Saturday, February 19, 2011

रोनाल्डो! रोनाल्डो!!

आज से क्रिकेट का विश्वकप शुरू हो रहा है. लेकिन खेल जगत में फ़रवरी २०११ एक और घटना के लिए याद की जाती रहेगी - ब्राज़ील के फ़ुटबॉलर रोनाल्डो ने इस महीने खेल से संन्यास ले लिया. जादुई लातीन अमेरिकी फ़ुटबॉल के सम्भवतः अन्तिम प्रतिनिधि रोनाल्डो के रिटायरमैन्ट पर भाई शिवप्रसाद जोशी ने यह लेख कबाड़ख़ाने के लिए भेजा है.


धूप और परछाई के फ़ुटबॉल में

शिवप्रसाद जोशी

नौ साल पहले की सुखद स्मृतियों और उसके बाद विवादों आरोपों कलहों द्वंद्वों तनावों और चोटों के अजीबोग़रीब सिलसिलों के बाद 2011 की फ़रवरी में ब्राज़ीली खिलाड़ी रोनाल्डो ने आख़िर फ़ुटबॉल से संन्यास ले लिया. उस खेल से जिसके वो सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में से एक माने जाते रहे हैं. फ़ुटबॉल के इतिहास में फ़्रांस के ज़ेनादिन ज़ेदान और रोनाल्डो ही दुनिया के सिर्फ़ दो ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें खेल की शीर्ष संस्था फ़ीफ़ा का प्लेयर ऑफ़ द इयर अवार्ड तीन बार हासिल हुआ है.

रोनाल्डो के नाम और भी कई रिकॉर्ड हैं. विश्व कप फ़ुटबॉल में सबसे ज़्यादा 15 गोलों का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है. 2007 में हुए एक पोल में उन्हें सर्वकालिक टीम के ग्यारह खिलाड़ियों में से एक चुना गया. फ़ुटबॉल के जादुगर पेले ने दुनिया के महानतम फ़ुटबॉलरों की सूची तैयार की थी, उसमें रोनाल्डो का भी नाम था. पिछले साल ही फ़ुटबॉल की एक मशहूर वेबसाइट गोल डॉट कॉम के एक ऑनलाइन पोल में दशक के खिलाड़ी के रूप में रोनाल्डो को सबसे ज़्यादा वोट मिले.

2010 की फ़रवरी में रोनाल्डो ने कहा था कि वो 2011 में खेल से रिटायर हो जाएंगें. अपनी धुन के पक्के रोनाल्डो ने ठीक एक साल बाद ये एलान भी कर दिया.

22 सितंबर 1976 को रोनाल्डो लुइस नज़ारियो दि लिमा नाम के साथ जन्मे रोनाल्डो फ़ुटबॉल खेल जगत में उस समय चमक के साथ प्रकट हुए थे जब 20वीं सदी का आखिरी दशक चल रहा था और 21वीं सदी आ रही थी.

21 साल की उम्र में अपना पहला खिताब पाने वाले रोनाल्डो फ़ुटबॉल की उस जादुई चमक और उस रहस्य भरे लातिनी शौर्य के आख़िरी रचनाकार हैं जिसकी झलक पेले और माराडोना ने दिखाई थी.

गठीला बदन चौड़ा मुंह खुला ललाट उभरा हुआ जबड़ा धंसी हुई आंखें और तीक्ष्ण गहरी निगाहें. पेले और माराडोना के बाद रोनाल्डो समकालीन लातिन फ़ुटबॉल के सर्वाधिक खिलाड़ियों में एक हैं. मैदान पर वो एक सोचते हुए खिलाड़ी की तरह खेलते रहे हैं जो मौक़ा लगते ही गेंद और गोल पर बाघ की तरह नहीं झपटता था बल्कि विपक्षी टीम के हाफ़ में एक रणनीति के साथ कहीं पर ठहरा हुआ अपनी जगह पर हिलडुल करता हुआ सा आवेग था. गेंद झपटने के लिए रोनाल्डो हमला नहीं करते थे वो न जाने कैसे एक शांत स्थिरता लगभग ख़ामोश चपलता से विपक्षी डिफ़ेंस के पांवों में फंसी गेंद को अपनी कलात्मकता की दर्शनीय उलझन में ले आते थे. वो डिफ़ेंस को तितरबितर नहीं करते थे. रोनाल्डो के उल्लेखनीय गोल अगर आप देखें तो पाएंगें कि विपक्षी खिलाड़ी उनके साथ बराबर बने रहते हैं. रोनाल्डो के खेल की ये रोचकता है कि उन्हें देखते ही विपक्ष दाएं बाएं नहीं हो जाता. वो उन्हें कुछ इस तरह दोस्ताना चुनौती में सहजता में साथ ले आते हैं और फिर उनके बीच अपनी वो निराली विनम्र टॉसिंग फ़्लिकिंग करते थे. वहां गेंद विपक्षी खिलाड़ी के पांव से टकराती हुई वापस रोनाल्डो के पांवों से चिपक जाती है. वो अपने दोनों पांवों को गेंद खेलाते हुए दौड़ते जाते हैं. रोनाल्डो ने बड़ी स्ट्राइकों की अपेक्षा बजाय ज़्यादातर सरकाते हुए कोण बनाते हुए ऐन गोलपोस्ट तक पहुंचते हुए छकाते हुए गोल किए हैं. गेंद भी जैसे उनके पांवों के संतुलन नियंत्रण अनुशासन और नृत्य के स्टैप्स पर लहराती झूमती गोलपोस्ट में गिरती जाती थी. रचना की कठिन चढ़ाई को पार कर रचना का एक विकट ढलान और फिर वापस. खेल का अनूठा सांबा सांबा. अपने दिग्गज अग्रजों और अपने प्रतिभाशाली समकालीन खिलाड़ियों की खेल ऊर्जा को रोनाल्डो ने अपने खेल में समाहित करने की कोशिश की थी.

रोनाल्डो ने खेल की बदौलत अपार लोकप्रियता अपार प्रतिष्ठा अपार अमीरी हासिल की.

वो उन असाधारण दिनों में अपनी पीली जर्सी पहने एक कौंध खेल में दिखा रहे थे जब बाज़ार फ़ुटबॉल के मैदान में बढ़ता ही चला आ रहा था. पीला और कई रंगों वाला ये जादू एक अभूतपूर्व आग के हवाले हो जाने वाला था जो शोहरत और कमाई के रूप में खिलाड़ियों का वक़्त और प्रतिभा और जुनून निगलती जा रही थी. और फैलती ही जाती थी.

रोनाल्डो ऐसे ही उस दौर के शिकंजे में आए हुए बीमार पस्त खिलाड़ी रह चुके थे जब 1998 के विश्व कप में उनकी टीम को फ्रांस से मात खानी पड़ी थी. इंजेक्शन देकर उन्हें मैदान पर उतारा गया था. वो फ़ाइनल खेलने लायक नहीं थे. पारिवारिक मुश्किलों अवसाद और चोटों से बीमार रोनाल्डो ड्रेसिंग रूम में उल्टी कर रहे थे. लेकिन उनकी टीम उनके देश उनकी कंपनी उनके क्लब उनके नाम का इतना भारी दबाव था कि रोनाल्डो को न उतारने की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था. ख़ुद रोनाल्डो हैरान थे. उस दिन उन्हें पहली बार लगा था कि प्रेत भी फ़ुटबॉल के मैदान पर जाकर भाग सकते हैं इधर उधर निरीह ढंग से गेंद को धकियाते ख़ुद को फेंकते रह सकते हैं. लेकिन रोनाल्डो बाज़ार के उस प्रेत को अपनी आदमक़द सामर्थ्य में वापस क़ैद कर सकने वाले खिलाड़ी थे. लालच और कमाई के उस विशालकाय जबड़े से चालाकी और चतुराई और चमत्कार से निकल आने वाले खिलाडी़ भी वो बने. 2002 का विश्व कप इसका गवाह है. जहां रोनाल्डो अविश्वसनीय और ऐतिहासिक ज़िद के साथ मैदान पर उतरे थे और अपनी टीम को विश्व कप जिताने में प्रमुख भूमिका उन्होंने निभाई थी.

रोनाल्डो इस जीत के बाद ब्राज़ील ही नहीं सहसा पूरे खेल के ही महानायक बन गए थे. वो एक ऐसा क़िला बन गए थे जो आसमान की बुलंदियों को न जाने कैसे ऊंचा ही उठता जाता था. रोनाल्डो को देखने के लिए नज़रें ऊपर करनी पड़ती थीं. एक बार फिर रोनाल्डो उस विकट इम्तहान में घिर गए जिससे उनका देश और समूचा लातिन अमेरिका सदियों से गुज़रता आ रहा था. रोनाल्डो एक महान खेल के एक समृद्ध संपन्न शक्तिशाली उपनिवेश बना दिए गए. रोनाल्डो जैसे धुरंधर इस “किक” से स्तब्ध रह गए. वो उन अमीर खेल क्लबों में इधर से उधर घूमते ठिठकते रहे जो इस बीच अपने खिलाड़ियों के कलात्मक हुनर और इसके पीछे पीछे उनके ग्लैमर और उनकी मांग और प्रशंसकों के बीच उनके क्रेज़ के दम पर दुनिया के कई देशों और उनकी सरकारों के सकल घरेलू उत्पाद जितना या कहीं उससे ज़्यादा कमाते रहे हैं. रोनाल्डो ने अपने रिटायरमेंट पर यही कहा कि इस ख़ूबसूरत खेल के लिए उन्होंने कई त्याग किए और अब अपने शरीर के साथ संघर्ष करते हुए वो हार चुके हैं. रोनाल्डो भले ही कह कर गए कि उन्हें कोई मलाल नहीं है. लेकिन उनके रिटायरमेंट बयान में उनकी जिस्मानी तक़लीफ़ की ओर ही इशारा नहीं है उस बड़ी फैली हुई विडंबना की ओर भी अनचाहे ही इशारा है जो एक खिलाड़ी को खेल के मैदान से इतर उसकी लोकप्रियता के रिंग में रौंद कर रख देती है.

उरुग्वे के प्रसिद्ध लेखक उपन्यासकार और पत्रकार एडुआर्दो गैलियानो की फ़ुटबॉल पर लिखी एक ऐतिहासिक किताब है सॉकर इन सन एंड शेडो. लातिन अमेरिकी फ़ुटबॉल की फ़िलॉसफ़ी पर ये दस्तावेज़ सरीखी मानी जाती है. गैलियानो फ़ुटबॉल के इतिहास की एक विहंगम झांकी दिखाते हैं कि कैसे ये खेल दक्षिण अमेरिका में आया और कैसे उसका अभिन्न हिस्सा बन गया. ब्राज़ील, अर्जेटीना, उरुग्वे और मेक्सिको जैसी टीमों वाले लातिन अमेरिका के परिप्रेक्ष्य से वो विश्व कप आयोजनों के इतिहास पर भी नज़र डालते हैं. उस इतिहास में कई किस्से कहानियां हैं. गुदगुदाने वाली घटनाएं हैं, उदास करने वाले ब्यौरे हैं. हिला देने वाली तफ़्सील हैं. गैलियानो खेल के कॉरपोरेटीकरण के बारे में भी बताते हैं. बाज़ार का प्रवेश और कैसे खेल एक उपभोक्ता सामग्री में बदल गया है और खिलाड़ी उत्पाद में. खेल में जादू रहा न करिश्मा, कलात्मकता और रचनात्मकता के लिए जगहें सिकुड़ती जा रहीं. अब कंपनियां और क्लब एथलीट ही नहीं मैनेजर भी चाहती हैं. खेल के मैदान पर अब खिलाड़ी तो उतरते हैं लेकिन असल में वे मैनेजर भी होते हैं जिन्हें कुछ करतब करने कुछ देर दौड़ने और कुछ छलांगे लगाने के लिए मैदान पर भेजा जाता है. वे शायद किसी "डोर" से बंधे होते हैं.

फ़ुटबॉल का खेल अब शोहरत-सनसनी और बुलंदी और विवादों और अफ़वाहों और अरबों खरबों यूरो-डॉलरों के महाबिजनेस में प्रोडक्ट की हैसियत से जा रहा है. 2010 का विश्व कप आख़िर एक साया खेल ही तो था. महानता विलक्षणता जीवटता जादुई कलात्मकता वाला स्पर्श ख़ून पसीने और चोटों की वे ऊबड़खाबड़ लकीरें और मैदान पर धंस जाने वाला जुनून कहां था जिसकी तड़कती तेज़ रोशनियां उस गेंद में समाती रहती थीं और सहसा वहां से रिफ़्लेक्ट होकर हमारी ज़िंदगियों में झिलमिलाती रहती थीं. खिलाड़ी उस गेंद से ही क्यों बचते हुए उसे खेलने के लिए नहीं बल्कि न खेलने के लिए महज़ सरकाते हुए उससे मानो दूर दूर भागते हुए खेल रहे हैं जिसका प्रकाश फ़ुटबॉल कहलाता है. विश्व कपों में सबसे ज़्यादा गोल दागने वाले रोनाल्डो उम्मीद है अब इस प्रकाश की दार्शनिक मानवीय छाया में रहेंगें और आत्मीयता से याद किए जाते रहेंगें

1 comment:

naveen kumar naithani said...

हरजीत का शे’र

जिन्दगी मेम खेल भी हों,रंग भी काफी
रहे न फ़र्क अब कोई, पिकासो और पेले में