Sunday, July 3, 2011

मैं एक हंसती हुई लड़की को एक हंसती हुई लड़की की तरह देखता हूं

सुन्दर चन्द ठाकुर की ताज़ा कविता-सीरीज़ का अन्तिम हिस्सा पेश है -


मैं हूं - ३

सुन्दर चन्द ठाकुर

मैं डर से बाहर निकल आया हूं
इसलिए अब कह सकता हूं कि ईश्वर नहीं है कहीं
ईश्वर डर में बैठा रहता है भूत की तरह
भूत नहीं है (मैंने नहीं देखा उसे आज तक)
इसलिए ईश्वर भी नहीं है (उसे भी नहीं देख पाया मैं)

मुझे कल का डर नहीं अब
कल मेरा क्या हो जाएगा?
लुट जाऊंगा?
कल मैं नहीं रहूंगा!

कल मैं नहीं ही तो रहूंगा!
(कृपया याद रखें)

पृथ्वी से एक खरब प्रकाशवर्ष दूर भी ऐसा ही ब्रह्माण्ड है
खगोल पिण्डों और ग्रह-नक्षत्रों से भरा हुआ
समय नहीं है कहीं
सब कुछ स्थिर है
आदि से अनन्त तक
आदि और अनन्त भी नहीं है
जैसे मोक्ष नहीं है
सिर्फ़ धर्म हैं झूठमूठ के
टाइमपास के साधन

इन्सान में आदतें हैं
गुणसूत्रों में फ़ीड हो गई कुछ दूसरों से अर्जित
बिना आदतों के मुश्किल है टाइम पास
मैं एक हंसती हुई लड़की को एक हंसती हुई लड़की की तरह देखता हूं
एक रोते हुए बच्चे को एक रोते हुए बच्चे की तरह
एक घायल चिड़िया को एक घायल चिड़िया की तरह
उनके बारे में मैं क्या लिख सकता हूं
वे वैसे ही दिखे मुझे क्योंकि वे वैसे ही थे
उनके बारे में क्या कल्पना करूं
कल्पना से दुख जन्म लेता है
कल्पना से सुख भी जन्म ले सकता है
मगर जो सामने होता है वही होता है
दुख और सुख की कल्पना भी एक आदत है

जबकि एक धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी की तरह है जीवन
जगहों, दृश्यों, और लोगों को सतत लांघता हुआ
हज़ारों झूठ हज़ारों सच के बीच गुंथे हुए
अतीत के भग्नावशेष और निर्माणाधीन
सब कुछ स्थिरता के साथ उड़ा जा रहा है
जैसे वह हमेशा से उड़ता ही रहा था
क्योंकि वही है जो चलाए हुए है दुनिया में सब कुछ
इच्छाएं, वासनाएं, योजनाएं, साज़िशें, हत्याएं, दया, परोपकार, युद्ध और प्यार

और मैं हूं एक बित्ता सा दिमाग़ लिए
पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के बारे में सोचता हुआ
अपने पिता की, पूर्वजों की राह पर
जैसे सूरज पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ता है
डूबने के वास्ते
ईश्वर नहीं है कहीं, सिर्फ़ मैं हूं
अपने नहीं होने की ओर बढ़ रहा हूं

मैं क्या लिख जाना चाहता हूं
जिसे पढ़कर पीढ़ियों का भला हो
कुछ काम की बातें
मगर क्या है जो काम का नहीं
सब कुछ लिखा ही जा चुका
अपने अर्थों, विम्बों यथार्थों और कल्पना में सब से बेहतरीन
बेहतरीनतम

अपने होने को सार्थक करता हुआ मैं ही हूं
ईश्वर कहीं नहीं
मेरे पास आओ और दिखाओ अपने दिल के छाले
सुनाओ मुझे क्या-क्या गुज़री तुम पर
मैं बढ़ाऊंगा तुम्हारी तरफ़ हाथ
मेरी आंखों में उतर आएगी गहरी सहानुभूति
मैं तुम्हारे साथ मिल कर कुछ देर रो लूंगा
हंस भी लूंगा
क्योंकि मैं हूं
अभी जबकि ईश्वर नहीं है
मैं हूं!

1 comment:

वाणी गीत said...

कविता का शीर्षक भी अच्छा लगा !