Sunday, April 3, 2011

खिड़की पर खड़ा शख़्स -१

फ़्रान्ज़ काफ़्का की जीवनी काफ़्का के कुछ अंशों से आप परिचित हैं ही. मुझे नहीं लगता निकट भविष्य में इस पुस्तक के छपने की कोई सम्भावना है. एक-एक कर मैं यहां इस दुर्लभ पुस्तक के अंश तरतीबवार आपके सम्मुख रखूंगा.

आज से इस पुस्तक के पहले अध्याय को पढ़ना शुरू कीजिये



फ़्रांज काफ़्का से उसकी युवावस्था में और उसके प्रौढ़ हो चुकने पर मिले हुए तमाम लोगों को लगता था कि वह "कांच की एक दीवार" से घिरा रहता था. वह वहीं रहा करता था, ख़ूबसूरती से टहलता हुआ, इशारों में बात करता-बोलता हुआ; वह किसी अतिसतर्क बेहद लचीले देवदूत की तरह मुस्कराता था और उसकी मुस्कान विनम्रता से पैदा हुए उस आखिरी फूल जैसी होती थी जो स्वयं को प्रस्तुत करते ही वापस लौट जाता था, खुद को खर्च कर चुकने के बाद ईर्ष्या के साथ अपने ही भीतर बंद हो जाता हुआ. ऐसा लगता था मानो वह कह रहा हो: "मैं तुम जैसा ही हूं, मैं तुम्हारी ही तरह एक आदमी हूं, तुम्हारी ही तरह मैं यातनाएं सहता हूं और प्रसन्न रहता हूं". लेकिन जितना अधिक वह दूसरों के भाग्य और उनकी यातना में हिस्सेदारी करता था उतना ही वह खुद को इस खेल से दूर कर लेता. निमंत्रण और निर्वासन की वह धुंधली छाया जो उसके होठों पर रहती थी हमें बताती थी कि वह कभी भी उपस्थित नहीं हो सकता था कि वह बहुत दूर रहता था एक ऐसे संसार में जो स्वयं उसका भी नहीं था.

कांच की उस नाजुक दीवार के पीछे लोग क्या देखते थे ? वह एक लंबा आदमी था - दुबला और छरहरा, जो अपने लंबे शरीर को इस तरह साथ लेकर चलता था जैसे वह उसे तोहफे में मिला हो. उसे लगता था वह कभी बड़ा नहीं होगा और न ही वह उस चीज के भार, स्थिरता और भय को जानेगा जिसे बाकी के लोग एक नासमझ आनंद के साथ ’परिपक्वता' कहते हैं. उसने एक दफ़ा मैक्स ब्रॉड को स्वीकार करते हुए बताया था : "मैं पुरुषत्व को कभी महसूस नहीं करूंगा, बच्चे से मैं सीधा बूढ़ा बन जाऊंगा - सफेद बालों वाला." हर कोई उसकी आंखों से आकर्षित हो जाया करता था जिन्हें वह बहुत ज्यादा खुला रखता था; कभी कभी घूरती हुई वे आंखें फोटोग्राफों में मैग्नीशियम की आकस्मिक चमक के कारण किसी विक्षिप्त या स्वप्नदृष्टा की लगती थीं. उसकी भौंहें लंबी थीं; उसकी पुतलियां कभी भूरी कभी सलेटी कभी नीली और कभी बस गहरी होती थीं अलबत्ता पासपोर्ट के मुताबिक वे "गाढ़ी सलेटी नीली" थीं. जब वह स्वयं को आईने में देखता था वह पाता था कि उसकी दृष्टि "अविश्सनीय तरीके से ऊर्जावान" थी; लेकिन बाकी के लोगों ने उसकी आंखों के बारे में बोलना और उनकी व्याख्या करना कभी बंद नहीं किया मानो उन्हीं के पास उसकी आत्मा के वास्ते एक दरवाजा हो. कूछ के मुताबिक वे उदासी से भरपूर थीं; कुछ समझते थे कि वह लगातार उन पर निगाह धरे उन्हें पढ़ रही हैं; कुछ ने उन्हें अचानक चमकते देखा था, सुनहरे कणों से दिपदिपाते हुए, फिर वे विचारमग्न हो जाती थीं; कुछ ने उन्हें देखा था एक विडंबना में रंगते हुए - जो कभी बहुत हल्की होती थी कभी बहुत तीखी; कुछ के मुताबिक उनमें एक आश्चर्य और एक अजीब कुढ़न थी; कुछ जो उसे बहुत चाहते थे और उसकी पहेली को हजार तरीकों से सुलझाने में लगे रहते थे, सोचते थे कि ताल्सताय की तरह उसे कुछ ऐसी बात पता है जिसके बारे में दूसरे कुछ नहीं जानते; कुछ को उसकी आंखें भेद पाना असंभव लगता था; और अंतत : कुछ का मानना था कि जब तब उसकी निगाह पत्थर जैसी शान्ति , एक क्षणिक खोखलेपन और अंत्येष्टि जैसे एक विराग से भर जाया करती थी.

(जारी)

13 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जारी रखें।

जीवन और जगत said...

आप कबाड़ में से एक से एक बेशकीमती चीजें निकाल कर लाते रहते हैं। आपके ब्‍लॉग पर विविधतापूर्ण सामग्री मिलती है। इसी कारण आपके ब्‍लॉग पर बार-बार आने का मन करता है।

पारुल "पुखराज" said...

शुक्रिया बहुत ..

Shalini kaushik said...

बहुत बहुत शुक्रिया

अरुण चन्द्र रॉय said...

आपके ब्‍लॉग पर विविधतापूर्ण सामग्री मिलती है। इसी कारण आपके ब्‍लॉग पर बार-बार आने का मन करता है।

Riya Sharma said...

Intezaar ...!

vandana gupta said...

रोचक है………॥

Unknown said...

www.dancerandpoet.blogspot.com

Unknown said...

www.dancerandpoet.blogspot.com

Unknown said...

nice

Unknown said...

wowowow i like you

Neeraj said...

'दी कासल' लिखने वाला आदमी सामान्य हो भी नहीं सकता

प्रज्ञा पांडेय said...

sach men durlabh saa hi hai ye