेसर ने तुम्हें बुलाया था |" दासगुप्ता धीरे से सुधीर के कान में बोले , "कुछ कहना मत, बस सुनते जाना उनसे |" सुधीर एकाएक डर से गए, माँ ने एक बार ऐसे ही बुलाकर दादा के पास भेजा था, फिर कान में कहा कि कुछ कहना मत, बस सुनते जाना | सुधीर एकटक दासगुप्ता सर को देखते रहे, दादा को सुधीर ने फिर कभी अपने सामने नहीं देखा |

प्रोफ़ेसर सो रहे थे, या शायद थक गए थे | थकान से आँखें मूँद लीं थी | सुधीर बिना कोई आवाज किये आये, अर्चना ने चुप रहने का इशारा करके कुर्सी पर बिठा दिया | "सुधीर !" प्रोफ़ेसर ने हलकी सी आहट भांप ली | "जी सर !" सुधीर चौकन्ने से हो गए | "थोड़ा देखके चलना आगे फिसलन है |" प्रोफ़ेसर बड़बड़ाये | सुधीर ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की | "ये कौन है ?" प्रोफ़ेसर ने अचानक आँखें खोल दी | "मैं हूँ...सुधीर " सुधीर ने फिर से जवाब दिया | "सुधीर, तुम्हारे पास माचिस है ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | "यस सर !" सुधीर ने जवाब दिया | "दिया जला दो, एक अगरबती |" प्रोफ़ेसर ने अपना कमरा समझकर भगवान के आले की ओर इशारा किया | अर्चना अल्मिरा से एक अगरबत्ती लेकर आई और सुधीर को दे दी | सुधीर ने अगरबत्ती जलाकर प्रोफ़ेसर के सिरहाने रख दिया | प्रोफ़ेसर ने राहत की साँस ली , "हाँ, अब आराम है | शोभा , ये तकिया हटा दो |" प्रोफ़ेसर ने अर्चना को शोभा कहकर संबोधित किया | अर्चना चौंकी, पास नहीं गयी | सुधीर ने पास आकर तकिया हटा दिया | "शोभा ! तुम डॉली को लेकर...बस कुछ दिन की तो बात थी ... उसके बाद मैं ..." प्रोफ़ेसर अचानक चुप हो गए, "सुधीर ? ये तुम हो क्या ?"
"जी सर! क्या बात है ?" सुधीर ने पूछा | प्रोफ़ेसर चुप रहे | "सर ?" सुधीर पास आये | "नहीं, कुछ नहीं" प्रोफ़ेसर झल्लाकर बोले, "मैं ठीक हूँ | चलो, मैं चलता हूँ |" ये कहकर प्रोफ़ेसर चुपचाप लेट गए | थोड़ी देर बाद उठकर बोले - "सुधीर ! चौखम्भा चलेंगे हम, ठीक है ?" सुधीर ने हाँ में सर हिला दिया |

- क्रमश:

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

क्रमशः ही सर्वाधिक खटका कहानी में, यह कहानी का अंग नहीं हो सकता।

शिवा said...

बेहतरीन पोस्ट

शिवा said...

बेहतरीन पोस्ट :
shiva12877.blogspot.com