सुरेन्द चौधरी और उन पर केंद्रित बया का विशेषांक
प्रस्तुति : प्रमोद तिवारी/ दीपक दिनकर
"सुरेन्द्र चौधरी हिंदी के ऐसे अकेले आलोचक हैं जो अपनी सैद्धांतिकी विकसित करते चलते हैं. उनके सम्पूर्ण लेखन में साहित्य-विवेक जीवन-विवेक से जुड़ा है और जीवन-विवेक जगत-विवेक से गहरे स्तर पर संपृक्त है. यह इस आलोचक की रचना दृष्टि है." यह बात वरिष्ठ आलोचक डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने 8 जुलाई 2011 को नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादेमी सभागार में सुरेन्द्र चौधरी पर केन्द्रित बया-अंतिका की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में अध्यक्ष की हैसियत से कही.
इस क्रम में डॉ. पाण्डेय ने कहा कि सुरेन्द्र चौधरी साहित्य के लगभग सारे विषयों को लेकर चलते हैं. उन्होंने कहानी को अपनी आलोचना के केन्द्र में जरूर रखा लेकिन कविता, उपन्यास आदि पर भी गंभीरता से वे विचार करते रहे. हिन्दी आलोचना की कमियों को भी वे पूरा करते हैं. नामवर जी ने अमरकान्त, भीष्म साहनी आदि जिन रचनाकारों को छोड़ दिया, सुरेन्द्र चौधरी ने उनपर विस्तार से लिखा. रेणु पर उनके जैसा काम सम्पूर्ण हिन्दी जगत में कहीं और नहीं मिलता. सुरेन्द्र चौधरी हर स्तर पर एक स्वतंत्रचेता व्यक्ति थे. रहने खाने के स्तर पर ही नहीं, विचार और वाद के स्तर पर भी. राजकमल चौधरी, जिन्हें स्वतंत्रचेता होने के कारण अराजक कहा जाता था, के घनिष्ठ मित्र थे सुरेन्द्र चौधरी.
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने सुरेन्द्र चौधरी के महत्व को स्वीकारते हुए उनकी जीवनी-लेखन की बात उठाई. उन्होंने कहा कि आमतौर पर कवियों-कथाकारों की जीवनी लिखी जाती है, आलोचक की नहीं. लेकिन गया जैसे एक शहर से गहरे रूप में जुड़े अपने ढंग के अकेले और विशिष्ट इस आलोचक की जीवनी हिन्दी पाठकों के सामने आनी चाहिए. श्री वाजपेयी ने रेखांकित किया कि परंपरा को जड़ता मानने की आदत से हमें परहेज करना चाहिए. उनके अनुसार, "सुरेन्द्र चौधरी कहते हैं कि समकालीनता समय से नहीं, दृष्टि से तय होती है."
अशोक वाजपेयी ने सुरेन्द्र चौधरी की कहानी आलोचना, रेणु की आलोचना, सैद्धांतिक आलोचना आदि की विस्तार से चर्चा करते हुए उनके लेखकीय संगठनों की एकता के प्रयास (संयुक्त मोर्चे की जरूरत) को भी रेखांकित किया. बया के सुरेन्द्र चौधरी पर केन्द्रित विशेषांक की चर्चा करते हुए उन्होंने उनके अंतरंग रामनरेश पाठक के संस्मरण की विशेष चर्चा की जिसमें सुरेन्द्र जी के जीवन के बहुत से अनछुए पहलुओं को उजागर किया गया है. इस क्रम में उन्होंने रविभूषण के दीर्घ आलेख की चर्चा करते हुए गोपाल राय द्वारा उनके बारे में गलत जानकारी देने तथा अरविन्द त्रिपाठी के द्वारा सुरेन्द्र चौधरी की पंक्ति को नामवर जी की पंक्ति के रूप में उद्धृत करने की गलत परिपाटियों का रविभूषण जी द्वारा उल्लेख करने को विशेष संदर्भ में समझने की बात कही. श्री वाजपेयी ने इस बात पर भी जोर दिया कि उनकी बाकी भूली-भटकी पाण्डुलिपियों को एकत्रित कर जल्दी-से-जल्दी प्रकाशित करना हमसब का दायित्व है.
मुख्य वक्ता प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने सुरेन्द्र चौधरी को एकजिम्मेदार आलोचक बताते हुए कहा कि उन्होंने सर्जनात्मक आलोचना के केन्द्र में कहानी को जो महत्व दिया वह महत्वपूर्ण है. उन्होंने भाषा और सैद्धांतिकी के सवाल को सोच के साथ देखने का गंभीर प्रयास किया. सुरेन्द्र चौधरी के विवेचन पूर्व और पश्चिम के अनुसंधानों के निष्कर्षों के उल्लेख से भरे पड़े हैं जो सिद्ध करता है कि चित्रण और विवेचन के क्षेत्र में सरहदों का अतिक्रमण ज्ञान और शास्त्र को मजबूत आधार प्रदान करता है. सुरेन्द्र चौधरी मतैक्य के डिक्टेटर इसलिए नहीं बन पाए कि वे मतभेदों की उदारता के पक्षधर हैं, क्योंकि असहमतियों से ही हम सहमतियों के आलोकधर्मी पक्ष के शिखर छू सकते हैं.
इस क्रम में युवा आलोचक और सुरेन्द्र चौधरी की पुस्तकों के सम्पादक उदयशंकर ने सुरेन्द्र चौधरी के जीवन-संदर्भों के उल्लेख के साथ उनकी अप्रकाशित और अनुपलब्ध पाण्डुलिपियों के संदर्भ में विस्तार से जानकारी साझा की. उदयशंकर का विचार एक आलेख के शक्ल में था जो सुरेन्द्र चौधरी के जीवन और आलोचना-कर्म के आंतरिक पहलुओं को सामने लाने की दिशा में हमें तथ्यों और संदर्भों से अवगत कराता है.
‘परिवेश’ के सम्पादक मूलचन्द गौतम ने सुरेन्द्र चौधरी से जुड़े संस्मरणों के बहाने उनके ईमानदार व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला. श्री गौतम की सुरेन्द्र चौधरी से दो-तीन ही मुलाकातें थीं, लेकिन उन मुलाकातों में उनके साथ सम्पूर्ण गया-भ्रमण और साहित्यिक आयोजन में शिरकत करते हुए वह उनके सहज व्यवहारों से इस कदर प्रभावित होते हैं कि उनकी छाप अमिट हो जाती है. चौधरी जी को गया का इंसाइक्लोपीडिया बताते हुए उन्होंने उनका जो स्केच खींचा है और उस स्केच को राजकमल चौधरी के स्केच के बगल में रखकर देखने की जो उन्होंने जरूरत बताई है, वह महत्वपूर्ण है.
डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह ने उनके छात्र जीवन के संग-साथ का अनुभव साझा करते हुए बताया कि वह पटना विश्वविद्यालय में सुरेन्द्र चौधरी से चार-पांच साल जुनियर थे. जब वह नलिन जी से बात करने में झिझकते थे, तब सुरेन्द्र चौधरी उनसे गंभीर बहस किया करते थे. मुरली जी ने बताया कि सुरेन्द्र चौधरी के यहां भूमि संबंधों की चर्चा बार-बार यूं ही नहीं आती, उनका गया क्षेत्र किसान आंदोलन की हलचलों से भरा था. भूमि संबंधों को वे किसान जीवन के प्रागैतिहासिक संदर्भों से जोड़कर देखते थे. उनके इस विजन को ‘मैला आंचल’ की आलोचना के संदर्भों में भी देखा जा सकता है.
कवि-समीक्षक सुरेश सलिल ने सुरेन्द्र चौधरी की कथालोचना पर बात करते हुए कुछ अनसुलझे सवाल सामने रखे. रामविलास शर्मा से उनकी सहमतियों और असहमतियों के संदर्भों को भी उन्होंने श्रोताओं के सामने रखा. सलिल जी ने ‘बया’ के विशेषांक में प्रकाशित अपने आलोख में उठाए मुद्दों से बाहर की बातें भी उठाते हुए उनके सम्पूर्ण मूल्यांकन की जरूरत को रेखांकित किया. प्रसिद्ध चित्रकार और उपन्यासकार अशोक भौमिक ने स्वागत वक्तव्य पेश करते हुए ‘बया’ पत्रिका के छह साल के सफर पर विस्तार से प्रकाश डाला. इस क्रम में श्री भौमिक ने सुरेन्द्र चौधरी के कार्यों और विचारों से व्यापक पाठकों को अवगत कराने को जरूरी बताया.
इस आयोजन का प्रभावकारी संचालन युवा आलोचक संजीव कुमार ने किया. संचालन क्रम में उन्होंने कुछ सवाल भी उठाए. उन्होंने पूछा कि वैचारिक कट्टरता जैसी कोई चीज होती भी है क्या? वैचारिक सरलीकरण तो हो सकता है. सुरेन्द्र चौधरी एक जटिल लेखक जरूर हैं. वे रामविलास शर्मा से काफी कुछ प्रभावित हैं लेकिन कई जगह उनसे एकदम विपरीत भी हैं. कई स्थानों पर शर्मा जी के यहां जो सरलीकरण मिलता है वह सुरेन्द्र चौधरी के यहां नहीं है. चौधरी जी खुद को सम्बोधित लेखक-आलोचक हैं.
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए बया-अंतिका के संपादक गौरीनाथ ने कहा कि दिल्ली में हो रहा सुरेन्द्र चौधरी पर यह पहला आयोजन अंतिम आयोजन न हो इस दिशा में हमें सोचना चाहिए. सुरेन्द्र चौधरी पर दूसरे मंचों से भी बात उठनी चाहिए और उनपर केन्द्रित अलग-अलग पत्रिकाओं के विशेषांक भी आए यह जरूरी है.
1 comment:
uttam!
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