Sunday, May 15, 2011

याददाश्त के साथ कुछ दिक्कतें


पोलैण्ड के युवा कवि मार्सिन स्विएतलिकी की दो और कविताएं पेश हैं.

अध्यापन-कला

माना जाता है युद्ध
अध्यापन-कला का उच्चतम प्रारूप है. और मृतक
होते हैं सबसे मेहनती
छात्र.

वह महान शिक्षा - लड़कों का तब्दील होना
सिपाहियों में - सॉकर और सर्कस के माध्यम से.
सोने का बहाना बनाए हुए
इन्तज़ार करता पसरा रहता है युद्ध.

गर्मियों के पहले दिन. रसभरियों के ढेर.
आज एक भगोड़ा हूं मैं, लेकिन कल यह क्या हो चुका होगा?
मैं इन्तज़ार करता हूं और अमूर्तनों को चिठ्ठियां लिखता हूं.
और कोई रियायतें नहीं.
ज़ोर देती है ख़ामोशी.

याददाश्त के साथ कुछ दिक्कतें

सो जांच करो कि क्या वह वाकई बिना पैरों वाला
सीसे का सिपाही ही था (क्या नर्तकी गिरी थी
आग में? और क्या वह जल गई थी? और वह सिपाही? वे आग तक कहां से पहुंचे?
खिलौने की किसी दुकान से. या किसी बच्चे के कमरे से?)
जांचो, खोजो, मुझे किताब की पीठ दिख रही है यहां से,
मगर मैं उठता नहीं (उस चूहे ने पूछा - पासपोर्ट?
पासपोर्ट है तुम्हारे पास? सिपाही कहां से
पहुंचा इस गन्दी नाली तक? फिर आग तक? उस से पहले?
और कैसी थी वह? गूंगी? बेपरवाह?
क्या प्यार करती थी उसे?) जांचो,
अभी नहीं. एक
उचित, ख़ास पल
का इन्तज़ार करो. मुझे याद नहीं आ रहा - क्या वह खड़ा था?
क्या वह उसकी तरफ़ देख रहा था? और वह? उसके बारे में क्या?
क्या वह खड़ी थी? और क्या उसकी तरफ़ देख रही थी? मुझे नहीं पता.
अन्त के बारे में मुझे पता नहीं.
फ़िलहाल तो मुझे काम चलाना होगा उस कामुक सूक्ष्मता से
जिसकी मदद से मैं निगाह धरे हूं सब पर.

2 comments:

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल said...

बिलकुल सही है... अध्यापन-कला का उच्चतम प्रारूप है- युद्ध....

और मृतक होते हैं सबसे मेहनती छात्र...

और जो फेल हो कर लौटते है.... घायल, अपंग .... जीवन भर कोसते हैं खुद को कि पास हो कर मर ही क्यों न गए...


पढ़ाने के लिए शुक्रिया...

मुनीश ( munish ) said...

सोने का बहाना बनाए हुए
इन्तज़ार करता पसरा रहता है युद्ध.

sach hai.