उम्मीद करता हूँ आपको यह सीरीज पसंद आई होगी. आज इसका अंतिम हिस्सा.
इन्द्रधनुष
जंगल में रहने वाले बौनों ने योबूएनाहूआबोश्का को घात लगा कर फंसा कर उसका सिर काट डाला था.
लुढ़कता हुआ सिर वापस अपने घर कशीनहूआ पहुँच गया.
हालांकि इस सिर ने प्रसन्न रहते हुए लुढ़कना सीख लिया था, बग़ैर शरीर के इस जिंदा सिर की किसी को भी ज़रूरत नहीं थी.
"मां, मेरे भाइयो, मेरी बहनों, मेरे साथियो" उसने दुःख व्यक्त करते हुए कहा "तुम मुझे क्यों अस्वीकार कर रहे हो? क्या तुम मेरी वजह से शर्मसार हो."
इस पचड़े से परेशान मां ने सिर से छुटकारा पाने की नीयत से सुझाव दिया की वह अपने को किसी भी चीज़ में बदल ले. लेकिन जिद्दी सिर ऐसी किसी भी चीज़ में बदलने को तैयार नहीं था जिसका पहले से ही वजूद हो. सिर ने बहुत सोचा और इस बाबत सपने भी देखे. चन्द्रमा का अस्तित्व नहीं था. और इन्द्रधनुष का भी नहीं.
उसने सात रंगों के उन के सात गोलों की मांग की.
उसने निशाना साधा और एक के बाद एक गोलों को आकाश की तरफ उछल दिया. गोले बादलों के ऊपर टंगे रहे और उन के धागों ने धीरे-धीरे धरती पर उतरना शुरू किया.
धागों को थामे सिर ने ऊपर उठने से पहले चेतावनी दी - "जो भी मुझे नहीं पहचानेगा उसे सजा दी जायेगी. जब भी तुम मुझे आकाश में देखो तुम्हें कहना चाहिए - वो रहा वीर और सुन्दर योबूएनाहूआबोश्का."
अब उसने सातों धागों को लटों में गूंथ कर रस्सी बनाई और आसमान में चढ़ गया.
उस रात पहली बार सितारों के बीच बड़ा सा एक सफ़ेद धब्बा दिखना शुरू हुआ. एक लड़की ने आँखें उठा कर उसे देखा और पूछा - "वो क्या है?"
उसके ऐसा कहते ही एक बड़ा सा तोता कहीं से आ गया और उसने लड़की की टांगों के बीच काट लिया. तभी से जब-जब चन्द्रमा चाहता है स्त्रियों को रक्तस्राव होने लगता है.
अगली सुबह आसमान में सात रंगों वाली एक रस्सी नज़र आई.
एक आदमी ने अपनी ऊँगली उस तरफ करके कहा - देखो, देखो! कैसी अजीब चीज़ है!"
ऐसा कहते ही वह नीचे गिर पड़ा.
धरती पर होने वाली यह पहली मौत थी.