Thursday, January 13, 2011

गुरु मन्त्र

कविताओं की काफी बात होती है, लेकिन कहानियों की नहीं | कभी कभी तो मुझे लगता है कि कहानी लिखने वाला रोज़ अपना आधा दिन अपने पात्रों के साथ बिताता होगा, जबकि कविता लिखने वाला पांच मिनट में कुछ चमत्कार सा लिखकर ख़त्म कर देता होगा | कविता के साथ मजेदार बात यह है कि समझ न आने पर वो और महान हो जाती है | इसी से मिलती जुलती बात कहानी के साथ यह है कि पात्रों की ऐसी तैसी कर दो, कहानी बढ़िया हो जायेगी | लेकिन इन सब के बीच हम यह भूल जाते हैं कि जिन लोगों का नाम आज अमर है, उन्होंने बहुत ही साधारण ढंग से लिखा है | प्रेमचंद उसी कड़ी के हैं, उन्हें देख के एक बार आपको भी लगेगा कि अरे , इसमें क्या बात है ये तो मैं भी लिख सकता हूँ | लेकिन वो कहानियां जनमानस की कहानियां हैं, साहित्य का चमत्कार करने की उसमे अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं है | पाठक को अपने साथ बहा ले चलना ही उनका चमत्कार है |





घर के कलह और निमंत्रणों की कमी से पंडित चिंतामणि जी के चित्त में वैराग्य पैदा हुआ और उन्होंने सन्यास ले लिया तो उनके परम मित्र पंडित मोटेराम शास्त्रीजी ने उपदेश दिया - दोस्त, हमारा अच्छे-अच्छे साधू-महात्माओं से सत्संग रहा है | यह जब किसी भलेमानस के दरवाजे पर जाते हैं, तो गिड़गिड़ाकर हाथ नहीं फैलाते और झूठे आशीर्वाद नहीं देने लगते कि 'नारायण तुम्हारा चोला मस्त रखे, तुम हमेशा सुखी रहो |' यह तो भिखारियों का दस्तूर है | संत लोग दरवाजे पर जाते ही कड़क कर हांक लगते हैं, जिससे घर के लोग चौंक पड़ें और उत्सुक होकर द्वार की तरफ दौड़ें | मुझे दो-चार वाणियां मालूम हैं, जो चाहे ग्रहण कर लो | गुदड़ी बाबा कहते थे-'मरें, तो पाँचों मरें |' यह ललकार सुनते ही लोग उनके चरणों पर गिर पड़ते थे | सिद्ध बाबा की हांक बहुत श्रेष्ठ थी- 'खाओ, पियो, चैन करो, पहनो गहना, पर बाबा जी के सोटे से डरते रहना |' नंगा बाबा कहते थे- 'दे तो दे, नहीं दिला दे, खिला दे, पिला दे, सुला दे |' यह जान लो कि तुम्हारा आदर सत्कार बहुत कुछ तुम्हारी हांक के ऊपर है | और क्या कहूँ | भूलना मत | हम और तुम काफी दिनों साथ रहे, अनेकों भोज साथ खाए | जिस नेवते में हम और तुम दोनों पहुंचते थे, लाग-डाट से एक-दो पत्तल और उड़ा ले जाते थे | तुम्हारे बिना अब मेरा रंग नहीं जमेगा, ईश्वर तुम्हें हमेशा सुगन्धित वस्तु दिखाए |
          चिंतामणि को इन वाणियों में एक भी पसंद नहीं आई | बोले- मेरे लिए कोई वाणी सोचो |
          मोटेराम- अच्छा यह बोली कैसी है कि, 'न दोगे तो हम चढ़ बैठेंगे' ?
          चिंतामणि- हाँ , यह मुझे पसंद है | तुम्हारी इजाजत हो तो इसमें काट-छांट करूँ |
          मोटेराम- हाँ, हाँ करो |
          चिंतामणि- अच्छा, तो इस प्रकार रखो- न देगा तो हम चढ़ बैठेंगे |
          मोटेराम- (उछलकर) नारायण जानता है, यह बोली अपने रंग में निराली है | भक्ति ने तुम्हारी अकल को चमका दिया है | भला एक बार ललकार कर कहो तो देखें किस तरह कहते हो |

          चिंतामणि ने दोनों कान उँगलियों से बन्द कर लिए और अपनी ताकत से चिल्लाकर बोले- न देगा तो चढ़ बैठूंगा | यह नाद ऐसा आकाशभेदी था कि मोटेराम भी अचानक चौंक पड़े | चमगादड़ घबराकर पेड़ों पर से उड़ गए, कुत्ते भूंकने लगे |

          मोटेराम- दोस्त, तुम्हारी वाणी सुन कर मेरा तो कलेजा कांप उठा | ऐसी ललकार कहीं सुनने में नहीं आई, तुम सिंह की भांति गरजते हो | वाणी तो निश्चित हो गयी अब कुछ दूसरी बातें बताता हूँ, कान लाकर सुनो | साधुओं की भाषा हमारी बोलचाल से अलग होती है | हम किसी को आप कहते हैं और किसी को तुम | साधु लोग छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, सबको तू कह कर बुलाते हैं | माई और बाबा का हमेशा उचित व्यवहार करते रहना | यह भी याद रखो कि सादी हिंदी कभी मत बोलना; नहीं तो मरम खुल जाएगा | टेड़ी हिंदी बोलना; यह कहना कि, 'माई मुझको कुछ खिला दे' साधुजनों की भाषा में ठीक नहीं है | पक्का साधु इसी बात को यों कहेगा- माई मेरे को भोजन करा दे, तेरे को बड़ा धर्म होगा |
          चिंतामणि- दोस्त, हम तेरे को कहां तक जस गावें | तेरे ने मेरे साथ बड़ा उपकार किया है |

          यों उपदेश दे कर मोटेराम चले गए | चिंतामणि जी आगे बढे तो क्या देखते है कि गांजे-भांजे की दूकान के सम्मुख कई जटाधारी महात्मा बैठे हुए गांजे के दम लगा रहे हैं | चिंतामणि को देखते ही एक महात्मा ने अपनी जयकार सुनायी- चल-चल, जल्दी लेके चल नहीं तो अभी करता हूं बेचैन |
          एक दूसरा साधु कड़क कर बोला - अ-रा-रा-रा-धम, आये पहुंचे हम, अब क्या है गम |
          अभी यह कड़ाका आसमान में गूँज ही रहा था कि तीसरे महात्मा ने गरज कर अपनी बोली सुनायी- देस बंगाला, जिसको देखा न भाला, चटपट भर दे प्याला |
         चिंतामणि से अब न रहा गया | उन्होंने भी कड़क कर कहा- नहीं देगा तो चढ़ बैठूंगा |

          इतना सुनते ही साधुजन ने चिंतामणि का सादर अभिवादन किया | तत्क्षण गांजे की चिलम भरी गयी और उसे सुलगाने का काम पंडित जी पर पड़ा | बेचारे बड़े मुसीबत में पड़े | सोचा, अगर चिलम नहीं लेता तो अभी सारी कलई खुल जायेगी | मजबूर होकर चिलम ले ली; किन्तु जिसने कभी गांजा न पिया हो, वह बहुत कोशिश करने पर भी दम नहीं लगा सकता | उन्होंने आंखें बन्द करके अपनी समझ में तो बड़े जोरों से दम मारा | चिलम हाथ से छूटकर गिर पड़ी, आंखें निकल आयीं, मुँह से फिचकुर निकल आया, लेकिन न तो मुँह से धुंए के बादल निकले, न चिलम ही सुलगी | उनका यह कच्चापन उन्हें साधु-समाज से च्युत करने के लिए बहुत था | दो-तीन साधु झल्ला कर आगे बढे और बड़ी बेरहमी से उनका हाथ पकड़ कर उठा लिया |

          एक महात्मा- तेरे को धिक्कार है |
          दूसरे महात्मा- तेरे को लाज नहीं आती ? साधु बना है, मूर्ख ?
          पंडितजी शर्मिंदा होकर समीप के एक हलवाई की दूकान के सामने जा बैठे और साधु समाज ने खंजड़ी बजा-बजा कर यह भजन गाना आरम्भ किया :
          माया है संसार संवलिया, माया है संसार;
          धर्माधर्म सभी कुछ मिथ्या, यही ज्ञान व्यवहार;
                                        संवलिया, माया है संसार |
          गांजे, भंग को वर्जित करते, है उन पर धिक्कार;
                                        संवलिया, माया है संसार |

: प्रेमचंद

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़वाने का धन्यवाद।

Rahul Singh said...

सुनो भई साधो.

सञ्जय झा said...

bahut bahut dhanywad basiyal bahi.

sadar

मुनीश ( munish ) said...

dhanya-dhanya ! ye kalushit net nagariya pavitra ho gayi !