संजय चतुर्वेदी की कुछ छोटी छोटी कविताएं -
अलपकाल बिद्या सब आई
ऐसी परगति निज कुल घालक
काले धन के मार बजीफा हम कल्चर के पालक
एक सखी सतगुरु पै थूकै एक बनी संचालक
अलपकाल बिद्या सब आई बीर भए सब बालक.
कलासूरमा सदायश: प्रार्थी
कातिक के कूकुर थोरे थोरे गुर्रात
थोरे थोरे घिघियात फँसे आदिम बिधान में.
थोरे हुसियार थोरे थोरे लाचार
थोरे थोरे चिड़िमार सैन मारत जहान में.
कोऊ भए बागी कोऊ कोऊ अनुरागी
कोऊ घायल बैरागी करामाती खैंचतान में
जैसी महान टुच्ची बासना के मैया बाप
सोई गुन आत भए अगली सन्तान में.
कालियनाग जमुनजल भोगै
आलोचक हैं अति कुटैम के खेंचत तार महीन
कबिता रोय पाठ बिनसै साहित्य भए स्रीहीन
चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रान्ति रंगीन
कालियनाग जमुनजल भोगै खुदई बजाबै बीन.
ऊधौ देय सुपारी
हम नक्काद सबद पटवारी
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी
दाल भात में मूसर मारें और खाएँ तरकारी
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लम्बी ठोकें पारी
गैल गैल भाजै बनबारी ऊधौ देत सुपारी.
3 comments:
हा हा। इन कविताओं को पढ़कर रमई काका और गुदड़ी के लाल जैसे कवियों की याद आ गई। बहुत बढि़या।
सार्थक प्रस्तुति , खूबसूरत..
संजय चतुर्वेदी की कई कविताएं पढ़ने को मिल गईं। जबरदस्त। अलग देसी टेस्ट, कंटीली सोच।
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