Sunday, July 17, 2011

आंखें न होतीं तुम्हारी तो क्या होता ये संसार

निज़ार क़ब्बानी की कविताओं की सीरीज़ कुछ दिन और लगाने की मंशा रखता हूं. आज उनकी एक प्रेम कविता -


एक मुख़्तसर प्रेमपत्र

कितना कुछ कहने को है मेरी प्यारी
कहां से, ओ अनमोल, कहां से शुरू करूं?
जो कुछ तुम में है, भव्य है
अरी तुम जो मेरे शब्दों से बरास्ते उनके मानी
रेशम के कोये बनाती हो
ये मेरे गीत हैं और ये मैं हूं
यह छोटी सी किताब धारण किये है हमें
कल जब मैं लौटाऊंगा इसके पन्ने
सोग मनाएगा एक चिराग़
गीत गाएगा एक पलंग
हसरतें इसके अक्षरों को हरा बना देंगी
इसके अल्पविराम उड़ान भरने को ही होंगे
मत कहना - क्यों इस नौजवान ने
मेरे बारे में घुमावदार सड़क और धार
बादाम के पेड़ और ट्यूलिप से बातें कीं
ताकि मैं जहां भी जाऊं संसार मेरा पहरा करता चले?
क्यों गाए उस ने ये गीत?
अब कोई सितारा नहीं बचा
जो मेरी सुगन्ध से महक न रहा हो
कल लोग मुझे उसके गीतों में देखेंगे
एक मुंह शराब का स्वाद, छंटे हुए बाल
ध्यान न दो लोग क्या कहते हैं
तुम महान होओगी सिर्फ़ मेरे असाधारण प्रेम के कारण
हम न होते तो क्या होता ये संसार
आंखें न होतीं तुम्हारी तो क्या होता ये संसार?

1 comment:

विभूति" said...

बहुत ही सुंदर...