Sunday, August 7, 2011

रहीम फ़हीमः आत्मा को खोजता ध्रुपद

मरहूम उस्ताद रहीम फ़हीमुद्दीन डागर को याद कर रहे हैं शिवप्रसाद जोशी


रहीम फ़हीमुद्दीन ख़ान डागर नई दिल्ली के एक आलीशान इलाक़े की बरसाती पर रहते थे उन दिनों. साल 1998 था या 99 जब उनसे मुलाक़ात हुई थी. ज़ी न्यूज़ के लिए उन पर एक स्पेशल रिपोर्ट करने गया था. मेरे साथ चीफ़ कैमरामैन मैथ्यु थे. जो धुरंधर टीवी कैमरामैन रहे हैं. कैमरा ही उस बरसाती के उस एक कमरे में बैठे उस परिवार उस साजोसामान उस बेरौनकी के बीच की रौनक और उस ज़िंदगी की कठिनाई को सामने ला पाता.

रहीम फ़हीमुद्दीन ख़ान डागर, ध्रुपद के बेजोड़ गायक तो थे ही वो एक बहुत विनम्र और धैर्य भरे इंसान भी थे. उनकी शख़्सियत ही लगता था धीरज का एक बहुत निराला थाट था. उनके मुंह में पान था, उनकी पत्नी पलंग के एक कोने पर बैठी थीं. सामान एक के ऊपर एक रखा था, कुछ बिखरा हुआ था और न जाने क्यों उस बिखराव में भी एक करीनापन सा दिखता था. एक कोने में तानपुरा था. ऐसा लगता था कि संगीत ने जैसे उस कमरे को एक जादू में बांधा हुआ है. उन्होंने कहा तक़लीफ़ के लिए माफ़ करेंगे पर क्या करें यही इंतज़ाम है.

क्यों है. वो इन हालात में क्योंकर हैं. सब कुछ पूछा था. वे जवाब याद नहीं आते. बहुत ज़ोर डालने पर भी कुछेक बातें याद रह गई हैं. उस ढेरों सामान और सम्मान के बीच उनकी उपस्थिति उनका बैठना और आवाज़ की विराटता ही याद है. अंततः सब कुछ संगीत में ही घुलमिल कर एक बहुत विशिष्ट अनुभव का हिस्सा बन गया है. फ़हीम जी से कुछ गाने का अनुरोध भी किया गया था. उन्होंने बताया था कि सरकार को अर्ज़ियां आदि दी गई हैं. ढंग के मकान की ज़रूरत भी शायद बताई गई थी.

वे शायद बरसात के दिन थे. बारिश कुछ ही देर पहले छूटी थी और छत पर इधर उधर पानी पसरा हुआ था. गोल गोल इकट्ठा हुआ पानी. उस घर में एक टूटा हुआ आईना भी था. बरसाती के बाहर खुले में एक झूला भी पड़ा था. उसका पेंट उखड़ा हुआ था और लोहा काला पड़ गया था. लेकिन उस पर करीने से गद्दी और मसनद रखी थी. फ़हीम जी को उस पर भी बैठने की ग़ुज़ारिश की गई. और मैथ्यु ने बेमिसाल कटअवेज़ बनाए. उनके हावभाव और मुद्राएं आसमान में इधर उधर फैले बादलों और उस नीलेपन के नीचे जैसे नाद को ही खोजती थीं. उन कटअवेज़ में फ़ॉर्मुले नहीं थे, वे उनके आसपास वंदना भाव से जमा नहीं किए गए थे. इस अनुशासन के लिए मैंने बाद में मैथ्यु को बधाई दी. वो सीखने लायक काम था.

हम संगीत के साथ जीवन की संगति के बारे में अपनी रिपोर्ट बनाना चाहते थे. इस संगति में शख़्सियत को भी आना था. फ़हीम जी का चौड़ा ललाट ऊपर की ओर काढ़े बाल और होंठो के कोनों पर पान की लाली और आवाज़ में पैनापन, और पारदर्शिता और बहाव.

रहीम फ़हीमुद्दीन ख़ान डागर के बाज़ार में कम कैसेट दिखते हैं. उनमें एक बात ये थी संकोच की. दूर रहने की. लोकप्रियता की डगर पर वो कम ही दिखे. उनके लिए स्वर आत्मा का ही एक रूप था. वो उसे तलाश करते रहते थे. शायद मुश्किलों के बीच उस बरसाती में रहना भी उस विकट तलाश की एक एक्सरसाइज़ ही थी.

डागर घराने की ध्रुपद गायकी पर रहीम फ़हीमुद्दीन ख़ान डागर की मुस्तैदी कुछ वैसी ही थी जैसी ख़्याल गायकी में किराना घराने की शास्त्रीयता के प्रति गंगूबाई हंगल की.

फ़हीमजी उन साधकों में से हैं जिनसे हिंदुस्तानी तहज़ीब की बुनियादी संरचना बड़े से बड़े झटके सहती और मानवीय सहिष्णु और साहसी बनी रहती आई है.

1 comment:

RM Tiwari said...

"फ़हीम जी का चौड़ा ललाट ऊपर की ओर काढ़े बाल और होंठो के कोनों पर पान की लाली और आवाज़ में पैनापन, और पारदर्शिता और बहाव."
वाह !क्या चित्रण है.जिन्होंने फहीम साहब को दिखा सुना है उनके सामने जी उठते हैं वे फिर से >