Monday, November 7, 2011

उन्माद की सीमा

अमृतसर जाने के लिए कोई बहुत ज़्यादा उत्साह नहीं था. काम निकल आया तो सोचा कि एक और नया शहर देख लेंगे. जलियांवाला बाग, स्वर्ण मंदिर देखने के बाद बाघा बॉर्डर जाने की बारी थी. बॉर्डर पर हज़ारों की भीड़ देखकर सोचता रहा कि आख़िर किस चीज़ को देखने इतने लोग यहां इकट्ठा हुए हैं. भीड़ से घिरा होने के बावजूद मैं विभाजन की त्रासदी के बारे में सोच रहा था. देशों के बीच सीमा नाम का विभाजन मुझे हमेशा बहुत ही कृत्रिम और असुविधाजनक लगता रहा है. लेकिन हक़ीकत यही थी कि इस तरफ़ भारत था और उस तरफ़ पाकिस्तान. बीच में लोहे का बना एक बड़ा सा दरवाज़ा. दोनों ही तरफ़ बड़ी संख्या में लोग दो देशों की साझा सैनिक परेड देखने को मौजूद थे. इस तरफ़ बीएसएफ़ ने और उस तरफ़ पाकिस्तान रेंजर्स ने उनके बैठने का इंतज़ाम कुछ इस तरह से किया था कि वे ओपन एयर थियेटर में चलने वाले नाटक को अच्छी तरह देख पाएं.
सूरज डूबने वाला था. सीमा पर राष्ट्रवाद अपने चरम पर था. दोनों तरफ़ से लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गाने चल रहे थे. देशभक्ति में अपने देश के गुणगान से ज़्यादा दूसरे देश को मटियामेट करने की धमकी साफ़ महसूस की जा सकती थी. इन गानों को सुनकर दोनों तरफ़ की जनता में और भी जोश भर रहा था. सस्ते किस्म के फिल्मी गानों में देशभक्ति की लड़ाई जारी थी. दोनों देशों के सिपाहियों में होड़ लगी थी, दूसरी तरफ़ से कोई भड़काऊ गाना चलता तो वे ईंट का ज़वाब पत्थर से दे रहे थे. इस तरफ़ से हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे लग रहे थे तो उस तरफ़ से पाकिस्तान ज़िंदाबाद के. साथ में बंदे मातरम और भारत माता की जय के नारों से भी आसमान गूंज रहा था. वहां से इस्माली नारे उछल रहे थे तो यहां से हिंदू. एक तरफ़ कुरान की आयतें थीं तो दूसरी तरफ़ संस्कृत के श्लोक.
सीमा पूरी तरह सैनिकों के हवाले थी. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता किस चिड़िया का नाम है, उन्हें इस बात से कुछ लेना-देना नहीं था. माना कि पाकिस्तान तो घोषित तौर पर इस्लामिक राष्ट्र है लेकिन इस पार भारत या इंडिया का एक तीसरा नाम हिंदुस्तान कहां से आया, ये असहज सवाल मन में उठने लगा. यहां हिंदुस्तान ज़िंदाबाद का नारा उसके ऐतिहासिक अर्थों में नहीं बल्कि हिंदुओं की भूमि के रूप में उछल रहा था. सैनिक हिंदू प्रतीकों और संस्कृत के श्लोकों को इस्मालिक राष्ट्र के ख़िलाफ़ हिंदू प्रतिवाद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे, जैसे कि भारत कोई हिंदू राष्ट्र हो. सबकुछ इतना असंगत था कि साथ में गए कुछ विदेशी पत्रकार मुझसे ऐसे सवाल करने लगे जैसे इस भूभाग में पैदा होने की वजह से मैं भी इस नाटक के लिए ज़िम्मेदार हूं.
डूबते हुए सूरज के साथ दोनों तरफ़ से कुछ वक़्त के लिए सीमा का दरवाजा खुलना था. यही तमाशे का चरम था. दोनों तरफ़ से सैनिक आक्रामक मुद्रा में झटके से दरवाजा खोलते हैं. हाथ मिलाने आमने-सामने पहुंचते हैं. उनकी निगाहों से ऐसी हिंसा टपक रही होती है जैसे वे एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएंगे. हज़ारों की भीड़ इस मंजर को सांसें रोके देखती है. वो तुलना करती है कि किस तरफ़ का जवान ज़्यादा दमदार है. किसकी आंखों से ज़्यादा नफ़रत और राष्ट्रीय श्रेष्ठता टपक रही है. यहां आपस में मिलने वाले हाथ दोस्ती के नहीं, नफ़रत के थे. बाद में पता चला कि विभाजन के बाद से ही बीच के कुछ वर्षों को छोड़कर ये आयोजन चलता आ रहा है. इस बीच यहां हज़ारों नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी आ चुके होंगे. हमारे सभ्य और धर्मनिरपेक्ष नीति निर्माताओं की नज़र में ये सब नहीं आया हो, ऐसा भी नहीं हो सकता. फिर भी धार्मिक कट्टरता में लिथड़े राष्ट्रवाद का तमाशा यहां जारी है. दिन भर दोनों ओर के सैनिक इस तमाशे के लिए अभ्यास करते हैं. मैं सोचता रहा कि हमारी सभ्यता नफ़रत के ऐसे अभ्यास की कैसे इजाज़त दे सकती है?
सूरज डूब चुका था. दोंनों देशों के सैनिक अपने इलाक़े में लौटकर अपना-अपना झंडा समेट रहे थे. एक तरह से उन्माद और उत्तेजना का अंत हो चुका था. भीड़ छंटने लगी. उस जगह महानता के मानसिक युद्ध के बाद बचे हुए दृश्य थे. मुझे लगा कि लोग राष्ट्रवाद के नशे में चूर नफ़रत के ऐसे ही किसी और आयोजन का प्रशिक्षण लेकर लौट रहे हैं.
(जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित लेख)

4 comments:

Amrita Tanmay said...

हमारे सभी समाज का सुन्दर चेहरा दिखाया है.

प्रवीण पाण्डेय said...

जहाँ की धरती पर धार्मिक उन्माद ने रेखायें चीर दी हों, कुछ पीड़ा तो शेष रहेगी ही।

नीरज गोस्वामी said...

आप द्वारा उठाये गए मुद्दे काबिले गौर हैं...

नीरज

varsha said...

हमारी सभ्यता नफ़रत के ऐसे अभ्यास की कैसे इजाज़त दे सकती है?