Tuesday, October 18, 2011

मैं मुरली मनोहर मंजुल बोल रहा हूँ...३


(दूसरी कड़ी यहाँ देखें)

बाहरी कमेंटरीकारों को जो सुविधाएं सहर्ष दीं गयी,उनसे मुझे महरूम रखने की भरसक कोशिश भी चलती रही. मसलन, उन्हें हवाई यात्रा और मुझे ट्रेन का सफर. शायद १९७८ का बंगलोर टेस्ट रहा होगा.उसके लिए शोर्ट नोटिस होने के कारण मुझे भी हवाई यात्रा की इकतरफा स्वीकृति दी गई. पुष्टि में मैच के तीसरे दिन एक भेदभाव भरा टेलीग्राम दिल्ली के महानिदेशालय से मिला- औरों को लौटने के लिए हवाई यात्रा स्वीकृत, मंजुल ट्रेन से लौटेंगे.पूछा तो बताया- तुम अभी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हो. तुम हवाई यात्रा के पात्र नहीं होते. मैंने लाख समझाना चाहा कि बाहरी लोगों के साथ मैं भी वही काम कर रहा हूँ और प्रतिस्पर्द्धा पार करने के बाद मेरा नाम कमेंटरी पैनल में आया है.मगर वहाँ कौन सुनने वाला था? मेरे मानसिक त्रास की सीमा टूट चुकी थी.मैंने अपने पुराने स्टेशन डिरेक्टर और तब के उप-महानिदेशक डा.समर बहादुर सिंह को गुहार लगाई. वे संवेदनशील प्राणी थे.मेरी पीड़ा को समझा और वापसी हवाई यात्रा से लौटने की अनुमति मुझे दी.

मैं अपने महानिदेशालय और मंत्रालय को यह समझाते-समझाते थक गया कि मुझे भी बाहरी कॉमेंटेटर जैसी सुविधाएँ मिलनी चाहिए. परन्तु जवाब वही रटा-रटाया मिलता- वे बाहरी आर्टिस्ट हैं जिन्हें बुक किया गया है.लेकिन तुम स्टाफ के हो और नियमानुसार दौरे पर हो. अर्थात घर की मुर्गी दाल बराबर.मेरी लाख दलील का उन पर कोई असर नहीं- मैं सेंट्रल स्क्रीनिंग कमिटी की अग्नि परीक्षा से गुज़र कर कॉमेंटेटर बना हूँ. पिछले दरवाजे से नहीं आया हूँ,प्रतिस्पर्द्धा में डटकर क्वालिटी के साथ परफॉर्म कर रहा हूँ.जब एक बार मैं दूसरे कमेंटेटर्स के साथ कमेंटरी बॉक्स में बैठ गया तो उसी क्षण से स्टाफ का सदस्य नहीं रहा.मेरे साथ भी सलूक एक कमेंटेटर की तरह होना चाहिए.मगर अफ़सोस, नक्कारखाने में मेरी तूती की आवाज़ किसी ने न सुनी.

तुम सरकारी कर्मचारी हो और प्रसारण तुम्हारी ड्यूटी में शुमार होता है- महानिदेशालय की इस हठधर्मी को मैं आखिर तक नहीं तोड़ पाया.तब एक स्टाफ आर्टिस्ट कॉमेंटेटर को ५०: प्रसारण शुल्क का भुगतान किया जाता था,लेकिन नियमित कर्मचारी होने के नाते मैं एक धेले का भी पात्र नहीं था. जबकि काम हम दोनों का वही था.फिर भुगतान में यह भेदभाव क्यों?इस प्रश्न को मैंने कई सूचना प्रसारण मंत्रियों के सामने व्यक्तिगत रूप से रखा.सर्वश्री गुजराल,वसंत साठे,साल्वे, गायकवाड़ और आडवाणी मेरी मांग से सहमत तो हुए. उन्होंने दिल्ली लौटते ही इस मुद्दे पर कुछ करने का आश्वासन दिया. परन्तु परिणाम वही, ढाक के तीन पात.

खैर धन के लिए न तो मैंने रेडियो को बतौर करियर चुना और न ही क्रिकेट कमेंटरी को. भीड़ से अलग हट कर कमेंटरी के ज़रिये अपनी पहचान बनाने का सुख मुझे मिला.पेशेवर ईमानदारी ने मुझे अपने चहेते खेल क्रिकेट तक ही सीमित रखा. चाहता तो हॉकी,फूटबाल,टेनिस और दूसरे खेलों पर भी खुद को थोप सकता था. (समाप्त)

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