भाई शिव प्रसाद जोशी का आलेख -
अण्णा ग्रुप का भ्रमणः काश पता होता लड़ाई किससे है
जनलोकपाल आंदोलन के चार सिपहसालार जो स्वयंभू टीम अण्णा है, उसका उत्तराखंड दौरा कई सवाल खड़े कर रहा है. वे पहले हरिद्वार गए, वहां उनसे कुछ सवाल कुंभ मेले की अनियमितता से जुड़े पूछे गए. क्या कैग की रिपोर्ट उन लोगों ने देखी है. ख़ैर देहरादून में भी जूता फेंकने की घटना हुई. वो आदमी भ्रष्टाचार से परेशानहाल सब्ज़ी विक्रेता है जिसे लगता है कि सिविल सोसाइटी कहा जा रहा ये ग्रुप भी सही नहीं है. हालांकि जूता फेंकने की घटना से ग्रुप के एक सदस्य ने साफ़ इंकार कर दिया जबकि कैमरे पर वो दृश्य क़ैद हो चुका था कि पुलिस के लोग जूता चलाने वाले को दबोच कर क़ैद में ले जा रहे हैं.
उत्तराखंड रक्षा मोर्चा नाम के एक नवगठित राजनैतिक दल ने किरण बेदी से पूछा कि क्या उन्होंने उत्तराखंड का लोकायुक्त बिल पढ़ लिया है. इस पर जवाब आने के पहले ही इंडिया अंगेस्ट करप्शन नामक संगठन जिसके बैनर तले ये मीटिंग हो रही थी, उसके लोग उस वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारी के पास जमा हो गए. पुलिस उन्हें बाहर ले गई. सवाल का जवाब नहीं दिया गया.
अब कुछ दृश्य और हैं इसी मीटिंग के जो यूं तो वर्णन में अटपटे से लगेंगे लेकिन न जाने क्यों उनकी संगति बनती हुई दिखती है पर्दे के पीछे जो खेल जारी है वहां की परछाइयां हिलती हैं. अण्णा ज़िंदाबाद के नारे से ग्रुप की हॉल में एंट्री होती है, वे सब आते हैं. समर्थकों के सिरों पर रामलीला मैदान वाली टोपियां हैं. वे इंडिया अंगेस्ट करप्शन संगठन से बताए जाते हैं लेकिन संगठन के पीछे जो शक्ति उन्हें इस कार्यक्रम के लिए एकजुट किए हुए है वो नज़र नहीं आती. पर उस अनुशासन, कतारबद्धता, वंदे मातरम का समूह गान, वे पीले कुछ कुछ भगवा जैसे दुपट्टे जो कुछ मेहमानों को भेंट भी किए गए, ये सब उलझा हुआ है.
क्या यहां आरएसएस का कोई कार्यक्रम चल रहा है. फुसफुसाते हुए कोई पूछता है. फिर एक सुनियोजित सा दिखता गुणगान शुरू होता है. पहले लोकपाल नाम के बिल के लिए फिर लोकायुक्त बिल लाने वाले खंडूरी के लिए.
ऐसा ही बिल केंद्र सरकार में और बीजेपी शासित अन्य राज्यों में भी चाहिए. वे बोले.
ऐसा ही बिल...
ऐसा ही बिल...जिसमें मुख्यमंत्री विधायक टॉप ब्युरोक्रेसी के खिलाफ कार्रवाई एक लगभग असंभव मामला है. इसमें लोकायुक्त समेत उस टीम के सभी सदस्यों की अनुमति यानी सर्वसम्मति का प्रावधान है वरना हर सदस्य के पास वीटो का अधिकार है.
ऐसा ही बिल...जिसमें लोकायुक्त को हटाने की प्रक्रिया राज्य की ज्युडिश्यरी को लांघते हुए सुप्रीम कोर्ट के पास रखी गई है. उसे बताएगी सरकार फिर कोर्ट राज्यपाल को कहेगा लोकायुक्त हटाओ...सुप्रीम कोर्ट कहेगा.
ऐसा ही बिल... जिसमें लोकायुक्त और सदस्यों की नियुक्ति के प्रावधान गड्डमड्ड हैं.
ऐसा धुंधला बिल..इस धुंधलेपन में चालाकियां गढ़ी गई हैं.
क्या यही बैठकर तय हुआ था जनलोकपाल के इन बांकुरों के साथ कुछ महीनों पहले देहरादून में जब खंडूरी दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर आए थे.
भ्रष्टाचार मिटाने का आंदोलन क्या कोई नेटवर्क है. क्या एक जाल बुना जा रहा है. अपने अपने हिसाब से.
अब अगर जनलोकपाल टीम के मुताबिक खंडूरी का लोकायुक्त बिल 100 फ़ीसदी सही और निर्दोष है और सर्वथा अनुकरणीय है तो फिर किस चीज़ के लिए अलख जगाने वे लोग उत्तराखंड के दौरे पर निकले.
वे लोग कहते हैं किसी दल के ख़िलाफ़ प्रचार नहीं कर रहे हैं. उस मीटिंग में जो देखा और सुना गया वो तो कुछ अलग ही था. “हम राजनीति करने नहीं आए हैं, हम किसी दल की जीत हार के लिए नहीं आए हैं हम ये नहीं बता रहे हैं कि आप इन्हें वोट दें या न दें. कुछ दल जाति और धर्म के नाम पर वोट मांग रहे हैं, कोई मुस्लिमों को लुभा रहा है कोई दलितों को आप उन्हें वोट मत दीजिये......आप जिसे वोट देना है उसे दीजिए पर उससे पूछिए कि वोट के बदले हमें क्या मिलेगा, क्या भ्रष्टाचार मुक्त माहौल मिलेगा.”
जैसे वो हां कह देगा जैसे वोट उसे चला जाएगा जैसे वो अपनी कसम याद रखेगा जैसे वो पहले से भ्रष्टाचार न करता होगा. जैसे वो हार जाएगा तो वोटर का कल्याण हो जाएगा. जैसे जैसे... न जाने कितने सवाल. जैसे भ्रष्टाचार को मिटाने की लड़ाई वोट देकर और वोट न देकर पूरी हो जाने वाली है. जैसे वोट मांगने के लिए जाते नेता के भ्रष्टाचार मिटाने पर हां या ना कहते ही एक आईना उग आएगा और वहां उसका सच झूठ दिख जाएगा.
क्या हम इस देश के इतने सारे लोग इस चुनावी राजनीति से ही मारे जा रहे हैं या हमारे गलों पर दिन रात की यातना की ये रस्सी कुछ और है इसकी डोर कहीं और है. भ्रष्टाचार महादेश की आर्थिक नीतियों व्यवस्थाओं और एक सामरिक फ़ुर्ती के साथ चलाए जा रहे नवउपनिवेशवादी नवउदारवादी एजेंडे की वजह से आ रही भीषणताओं की एक नुकीली कड़ी है. और भी ज़ालिम कड़ियां हैं. इतनी आसान तो नहीं होगी ये लड़ाई. इसे सही दिशा में मोड़ने से कौन रोक रहा है. कौन. प्रतिरोध की सुई उन निवेशकों मुनाफ़ाखोरों दलाल पूंजीपतियों नवउदारवादियों यथास्थितिवादी एनजीओज़ की ओर क्यों नहीं मोड़ रहे हैं वे. लोकतंत्र की रट लगाते लगाते आख़िर ये किस चीज़ की आहुति दी जा रही है कौन से यज्ञ में कौन सा है ये आंदोलन.
तो इस तरह से कुछ अजीबोग़रीब कुछ संशय भरे ढंग से ये सब चला. ग्रुप के एक सज्जन मंचों पर कविता के ज़रिए हंसाने गुदगुदाने वाले रहे हैं. अपने भाषण में वो न जाने भावुकता में बहे या आक्रोश में या बदले की भावना में कि राहुल सोनिया से लेकर लालू तक परोक्ष ढंग से कोसते ही रहे. उनकी बॉडी लैंग्वेंज में सरोकार शिष्टता और गंभीरता क्यों नहीं दिखती थी. क्या ये अपनी ही आंखों का कोई दोष था.
और वे सब इतने चहकते हुए, आनन्दित और मुदित क्यों हैं. उनके चेहरों पर अपने पिसते हुए समाज और सह नागरिकों के लिए मानवीय चिंताएं क्यों नहीं दिखतीं. उन्हें क्या चाहिए. क्या सिर्फ़ जनलोकपाल.
6 comments:
कुछ ना कुछ खिचड़ी तो पक रही है, लड़ाई मूल उद्देश्य से भटक कर राजनितिक पैतरों में बदल रही है, आरोप प्रत्यारोप जारी है...
जनता संशय में है ...
भटकना क्या , मुझे तो सब कुछ एक रीयलिटी शो लग रहा है ..... देखते हैं कौन इस राजनीतिक लाभ उठा ले जाता है ........ डिस्गस्टिंग !!
"क्या हम इस देश के इतने सारे लोग इस चुनावी राजनीति से ही मारे जा रहे हैं या हमारे गलों पर दिन रात की यातना की ये रस्सी कुछ और है इसकी डोर कहीं और है. भ्रष्टाचार महादेश की आर्थिक नीतियों व्यवस्थाओं और एक सामरिक फ़ुर्ती के साथ चलाए जा रहे नवउपनिवेशवादी नवउदारवादी एजेंडे की वजह से आ रही भीषणताओं की एक नुकीली कड़ी है. और भी ज़ालिम कड़ियां हैं.
Sahmat aapki baat se..,
prayojit dharne ho sakte hai, lokpaal bill bhi, parantu, badlaav kabhi prayojit nahi ho sakta...
शिव भाई, जनता से तो क्या शिकायत, जनता तो किसी भी रौ में बहने की आदी है लेकिन हमारे बहुत सारे बुद्धिजीवी न जाने क्यों यह सब नहीं देख पा रहे हैं? आपका धन्यवाद इस शो की रीयलिटी पेश करने के लिए।
लेख की दिशा से सहमत हूँ लेकिन ek ziddi dhun ने एक झटके में जनता को बहा दिया.. उनका भी प्रशंसक हूँ इसलिए लिख रहा हूँ. जनता अच्छे-अच्छों को बहा देती है..
है पेश अंधेरे की अदालत में रोशनी
जिंदा है मगर कितनी जलालत में रोशनी।
जो सर पटक रहे थे उजाले के वास्ते
अब उनकी मुट्ठियों की हिरासत में रोशनी।
जिनके हवाले कर दी रसोई की चाभियां
खाते हैं वही बांटकर दावत में रोशनी।
वर्षों पहले मैंने ये शेर लिखे थे देश के राजनीतिक रहनुमाओं के लिए, लेकिन आज ये तथाकथित सिविल सोसायटी के रहनुमाओं पर भी उतने ही प्रासंगिक लग रहे हैं।
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