Wednesday, April 27, 2011
हर चुम्बन होता है एक मुल्क जिसका अपना इतिहास, अपना भूगोल
ईराकी कवयित्री दुन्या मिखाइल की दो और कविताएं:
मैं जल्दी में थी
कल मैंने खो दिया एक मुल्क
मैं जल्दी में थी,
और ग़ौर नहीं कर सकी कब अलग हुआ वह मुझसे
किसी भुलक्कड़ पेड़ की टूटी शाख की मानिन्द.
कृपा करके, अगर कोई इसके पास से होकर गुज़रे
और इससे टकरा जाए
शायद आसमान की तरफ़ मुंह खोले
किसी सूटकेस में
या किसी उघड़े घाव की तरह
उकेरा गया किसी चट्टान पर,
या उत्प्रवासियों के कम्बलों में लिपटा हुआ,
या किसी हारे हुए
लॉटरी के टिकट की तरह निरस्त,
या हताश भुला दिया गया
किसी सुधारग्रह में,
या बच्चों के सवालों की तरह
निरुद्देश्य भागता हुआ आगे-आगे,
या युद्ध के धुंएं के साथ उठता हुआ,
या रेत पर पड़े किसी हैल्मेट के भीतर लुढ़कता,
या अली बाबा के मर्तबान में चुराकर रखा हुआ,
या पुलिसवालों का भेस बनाए
जिसने क़ैदियों के जगाया
और भाग निकला,
या एक स्त्री के दिमाग़ में उकड़ूं बैठा हुआ
जो मुस्कराने का जतन अरती है,
या बिखरा हुआ
अमेरिका में नए आप्रवासियों के
सपनों की तरह,
अगर कभी कोई टकराए उस से
कृपया मुझे लौटा दे.
कृपया लौटा दें, सर.
लौटा दें कृपया, मादाम.
वह मेरा देश है ...
मैं जल्दी में थी
जब उसे खोया था मैंने कल.
अमेरिका
मेहरबानी कर के मुझ से मत पूछो, अमेरिका
- मुझे याद नहीं
किस कूचे में
किसके साथ
या किस सितारे के नीचे
मुझसे मत पूछो ...
मुझे याद नहीं
लोगों की त्वचाओं का रंग
या उनके दस्तख़त
मुझे याद ही नहीं
कि उनके पास हमारे चेहरे थे
या हमारे ख़्वाब
कि वे गा रहे थे
या नहीं
कि वे बांए से लिखना शुरू कर रहे थे
कि दांए से
या लिख भी रहे थे कि नहीं
घरों में सो रहे थे
या फ़ुटपाथों पर
या हवाई अड्डों में
प्यार करते हुए या नहीं.
मेहरबानी कर के मुझ से मत पूछो, अमेरिका
मुझे उनके नाम याद नहीं
न उनके जन्मस्थान -
घास होते हैं लोग
हर जगह उगा करते हैं, अमेरिका
मत पूछो मुझसे ...
मुझे याद नहीं
क्या बजा था तब,
मौसम कैसा था,
कौन सी भाषा,
या कौन सा झण्डा
मत पूछो मुझसे ...
मुझे याद नहीं
सूरज ने तले कितनी देर चलना पड़ा था उन्हें
और कितनों की मौत हुई
मुझे याद नहीं
नावों की आकृतियां
या पड़ावों की संख्या ...
वे कितने सूटकेस साथ ले गए
या कितने छोड़ गए अपने पीछे
कि वे शिकायतों के साथ पहुंचे
या उन्होंने नहीं की कोई शिकायत.
अपने सवालात बन्द करो अमेरिका
और दूसरे किनारे पर
थके हुओं को
अपना हाथ प्रस्तुत करो.
बिना सवालों
और प्रतीक्षा सूचियों के उसे प्रस्तुत करो.
पूरी दुनिया फ़तह करना किस काम का है अमेरिका
अगर तुम अपनी आत्मा ही गंवाडालो?
किसने कहा कि अगर रात बीत गई बग़ैर उत्तरों के
तो आसमान खो देगा अपने सारे सितारे?
अमेरिका, अपनी प्रश्नावली को नदी के लिए छोड़ दो
अर मुझे छोड़ दो मेरे प्रेमी के साथ.
बहुत लम्बा वक़्त बीत चुका है
सुदूर हिलोरें लेते नदीतट हैं हम दो
और नदी बल खाती बहती है हमारे दरम्यान
उम्दा पकाई गई मछली की तरह
अमेरिका, बहुत लम्बा वक़्त बीत चुका है
(शामों की
मेरी दादी की कहानियों से भी लम्बा)
और हम इशारे का इन्तज़ार कर रहे हैं
कि फेंक दें अपने कवच नदी में.
हम जानते हैं कि नदी
कवचों से अटी पड़ी है
इस आख़िरी वाले से
कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला,
हालांकि कवच को फ़र्क़ पड़ता है ...
क्यों पूछ रहे हो तुम इतने सवालात?
तुम्हें सारी भाषाओं में चाहिए
हमारी उंगलियों के निशान
और मैं बूढ़ी हो गई हूं
अपने पिता से भी बूढ़ी.
जब रेलगाड़ियां नहीं चला करती थीं
शामों को वे मुझे बताया करते थे -
एक दिन हम अमेरिका जाएंगे.
एक दिन जाएंगे हम
और गीत गाएंगे
तर्ज़ुमा किया हुआ या नहीं
स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी के आगे.
मैं आई हूं तुम तक अपने पिता के बग़ैर.
मृतक हिन्दुस्तानी अंजीरों से भी
अधिक तेज़ी से पकते हैं
लेकिन वे कभी बूढ़े नहीं होते अमेरिका.
वे परछाइयों और रोशनी की पालियों में आया करते हैं
हमारे सपनों में
और टूटते सितारों या
इन्द्रधनुष के घुमाव में
प्रकट होते हैं उन मकानों के ऊपर जिन्हें हमने छोड़ दिया है.
अगर हम उन्हें ज़्यादा इन्तज़ार करवाते हैं
तो कभी-कभी वे ग़ुस्सा हो जाते हैं ...
अभी क्या बजा है?
मुझे डर है, अमेरिका
कि मुझे मिलने वाली है तुम्हारी रजिस्टर्ड डाक
इस पल
जो किसी काम की नहीं ...
सो मैं खिलौने की तरह खेलूंगा इस आज़ादी से
जैसे चिढ़ाता हुआ पालतू बिल्ली को.
मैं नहीं जानती
इसके साथ और क्या करूं
इस पल
जो किसी काम की नहीं ...
और वहां सामने वाले तट पर
मेरा प्रेमी
मेरे वास्ते थामे खड़ा है
एक फूल.
और मैं - तुम जानते हो -
नफ़रत करती हूं फीके पड़ चुके फूलों से.
हर रोज़ डाक में चमकती
अपने प्रेमी का हस्तलेख मुझे वाक़ई प्रिय है.
मैं उसे बचा लेती हूं तमाम विज्ञापन के परचों
और "एक के साथ एक मुफ़्त" के विशेष ऑफ़र से
और एक ज़रूरी घोषणा से कि
"इस पत्रिका की सदस्यता लेकर
जीतें एक मिलियन डॉलर"
और बिल चुकाए जाने होते हैं
मासिक किस्तों में.
मुझे प्रिय है अपने प्रेमी का हस्तलेख
हालांकि वह होता जा रहा है दिन-ब-दिन और ज़्यादा डगमग.
हमारे पास बस एक तस्वीर है
बस एक तस्वीर, अमेरिका.
मुझे वह चाहिये.
मुझे वह पल चाहिये
(जो हमेशा पहुंच से परे)
उस तस्वीर में से
जिसे मैं हर कोण से पहचानती हूं -
आसमान का वह घुमावदार क्षण.
कल्पना करो, अमेरिका
अगर हम में से एक उस तस्वीर से निकल जाए
और अल्बम को छोड़ जाए
अकेलेपन से भरकर,
या अगर
जीवन बन जाए बिना फ़िल्म वाला एक कैमरा.
कल्पना करो, अमेरिका!
बिना फ़्रेम के
कल को रात
ले जाएगी हमें,
जानेमन,
कल,
रात ले जाएगी हमें
बिना किसी फ़्रेम के.
हम हमेशा के लिए झिंझोड़ कर जगा देंगे
संग्रहालयों को,
हमारी टूटी घड़ियों की मरम्मत करो
ताकि हम सार्वजनिक चौराहों पर टिकटिक कर सकें
जब भी रेल
हमारी बग़ल से गुज़रे.
कल
जानेमन,
कल,
खिलेंगे हम -
एक पेड़ कॊ दो पत्तियां
हम कोशिश करेंगे
बहुत ज़्यादा शालीन और हरी न हों
और समय के साथ-साथ
हम लुढ़केंगे नर्तकों की तरह
जब हवा हमें ले कर जाएगी
उन जगहों तक
जिनके नाम तक हम भूल चुके होंगे.
हम खुश रहेंगे कछुओं की ख़ातिर
क्योंकि वे अपनी राह पर लगे रहते हैं ...
कल
जानेमन,
कल,
मैं देखूंगी तुम्हारी आंखों को
तुम्हारी नई झुर्रियां देखने को
हमारे भविष्य के सपनों की रेखाएं.
जब तुम चोटी गूंथ रहे होगे मेरे पक चुके बालों की
बरसात
या सूरज
या चन्द्रमा के तले
हरेक बाल जान सकेगा
कि दो बार नहीं होती
कोई भी चीज़,
हर चुम्बन होता है एक मुल्क जिसका अपना इतिहास
अपना भूगोल
और अपनी भाषा
और सुख और उदासी
और युद्ध
और खंडहर
और छुट्टियां
और टिकटिक करती घड़ियां ...
और जानेमन, जब वापस लौटेगा तुम्हारी गर्दन का दर्द
तुम्हारे पास शिकायत करने का समय नहीं होगा
न तुम उसकी परवाह करोगे.
दर्द बना रहेगा हमारे अन्दर
बर्फ़ की मानिन्द लजीला, जो पिघलेगी नहीं.
कल
जानेमन,
कल,
लकड़ी के बक्से में
बजेंगी दो घन्टियां.
दो कांपते हाथों में
वे चमक रही हैं काफ़ी लम्बे समय से,
अनुपस्थिति के कारण
गुत्थमगुत्था.
कल
सफ़ेदी उघाड़कर रख देगी
अपने तमाम रंगों को
जब हम उत्सव मनाएंगे
उसकी वापसी का
जो सफ़ेदी में
खो गया था
या स्थगित हो गया था.
मैं कैसे जानूंगी, अमेरिका.
उतने सारे रंगों में
कौन सा वाला होगा
सबसे उल्लासपूर्ण
कोलाहलभरा
सबसे अलग
या सबसे मिला-घुला?
मैं कैसे जानूंगी, अमेरिका?
(और नदी बल खाती बहती है हमारे दरम्यान/ उम्दा पकाई गई मछली की तरह - यहां टिग्रिस नदी के तटों पर स्थित रेस्त्राओं में मचली पकाए जाने के तरीके का सन्दर्भ है. मछली को जलती लकड़ियों की आंच पर बार-बार पलटा कर पकाया जाता है.)
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1 comment:
गज़ब !
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