(पिछली पोस्ट से जारी)
सन सैंतालीस में केदार के दो संग्रह आए - नींद के बादल और युग की गंगा, दोनों ही पिछले पन्द्रह बीस साल के आगे-पीछे लिखी कविताएं थीं. नींद के बादल में उनका लहज़ा वैयक्तिक और मानवतावादी है और छायावाद के नज़दीक होने की भ्रामक प्रतीति कराता है. भ्रामक इसलिए कि उनका भाववाद और रोमांस, जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा छायावाद के परिष्कृत भोलेपन उदात्तता और दार्शनिक कौतुक से अलग देहाती और सचमुच भोला है. उसकी उड़ान यथार्थ के विपरीत नहीं बल्कि उस की तरफ़ है. जाहिर ऐ यह दिशाभेद ही उन्हें बाद में प्रगतिवादी आन्दोलन की तरफ़ ले गया है. युग की गंगा के अलावा ५७ में आए संग्रह लोक और आलोक में उनका यह संक्रमण क्रमशः घटित होते और ठोस शक्ल लेते दिखाई देता है. आन्दोलन की सामूहिकता और उत्साह के स्वाभाविक प्रभाव में तब के केदार ने सामाजिक परिवर्तन के स्वप्नों और चेतना की अभिव्यक्ति के लिए कविता में एक तरफ़ सरलता पर ज़ोर दिया और दूसरी तरफ़ उस सरलता के ही भीतर अवधारणाओं की अभिव्यक्ति के लिए नए उपकरण भी रचने की कोशिश की. युग की गंगा शिर्षक कविता ही प्रगतिवाद के कई रूढ़ क्लीशे और स्टीरियोटाइप्स का इस्तेमाल करती है: पाषाणों पर दौड़ने, बाधक चट्टानों को तोड़कर दुर्बल धरती हरियाने और शान्तिनिकेतन बनाने के लिए बेताब युग की गंगा जब आगे गुहागर्त से आगे जाकर सूर्योदय से खेलेगी ही की भविष्य कल्पना में लीन होती है तो स्टीरियोटाइप से ऊपर उठ जाती है. पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा या मार हथौड़ा कर-कर चोट वाला मशहूर हथौड़े का गीत या नोकीले भाले ताने, मुठ्ठी बांधे गेहूं जैसी पंक्तियां या मोर्चा पसीना फ़ौलाद लहर जैसे शब्द या तपता-गलता-ढलता गोली जैसा चलता वह शख़्स आज अगर आपको अयथार्थ या नकली लगता है तो उसके कारण कवि में तो नहीं ही हैं, कविता से भी बाहर हैं. अलबत्ता उस जन-श्रम और उसकी शक्ति को केदार ने तरह-तरह के रूपों में देखा और अभिनन्दित किया है. इस कोशिश में विचार और संवेदना का जो संश्लेषण हुआ है वह स्टीरियोटाइप्स और रूढ़ काव्यांगों को अनेक बार ऐसे ही जीवित कर देता है जैसे बकौल खुद केदार:
पत्थर भी बोलते हैं
जब चिड़ियों का झुण्ड बैठ जाता है उन पर
और वह चहकती हैं आपस में
जब यह संश्लेषण नहीं होता तो कविता पट्ट हो जाती है.
केदार का असली मैदान प्रकृति है. आदमी के साथ में प्रकृति. प्राकृति के लिए उनकी शुरूआती रूमानी आसक्ति उनकी बाद की कविताओं में भी लगातार मौजूद है - बल्कि वैचारिक और काव्यात्मक विकास के साथ तो वह और भी बढ़ी है. सन पैंसठ में आए उनके संग्रह फूल नहीं रंग बोलते हैं ने तो तहलका मचा दिया था. उसमें और इस के बाद आए संग्रहों-जिनमें पूर्व प्रकाशित कविताएं भी शामिल थीं- में प्रकृति के चटख ऐन्द्रिक रंगों-रूपों का ऐसा आलबाल है जैसा पहले कभी हिन्दी कविता में नहीं आया था. गौरतलब है कि प्रकृति के प्रति यह रुझान उनकी प्रगतिशील संवेदनाओं के लिए बाधक नहीं - उल्टे मददगार है. मसलन वे प्रकृति को ऐन्द्रिक गतिशील रूप में बांधते हैं और चित्रण के समानान्तर उसमें मानवीय अंश का समावेश करके एक वृहत-स्वच्छ अर्थ भी गूंथते चले जाते हैं. जाने-अनजाने बार-बार वे उसे कविता में लाते हैं. बहरहाल ये छोटी सी कविता है जैसे:
तेज़ धार का कर्मठ पानी
चट्टानों के ऊपर चढ़कर
मार रहा है घूंसे कस कर
तोड़ रहा तट चट्टानी
ये वही कर्मठ पानी की धार है जिसे केदार अपने रचनात्मक प्रारम्भ में युग की गंगा से ही साथ लिए चल रहे हैं. अलबत्ता शब्द तब से कम हैं बनैलापन काफ़ी बढ़ गया है.
कुदरत के साथ सामान्यतः केदार एक किसानी बहनापा बनाते हैं. लेख के शुरू में दिए उदाहरणों में वह दिखाई भी देता है. मगर कई बार वह एक क्लैसिक उदातता की ओर चले जाते हैं जो इस बनैलेपन के साथ मिलकर विस्मयजनक हो जाती है:
मैं घोड़ों की दौड़ बनों के सिर पर तड़-तड़ दौड़ा
पेड़ बड़े से बड़ा
चिरौंटे सा चिल्लाया चौंका
पत्तों के पर फड़-फड़ फड़के
उल्टे, उखड़े टूटे
मौन अन्धेरों की ढालों पर.
सांड पठारी छूटे.
प्रकृति की अदम्यता - वनों के शीश पर मैं की यह बलिष्ठ घोड़ों जैसी दौड़, आदमी की शक्तिमता और अजेयता की दौड़ है. आदिम प्रचंडता की कौंध के बीच अर्थ की एक निजी झिलमिलाहट. वाह्य का निजीकरण आज भी कितना मानीख़ेज़ है.
और फिर केदार की कविता में प्रेम का तो कहना ही क्या! शमशेर जैसा ही उत्कट लेकिन उस से नितान्त भिन्न. नींद के बादल की पुरानी कविता प्यारी जल में चमकता चांद से शुरू हुई टेक मांझी न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता जैसे मशहूर गीत से होती हे मेरी तुम और आत्मगन्ध तक आती है तो उसके रूप तो कई बदलते हैं पर आधार नहीं. इस लिहाज़ से वह थोड़ा पुराने तरीके का है ज़रूर. कुछ लोग इसे सामन्ती भी कह सकते हैं. पर फिर यही प्रेम है जो केदार का ममत्व है, सारी दुनिया. प्रकृति-समाज और कविता में व्याप्त, जिसके सहारे वे दुःख की टूटन से हर बार उठ खड़े होते हैं. इस उठ खड़े होने में ही तो कोई बात है.
(समाप्त)
2 comments:
नींद के बादल और युग की गंगा
दोनों ही पढ़नी पड़ेगी।
शुक्रिया ...कबाडखाना एक सनद रहेगा कई पन्नो को समेटे !
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