यह वर्ष हिन्दी के तीन बड़े कवियों की जन्मशती का है - केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह.
यहां आप वीरेन डंगवाल का लिखा केदारनाथ अग्रवाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक तनिक संक्षिप्त किन्तु आत्मीय आलेख पहले देख चुके हैं.
आज से वीरेन जी की ही पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि नीलाभ द्वारा शमशेर जी को उनकी जन्मशती पर स्मरण करता हुआ एक आलेख उन्हीं के ब्लॉग हिरावल मोर्चा से साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.
१३ जनवरी शमशेर जी का जन्मदिन है। आज अगर वे होते तो पूरे १०० साल के हो गये होते। वैसे तो किसी कवि को याद करने के लिए जन्मदिनों या शतवार्षिकियों की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन ये कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब हम थोड़ा ठहर कर अपने पुरखों को याद करते हैं ताकि हममें वह अनिवार्य विनम्रता और विनय बरक़रार रहे जिसकी मदद से हम भटकें नहीं, अपनी रचनात्मकता के नशे में मख़मूर न हो जायें। इस मौक़े पर आज देशान्तर में हम शमशेर जी के निधन के फ़ौरन बाद १९९३ में लिखी नीलाभ की एक संस्मरणात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।
सघन तम की आँख बन मेरे लिए
१.
शमशेर जी से आख़िरी मुलाक़ात बरसों पहले हुई थी। इमरजेंसी का ज़माना था शायद या शायद इमरजेंसी हटी-हटी ही थी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आये हुए थे और मेरे मित्र और साथी अजय सिंह भी उनके साथ थे। याद पड़ता है कि मैं अपनी मोटर साइकिल पर शमशेर जी को बैठा कर कटरा के बाज़ार से होता हुआ वहाँ पहुँचाने गया था, जहाँ वे ठहरे हुए थे। संक्षिप्त-सी मुलाकात थी - कुछ घण्टों की - मगर ढेरों बातें हुई थीं- माओ त्से तुंग के निधन के बाद चीन के बदलते स्वरूप से ले कर अजय के हठी स्वभाव और एज़रा पाउण्ड तक जो शमशेर जी के भी पसन्दीदा कवियों में थे - दुनिया-जहान की बातें। ऐसी बातें, जिन्हें आप बाद में शब्द-शब्द जोड़ कर पुनर्निमित नहीं कर सकते, मगर जो आपकी चेतना और एहसास में जज़्ब हो कर उन्हें समृद्ध कर जाती हैं। यही शमशेर जी का ख़ास अन्दाज़ था।
अपनी एक कविता में शमशेर जी ने लिखा है -
कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी.....
मैं समझ न सका रदीफ़-काफ़िये क्या थे
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हल्का, इतना मीठा उनका दर्द था।
शमशेर जी के बारे में सोचते हुए मुझे हमेशा ही ये पंक्तियाँ याद आ जाती है। उनकी ज़िन्दगी और उनकी कविता के भी रेशे, उसके ताने-बाने, ऐसे ही ख़फ़ीफ़, हल्के मीठे दर्द से रचे गये थे।
२.
शमशेर जी के साथ मेरी बहुत घनिष्ठता नहीं थी। यानी ऐसी घनिष्ठता, जो संग-साथ पर निर्भर हो। मुलाक़ातें भी ज़्यादा नहीं कही जा सकतीं। लेकिन आज से लगभग तीस साल पहले जब मैंने कविता लिखना शुरू किया तो मेरे लिए और मेरी पीढ़ी के और बहुत-से कवियों के लिए शमशेर जी एक अनिवार्य कवि थे। आज हालाँकि यह बात बड़ी अजीब लग सकती है, लेकिन उस ज़माने को पीछे मुड़ कर देखें तो आप समझ पायेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। वह ज़माना नयी कविता के बिखराव और अ-कविता के क्षणिक उबाल का था। मुक्तिबोध का पहला संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ अभी आया नहीं था। त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल फ़िर से खोजे जाने का इन्तज़ार कर रहे थे। कविता की हिम-मण्डित चोटियों पर अज्ञेय आसीन थे। ऐसी हालत में तराई और मैदानों के वर्षातप को झेल रहे नये कवियों को शमशेर जी में सहजता और अपनापन मिला हो तो आश्चर्य की बात नहीं।
सच यही है कि शमशेर जी के व्यक्तित्व की तरह उनकी कविता में भी गर्माहट और शीतलता एक साथ हासिल होती थी। सर्दियों की धूप की गुनगुनी गर्माहट और गर्मियों की बहार में घने बरगद की छाँह की शीतलता। तब तक शमशेर जी के दो ही संग्रह प्रकाशित हुए थे- ‘कुछ कविताएँ’ और ‘कुछ और कविताएँ,’ लेकिन एक कवि के तौर पर शमशेर जी कभी संग्रहों के मुहताज नहीं रहे। न पहले और न बाद में। न वे इस बात के मुहताज थे कि वे दूसरे सप्तक के कवि हैं। सच तो यह है कि मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी भी सप्तकों की सीमित प्रभा के बहुत बाहर तक फैले हुए कवि थे। और रहेंगे। बल्कि मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि दूसरा सप्तक में शामिल होना शमशेर जी को कहीं-न-कहीं सीमित भी कर गया। इसकी वजह शायद यह हो कि अपने साथी मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी का मिज़ाज भी अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले सप्तकों से मेल नहीं खाता था। वे ऐसी ताक़तवर धातु के बने हुए थे जो अक्सर सतह पर नहीं दिखती। इसी चीज़ ने सन उन्नीस सौ साठ के दशक में नये कवियों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा।
हर पीढ़ी अपने से पहले की पीढ़ी को इस लिहाज़ से भी जाँचती है कि पहले की पीढ़ी ने अपने पूर्वजों के बारे में क्या लिखा है, उन्हें किस तरह याद किया है। शमशेर जी के पहले कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘निराला के प्रति’ - उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है -
भूल कर जब राह जब-जब राह.......भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आँख बन मेरे लिए
ज़ाहिर है, हम नये कवियों को, जिनकी सबसे बड़ी कोशिश अकविता के भटकाव से बाहर आने की थी, शमशेर जी की इन पंक्तियों से बहुत बल मिला। न सिर्फ़ इस कविता की अनूठी बिम्ब-योजना के कारण, बल्कि इस कारण भी कि भटकाव और भटकाव से सही राह पर वापसी ऐसे अनुभव नहीं है जिन्हें हम ही झेल रहे हों। यह ढाढ़स बँधाने वाली बात थी कि हमसे पहले भी लोग भटके हैं और उनके लिए कुछ लोगों ने ‘सघनतम की आँख’ बनने का काम किया है। ऐसी ही ‘सघनतम की आँखें’ हमें भी हासिल होंगी, जो हमें फ़िर सही रास्ते पर लायेंगी। और अगर मैं कहूँ कि मेरे तईं अकविता के घटाटोप के बीच शमशेर जी की कविता ऐसी ही आँख का काम करती रही तो बहुत ग़लत न होगा। ये पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अचानक रब्बी की कविता - ‘शमशेर’- याद हो आयी है -
मैं नंगे पाँव धूप में चल रहा था
काँटों भरी डगर पर
एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया
हम में से बहुत-से लोगों को शमशेर जी ऐसे ही वट-वृक्ष की तरह लगे हैं। कड़ी धूप में, कंकड़-काँटों से भरी राह पर चलते हुए, शमशेर जी की कविता एक घने, पत्तेदार वट-वृक्ष जैसी ही लगती है। यह अलग बात है कि शमशेर जी की कविता पर अभी तक क़ायदे से, मुक़म्मल तौर पर, विचार नहीं हो पाया है। और यह तथ्य आज के साहित्यिक जगत पर दुखद टिप्पणी भी है। या तो कुछ लोग शमशेर जी को पीर-औलिया बना कर भुनाते रहे हैं, या उन्हें ‘चुका हुआ’ मान कर विस्मृत कर चुके हैं। या फ़िर अपने-अपने ढंग से उन्हें अज्ञेयवादी, नयी कवितावादी, प्रयोगवादी या प्रगतिवादी या ‘कवियों के कवि’ या ‘कवियों में चित्रकार और चित्रकारों में कवि’ कह कर स्वीकारते-नकारते रहते हैं। जबकि शमशेर जी महज़ कवि हैं। न कम, न ज़्यादा। न तो वे ‘कवियों के कवि’ हैं, जैसा कि अक्सर हिन्दी के प्राध्यापकीय आलोचक अपनी अक्षमता के कारण कह दिया करते हैं, और न वे उस तरह के ‘जन कवि’ हैं, जिनकी कविताएँ अख़बार का काम करती हैं। यह टिप्पणी शमशेर जी की कविता की विशद व्याख्या करने का अवसर नहीं है, लेकिन उन्हें याद करते हुए जो सबसे बड़ी बात देखने की है - और यह सिर्फ़ पाठकों के लिए नहीं, बल्कि अन्य कवियों के लिए भी देखने की है - कि जीवन किस तरह कवि के व्यक्तित्व से छन कर उसकी कविता में उतरता है। शमशेर जी ने लिखा है -
जो मैं हूँ -
मैं कि जिसमें सब कुछ है.....
क्रान्तियाँ कम्यून,
कम्युनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवन्त वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।
शमशेर जी की कविता इसी व्यक्ति की दस्तावेज़ है, जो अपने समय की हलचलों से निर्मित हुआ है और सतत होता जा रहा है।
(जारी)
3 comments:
शमशेर जी के बारे में लिखी ये पोस्ट हर लिहाज़ से संग्रहनीय है...शमशेर जी जैसे कवि रोज रोज पैदा नहीं होते...उन्हें और उनकी कालजयी रचनाओं को नमन है...
नीरज
ये बड़ी दुविधा है मेरे मन में कि कवि को कैसे बाँधा जा सकता है...प्रयोगवादी,पारंपरिक ,कविता..अकविता ...भटकाव...दिशा...वटवृक्ष...! क्या चेतना स्वतंत्र नहीं होती ?
और ये भी कि क्या कविता लिखी जाती है ? क्या सच में ? अगर हाँ, तो कैसे लिखी जाती है ? मेरे ख़याल से तो कविता नहीं रची जा सकती.. नहीं लिखी जा सकती ..ये उतर सकती है ..ये घट सकती है , एक घटना कि तरह ! लेकिन मेरा ख़याल बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है अभी !
पूरी तरह से सहमत हूँ इस बात से कि शमशेर जी की कविता पर मुक़म्मल तौर पर विचार नहीं हो पाया है .
इस टिप्पणी को प्रकाशित न करें सर. इस विषय में कभी फ़ोन पर या मेल पर बात होगी.
जारी रखें .
सादर
-बाबुषा
vaah! बाबुषा ...... लेकिन छिपाव क्यों ?
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