Sunday, March 6, 2011

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे ? -- 5



पटन घाटी के बोद और स्वाङ्ला

बीर सिंह जी बहुत बातूनी हैं. उन के क़िस्से सुनते हुए हम लोग कब तान्दी , ठोलंग , तोज़िंग गाँवों को पार करते हुए रङ्लिङ पहुँच गए, पता ही न चला. हम पटन घाटी में हैं. यह पीर पंजाल और ज़ंस्कर रेंज के बीच चन्द्र्भागा नदी के किनारे स्थित एक ऊर्वर भूभाग है. आधुनिक शिक्षा, आर्थिकी और अन्य भौतिक मानदंडों के आधार पर यहाँ का समाज काफी विकसित माना गया है. बहुत से लोग भारत सरकार के ऊँचे पदों पर नौकरियाँ कर रहे हैं. इधर काफी सारे लोग विदेशों में भी निकल गए हैं. ज़्यादातर घाटी से बाहर जा कर व्यवसाय कर रहे हैं.

यहाँ मुख्यत: दो समुदायों (जनजातियों) के लोग रहते हैं – स्वाङ्ला और बोद . स्वाङ्ला स्वयं को हिन्दू मानते हैं. और इन के जन्म, विवाह, मृत्यु आदि संस्कार भाट पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं. ‘बोद’ लोगों मे अपनी पहचान को ले कर थोड़ी कंफ्यूजन है. मैं स्वयं इसी समुदाय से हूँ. लेकिन चूँकि इन के संस्कार लामा पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं अत: प्राय इन्हे: बौद्ध धर्म के अनुयायी मान लिया जाता है. लेकिन लोक देवताओं और तीज त्यौहारों और रहन सहन, खान पान , बोली बानी, पहरावा आदि से सम्बन्धित तथा अन्य तमाम परम्पराएं दोनो समुदायों में प्राय: एक जैसी है. अंतर है भी तो नगण्य ही.

इस घाटी मे पटनी बोली व्यवहृत है. जो तिब्बती –बर्मी परिवार की मानी गई है, लेकिन इस पर ऑस्ट्रिक परिवार के गहरे इम्प्रेशन भी स्वीकारे गए हैं. इस के अतिरिक्त दो जातियाँ चाण तथा लोहार हैं. इन की अपनी अपनी बोलियाँ हैं जो सम्भवतय: आर्यभाषा परिवार की कोई प्राचीन बोलियाँ हैं. इन सभी समुदायों में परस्पर विवाह सम्बन्ध प्रायः मान्य नहीं है. लेकिन ये नियम बहुत सख्त भी नहीं हैं
( जारी)

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

नयी जानकारी।

रतन चंद 'रत्नेश' said...

Jaankari atyant mahattavpurn hai. Swangla aur Bod kee lok-sanskriti par koi pustak ho to mujhe awagat karayen....

अजेय said...

रत्नेश भाई, लाहुल की संस्कृति पर पचासों पुस्तकें हैं.ज़्यादातर पाश्चात्य लेखकों के लिखे हुए. और थोड़े से भारतीय लेखकों के भी. इन मे बहुत भ्रामक क़िस्म की सूचनाए हैं.
आप के लायक इस विषय पर कोई कॉम्पेक्ट सी जेनुईन पुस्तक मिले तो ज़रूर बताऊँगा. फिलहाल 'असिक्नी -2' मे सतीश कुमार लोप्पा का लेख देखिए. रोचक जानकारियाँ मिलेंगी.

Udan Tashtari said...

जारी रहिये...बढ़िया जानकारीपरक...

मुनीश ( munish ) said...

काफ़ी दिन कबाड़ से दूर रह कर काफ़ी कुछ खोया है मैंने । क्या शानदार सैर चल रही थी वाह । ये लेखों के नीचे की खिड़कियां अगर बढ़ जाएँ तो और जाने क्या क्या नायाब खज़ाने दफ़्न होने से बच जाएँ । हरि ओउ्म तत्सत ।