Saturday, April 23, 2011

रीपोस्ट - कामरेड दीनबंधु पन्त का पुरातन कबाड़ (संस्कृत में)


नैनीताल में मेरे क्लासफैलो थे कामरेड दीनबंधु पन्त। विचारधारा से वामपंथी कामरेड दीनबंधु पन्त की खासियत यह थी कि वे पारिवारिक पेशे से पुरोहित थे। जाहिर है संस्कृत पर उनकी गहरी पैठ थी। कबाड़ के निर्माण में उन्हें खासी दक्षता हासिल थी। पेश है खैनी (सुरती) की उनकी अद्वितीय परिभाषा :

वामहस्ते दक्षिणहस्तांगुष्ठे मर्दने फटकने मुखमार्जने विनियोगः

भारत के राष्ट्रीय पेय चाय पर उनकी दो रचनाएं भी अदभुत हैं :

शर्करा, महिषी दुग्धं सुस्वादम ममृतोपमम
दूरयात्रा श्रम्हरम चायम मी प्रतिग्रह्य्ताम


(अर्थात शक्कर तथा महिषी के दुग्ध से बनी, अमृत के समान सुस्वादु, दूर यात्रा का श्रम हर लेने वाली चाय को मैं ग्रहण करता हूँ। )

दूसरे श्लोक में चाय बनाने का तरीका और उसकी गरिमा का वर्णन है :

शर्करा, महिषी दुग्धं, चायं क्वाथं तथैव च
एतानि सर्ववस्तूनी कृष्ण्पात्रेषु योजयेत
सपत्नीकस्थ, सपुत्रस्थ पीत्वा विष्णुपुरम ययेत


(अर्थात शक्कर, महिषी के दुग्ध तथा चाय के क्वाथ को एकत्र करने के उपरांत इन समस्त वस्तुओं को एक कृष्ण पात्र में योजित किये जाने से बनी चाय को पत्नी तथा पुत्र के साथ पीने वाला सत्पुरुष सीधा देवलोक की यात्रा पर निकल जाता है।)

ऎसी उत्क्रृष्ट रचनाओं को कामरेड दीनबंधु पन्त ऋषि चूर्णाचार्य के नाम से रचते थे और इन्हें त्र्युष्टुप छंद कहा करते थे। दस बारह साल से उन से दुर्भाग्यवश मेरा सम्पर्क टूट गया है। पता नहीं वे कहाँ क्या कर रहे हैं। नैनीताल के किसी पुराने यार दोस्त को कुछ मालूमात हों तो बताने का एहसान करें।

इस पोस्ट को बहुत सारे नोस्टाल्जिया के साथ ख़त्म करता हुआ मैं चाय के बारे में उनकी विख्यात उक्ति उद्धृत कर रह हूँ :

यस्य गृहे चहा नास्ति, बिन चहा चहचहायते

(अर्थात बिना चाय वाला घर तथा उसका स्वामी बिन चाय के चहचहाता रहता है)

3 comments:

मुनीश ( munish ) said...

So des Ka ? Sugoi ne ! arthaat kya aisa hai ? sundar hai.

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक ज्ञानगंगा।

दर्पण साह said...

कपूर कपड़म, हरी खुशाणी दालम, बेई बयाऊ गिर पड़ी गदूअक झाड़म,
सदा शिकारम बोतलक दगाड़म, संसार भारम कबाड़खानम। ;-)