Friday, January 14, 2011

शीत के आगमन का पर्व -- 'उतना'

आज मकर संक्राँति है. हमारी (लाहुल की पटनी समुदाय की) परम्परा में नव वर्ष का पहला दिन।
मुझे लगा कि अपने नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ आज कबाड़खाने के पाठकों को अपनी आदिम परम्पराओं की एक एक हल्की सी झलक दिखा दूँ. और उन्हे उस भारत से अवगत कराऊँ, जो किताबी, फिल्मी और शहरी दुनिया मे प्राय: दिखाई नही देती।
कहते हैं आज सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है. शायद इसी लिए इस पर्व का नाम ‘उतना’ है. इस पर्व का आयोजन बहुत साधारण सा होता है . घर का सब से बड़ा पुरुष सुबह सवेरे उठ कर स्नान करता है, और घर की छत पर जा कर (लाहुल मे पारम्परिक रूप से समतल छतों का प्रचलन है. ) ग्राम देवता और कुलदेवता को भोग अर्पित करता है. भोग मे सत्तू का शंकवाकार पिण्ड (टोटु) तथा मक्खन का बना दंज़ा (बनबकरा /आईबेक्स) अर्पित किया जाता है. साथ में पवित्र लकड़ी शुर (सरू/ जुनिपर) की धूणी निकाली जाती है. और पुरखों के लिए सत्तू और तेल पिण्ड दान दिया जाता है. उतना पर्व के साथ एक रोचक मिथक यह जुड़ा है कि आज के दिन शीत देवता ऊंचे हिमनदों से उतर कर चन्द्रभागा संगम मे स्नान करता है. साक्षात यक (आईस) का बना वह देव इक्कीस दिनो तक नदी मे ही निवास करता है. और इन दिनो नदी जम जाती है।
२२ वे दिन वह बाहर निकलता है।
२३ वे दिन खेत पर आता है ।
२४ वे दिन चूल्हे मे घुस जाता है। कहते हैं इस दिन आग मे ताप ही नही होता. और यह सबसे ठंडा दिन होता है. 25वे दिन वह प्रस्थान करता है . उस दिन स्त्रियाँ और बच्चे उसे गीत गा कर विदाई देते हैं. भुर्ज की टहनियों से मवेशियों की पीठ् झाड़ते हैं.... कहते है वह किसी किसी मवेशी से चिपका रह जा सकता है। :-
लीह्ज़ु डेला रे थग्ज़ुईं
डेहलो फुङ रे लेह्तुईं .........
यक की डलियाँ तोड़ो , डेहला के हार पहनो ,
हे शीत देवता अपने ठार जाओ, इन बेज़ुबानो को छोड़ो.....
शीत इली रीत अति.... अर्थात शीत चला गया अब ठंड से राहत मिलेगी।
कहते हैं कि 14 फरवरी को वह अपने मूल स्थान (ग्लेशियर) मे चला जाता है. और तापमान के उतार चढ़ाव के बावत आदिवासियों की यह गणना एक दम सटीक होती है।
उतना मेरे क़बीले मे एक महत्वपूर्ण पर्व है, वर्ष के तमाम बड़े उत्सवों की तिथि उतना के आधार पर ही तय होती है। उतना के बाद जो पहली पूर्णिमा आएगी वह खोगला का दिन होगा. खोगला आग का त्योहार है. इस दिन शुर की मशालें बाँधी जाती जातीं हैं. इन मशालों को हाल्डा कहा जाता है. रात को नियत समय पर घर के सभी पुरुष इन मशालों को ले कर गाँव के बाहर एक स्थान तक ले जातें हैं, वहाँ इकट्ठे हो कर अलाव जलाते हैं तथा पड़ोसी गाँव का हाल्डा भी देखते हैं।
इस के अगले अमावस्य को कुँस त्योहार आता है जो कि सर्दियों का मुख्य त्योहार है. यह वर्ष भर मे वह अकेला दिन होता है जब लाहुल के लोग एक दूसरे का अभिवादन करते हैं. जौ की कोंपले जो अँधेरे मे उगाई जाती हैं, तथा पीली हो जाती हैं इन्हें यौरा कहा जाता है. अभिवादन के दौरान परस्पर यौरा बाँटा जाता है, एक दूसरे के पैर छुए जाते हैं और कुशल मंगल सुख साँत पूछा जाता है. इस उत्सव मे बलराज की पूजा होती है. जो कि समृद्धि और बरक़त के देवता माने जाते हैं . लोक गाथाओं मे इसे बळिदानो तिहार कहा गया है . यह भी मान्यता है कि यह त्योहार पौराणिक राजा बलि अथवा वैदिक असुर बल की स्मृति मे मनाया जाता है. यह उत्सव कई दिनों तक चलता है. खूब माँस एवम मदिरा का सेवन होता है. ( विस्तार से फिर कभी)

13 comments:

शिवा said...

बहुत खूब ...

Neeraj said...

अजेय, गाँव से जुड़े हुए हो यार तुम सही में |

राजेश उत्‍साही said...

शोधपरक।

harcues said...

bhaiji naya saal mubarak ! jis tarah lahol ki reeti-rewajon ko ap nai sarlata sai rakha hai wakai maja aa gaya....dher sari subhkamanai.

Vikram katoch said...

great sir
this was very informative
you are the best.
Happy new year:)

Vikram katoch said...

great
this was very informative sir.
u r the best.
Happy new year.

harcues said...

bhaiji,naya saal mubarak !jis sunderta sai aap nai apnai reeti-riwajon ko rakha hai.. wakai acha lga...bahut kuch yaad aa gaya ...yai kahaniyan mainai bhi suni hai magar lagbhag mit chuki thi... fir tarotaza kar di..shukriya.mujhai lagta hai ki aap kai dwara hamara ateet awshaya aanai walai kal tak pahoonchega, meri shubhkamna hai !!

Neeraj said...

और नया साल मुबारक |

मैं तो भूल गया था बोलना

प्रवीण पाण्डेय said...

जिस नाम से भी चाहें, आपको बधाई हो।

सुनीता said...

अपने त्यौहार के बारे में यहाँ पढ़ कर अच्छा लगा ,,
यहाँ मैं कहना चाहूंगी कि हमारे यहाँ हर त्यौहार और पर्व पर सबसे पहले सुबह सुबह छत पर जाकर अपने पित्तरों को अपने रीती के अनुसार भोग अर्पित करते हैं ,, एक और बात कि इस त्यौहार के बाद *डेहरा* यानी मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते हैं और ऐसी और वो *भ्रेशु* यानी बैसाखी वाले दिन ही खोले जाते हैं ,,

आप सभी को *उतना * व् नव बर्ष कि शुभकामनाये.

सुनीता said...
This comment has been removed by the author.
niranjan dev sharma said...

मेरे लिए भी बहुत सी जानकारी नई है। पत्रिका (नाम भूल रहा हूँ ) पहाड़ विशेषांक निकाल रही है । ऐसी जानकारी लेख के रूप में वहाँ जानी चाहिए। आज दोरजे जी को वह पत्रिका मैंने दी है।

अजेय said...

# सुनीता,सुरेश , इस अतिरिक्त जानकारी के लिय शुक्रिया. दरअसल हमारे पास पूरी की पूरी एक अलग ही दुनिया है जिसे हम अभी बाहर की दुनिया के सामने से अच्छे से नही रख पाए हैं. सम्प्रेषण की समस्या के चलते अक्सर हम अतिरंजना कर जाते हैं.यह लेखन के एथिक्स के तहत गम्भीर अपराध है. इस से क्या होता है कि पाठक हमारे समाज और इलाक़े की अजीब ही रहस्यमयी छवि बना लेता है.जो टूरिज़्म प्रोमोशन के लिहाज़ से उपयोगी तो है, लेकिन शेष भारत भारत का बौद्धिक वर्ग इस से भ्रमित हो जाता है. आप लोग पढ़ने लिखने मे रुचि रखते हो, अतः इस ओर खास ध्यान दीजियेगा. सतर्क हो कर सटीक सूचनाएं बाँटियेगा. शुभ कामनाएं.
अपने अन्य त्योहारों पर इस तरह के साधारण और छोटे लेख लिखिये,चाहे अंग्रेज़ी मे ही, उन के अनुवाद मुझे यहाँ कबाड़खाने पर लगा कर खुशी होगी.
# अन्य सभी का आभार.