Wednesday, May 4, 2011

सघन तम की आँख बन मेरे लिए - -स्मृति शमशेर 2

(पिछली किस्त से जारी)


३.

यही वे ख़ूबियाँ हैं, जिन्होंने शमशेर जी की कविता के प्रति लोगों में बराबर दिलचस्पी जगाये रखी है। हर नयी पीढ़ी जब पीछे मुड़ कर अपनी परम्परा का जायज़ा लेती रही है तो राह के विशाल वट-वृक्ष की तरह शमशेर जी को हमेशा पत्ते डोलाते पाती रही है। लेकिन उस सुकून के बावजूद, जो इस विशाल वट-वृक्ष की छाँह-तले बैठ कर मिलता है, शमशेर की कविता के बारे में सरे-राहे कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। इस लिहाज़ से शमशेर ‘मुश्किल’ कवि हैं। लेकिन इसका यह अर्थ न लगाया जाय - जैसा कि अक्सर लोग लगाते हैं - कि वे कठिनाई से समझ में आने वाले कवि हैं। अबूझ कवि हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। वे उतना ही कठिन या सरल हैं, जितना कि कोई औसत मनुष्य होता है। उनकी कविता को पढ़ते हुए हमें बराबर इस बात का एहसास होता है कि शमशेर नाम का व्यक्ति जीवन को जिस तरह देखता है - उनकी कविता इसका लेखा-जोखा पेश करती है। इसीलिए अगर उनकी कुछ कविताएँ हमें समझ में नहीं आतीं तो हैरत नहीं, क्योंकि मनुष्य भी तो बहुत बार हमें समझ में नहीं आता है। ख़ुद अपना आप हमारे लिए कई बार एक अबूझ पहेली बन जाता है। लेकिन तब तो हमें चिन्ता नहीं होती। फ़िर क्या कारण है कि शमशेर या मुक्तिबोध पर हम ‘दुरूहता’ का लेबल चिपका कर उन्हें ख़ारिज करने को उतारू हो जाते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि साहित्य और कला के प्रति हम एक सही नज़रिया नहीं विकसित कर पाये हैं। शायद हमने साहित्य को ज़िन्दगी के सवालों की एक बनी-बनायी कुंजी समझ लिया है, जो हर ताले को एक-सी सहजता से खोलती चली जायेगी। जबकि अक्सर ऐसा नहीं होता।

बहरहाल, शमशेर की कविता की यह एक ख़ूबी ही कही जायेगी कि वह आपको उस अनुभव में शिरकत करने के लिए आमन्त्रित करती है, जिसे शमशेर ने प्राप्त किया है और अपनी कविता में व्यक्त किया है। इसीलिए शमशेर की कविता में हमें 1947 के पहले का संघर्ष-भरा आशावादी स्वर भी मिलता है और 1947 के बाद के मोह-भंग की उदासी भी। हमें जन-जीवन के चित्र भी मिलते हैं और व्यक्ति की निजी उलझनों के अँधेरे-उजाले कोने-अँतरे भी।

शमशेर की कविता को आज जब हम समग्रता में देखते हैं तो हम पाते हैं कि अपने ढंग से उन्होंने उन तमाम चिन्ताओं के इर्द-गिर्द अपनी कविता को रचा है, जिन्हें आज हम अपने समय की प्रमुख चिन्ताओं में शुमार करते हैं - मिसाल के तौर पर हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली परम्परा का मसला, साम्प्रदायिकता की समस्या, श¨षण और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का सवाल और व्यक्ति और समाज, पार्टी और व्यक्ति के बीच एक बेहतर तालमेल स्थापित करने की जद्दो-जेहद और यह काम शमशेर जी ने एक ऐसे समय में किया, जब इन सवालों को नज़रन्दाज़ किया जा रहा था। इसीलिए शायद हमारे लिए शमशेर जी की कविताएँ इस तेज़ी से बदलते दौर में महत्वपूर्ण बनी रही हैं। फ़िर वह चाहे काव्य-चेतना के सन्दर्भ में हो या निजी व्यवहार के सन्दर्भ में।


४.

शमशेर जी ने ‘अज्ञेय से’ शीर्षक कविता में लिखा है -

जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका ग़म क्या
वह नहीं है

सुरुचि का मामला भी शमशेर जी के लिए एक अहम मामला था। उनके लिए सुरुचि सजी-बजी बैठकों और तथाकथित सांस्कृतिक ताम-झाम में नहीं, बल्कि इस बात में थी कि आप अपने इर्द-गिर्द के लोगों से किस तरह पेश आते हैं। नर्म लबो-लहजा, दूसरों की भावनाओं का आदर करना, उन पर नाहक ही चोट न करना- यह सब शमशेर जी के व्यक्तिव का हिस्सा था। और इसके साथ-साथ थी एक मुहब्बत - अपने साथियों के प्रति ही नहीं, बल्कि अपने से उमर में छोटे लोगों के लिए भी।

मुझे याद आता है सन 1974 की गर्मियों में मैं अपनी पत्नी और चार साल के बेटे के साथ दिल्ली गया हुआ था। शमशेर जी उन दिनों अजय और शोभा के साथ अमर कालोनी के एक छोटे-से फ़्लैट में रहते थे और मीलों की मंज़िल मार कर उर्दू शब्दकोष पर काम करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय जाया करते थे। एक दिन हम शाम के समय अजय के यहाँ पहुँचे। थोड़ी देर में शमशेर जी भी आ गये। गप-शप होने लगी। शोभा चाय का इन्तज़ाम करने लगी। मैं शमशेर जी के साथ अपने बचपन की बातें करने लगा और शमशेर जी मेरी पत्नी सुलक्षणा को मेरे बचपन के कुछ प्रसंग बताने लगे। बातों-बातों में बिस्कुटों का ज़िक्र छिड़ा और मैंने कहा कि मुझे बचपन में ब्रिटैनिया के ‘नाइस’ बिस्कुट बहुत पसन्द थे - जिनमें बिस्कुटों पर चीनी के दाने लगे होते हैं। शमशेर जी ने कहा कि उन्हें भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। तभी सुलक्षणा ने उन्हें बताया कि हमारे बेटे को भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। इसी बीच चाय आ गयी और बातों का सिलसिला दूसरी तरफ़ मुड़ गया। अभी हमने चाय शुरू ही की थी कि शमशेर जी ग़ायब। ख़याल आया कि शायद हाथ-वाथ धोने गये होंगे। पाँच मिनट बाद शमशेर जी सीढ़ियाँ चढ़ कर आते दिखायी दिये। कमरे में आ कर उन्होंने अपने मख़सूस शर्मीले अन्दाज़ में मुस्कुराते हुए ब्रिटैनिया के उन्हीं नाइस बिस्कुटों का डिब्बा मेज़ पर रखा और उसे खोल कर मेरे बेटे को बिस्कुट खिलाने लगे। प्रसंग बहुत छोटा-सा है, किसी हद तक मामूली भी, लेकिन मेरे लिए यह शमशेर जी के पूरे व्यक्तित्व को - प्रदर्शन से परे रहने वाली उनकी मुहब्बत और गर्मजोशी को - साकार कर देता है।


५.

एक लम्बे अर्से से शमशेर जी कभी मध्य प्रदेश तो कभी गुजरात रहे। मुलाक़ातें पहले ही गाहे-बगाहे होती थीं। अब बिलकुल ख़त्म-सी हो गयीं। कभी-कभार अजय के ज़रिये शमशेर जी का हाल-चाल मिल जाता था। इस दौरान शमशेर जी बहुत बीमार भी रहे। तो भी दिल को तसल्ली थी कि हमारे परिवार के एक बुज़ुर्गवार अब भी हमारे बीच हैं। जैसा कि मैंने कहा शमशेर जी के साथ निकटता का पैमाना उनके साथ होने वाली मेल-मुलाक़ात से तय नहीं होता था। वे एक ऐसे ज़माने के आदमी थे, जब लेखकों की बिरादरी में कहीं अधिक अपनापा और घनिष्ठता थी। वर्षों न मिलने के बाद भी जब मुलाक़ात होती तो ऐसा लगता कि बीच में कोई व्यवधान ही नहीं पड़ा। इसीलिए जब अचानक यह ख़बर मिली कि शमशेर जी नहीं रहे तो यह ख़याल नहीं आया कि हिन्दी के एक बड़े कवि का देहान्त हो गया है, बल्कि यही लगा कि जैसे अपने परिवार के किसी बड़े-बुज़ुर्ग का निधन हो गया है।

2 comments:

बाबुषा said...

सबसे आम बातें हमेशा से लगती रहीं हैं सबसे ख़ास बातें मुझे ! जैसे की यहाँ वो बिस्किट्स वाला वाक़या ! बहुत ख़ास !

प्रवीण पाण्डेय said...

सरल बातें नये तरीके से रखने से दार्शनिक लगने लगती हैं।