Wednesday, February 8, 2012

अफगानिस्तान की जांबाज़ बेटी - मीना किश्वर कमाल

मीना किश्वर कमाल का जन्म २७ फरवरी १९५६ को काबुल में हुआ था. जिन दिनों वे स्कूल में थीं, काबुल और अन्य अफगान शहरों के छात्र सामाजिक आन्दोलनों और जन-संघर्षों से बड़ी तादाद में जुड़ रहे थे. मीना ने पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता बनने और महिलाओं को शिक्षित करने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय छोड़ देने का फैसला किया. इस उद्देश्य के लिए उन्होंने १९७७ में RAWA (Revolutionary Association of the Women of Afghanistan) की स्थापना की. इस संगठन का उद्देश्य अफगानिस्तान की वंचित और खामोश करा दी गयी स्त्रियों के अधिकारों को आवाज़ मुहैय्या कराना था. उन्होंने तत्कालीन रूसी सेना और कठपुतली सरकार के विरोध में कई जुलूस, सभाएं और प्रदर्शन आयोजित किये.

इसके अलावा उन्होंने अफगान महिलाओं के लिए एक द्विभाषी पत्रिका 'पयाम-ए-जां' का प्रकाशन १९८१ में किया. इसके अलावा मीना ने शरणार्थी बच्चों और स्त्रियों के लिए स्कूल, हस्पताल और रोज़गार-परक केंद्र भी खोले.

१९८१ का अंत आते आते मीना को फ़्रांस की सरकार ने फ्रेंच सोशलिस्ट पार्टी कॉंग्रेस में भाग लेने का निमंत्रण दिया. जब मीना मंच की तरफ जा रही थीं, रूसी प्रतिनिधि बोरिस पोनामारेव को शर्मसार होकर हॉल से बाहर निकलना पड़ा. फ्रांस के अलावा उन्होंने कई अन्य यूरोपीय देशों का भी भ्रमण किया और कई महत्वपूर्ण लोगों से मुलाक़ात की.

उनका सामाजिक कार्य और प्रभावी नेतृत्व कट्टरपंथियों और रूसी सेना की आँख किरकिरी बन गया. ४ फरवरी १९८७ को पाकिस्तान के क्वेटा में KGB की अफगान शाखा खाद ने उन पर हमला कर उनकी हत्या कर दी.

मीना ने अपनी कुल ३१ साल की ज़िन्दगी के १२ साल अपनी मातृभूमि और उसकी महिलाओं के हितों के लिए वार दिए. उनका गहरा विशवास था कि निरक्षरता, अज्ञान और कट्टरपन, भ्रष्टाचार और ह्रास के अँधेरे के बावजूद उनके मुल्क की आधी आबादी अंततः जागेगी और आज़ादी, लोकतंत्र और महिला-अधिकारों के नए रस्ते खोलेगी.

मीना के कार्य को आज भी बहुत आदर के साथ याद किया जाता है.

आज उनकी एक कविता पढ़िए -



कभी नहीं लौटूंगी मैं

मैं हूँ वह औरत जो जाग चुकी
मैं जाग चुकी और जला दिए गए अपने बच्चों की राख़ से गुज़र कर बन चुकी तूफ़ान
मैं जाग चुकी अपने भाई के खून की धाराओं से
मेरे मुल्क के गुस्से ने दी है मुझे ताक़त
तबाह किए गए और जला दी गए मेरे गाँव मेरे भीतर भरते हैं दुश्मन के खिलाफ नफरत
मैं हूँ वह औरत जो जाग चुकी
मैंने पा लिया है अपना रास्ता और कभी नहीं लौटूंगी मैं.
मैंने खोल दिए हैं अज्ञान के बंद दरवाज़े
मैं अलविदा कह चुकी सारे सुनहरे कंगनों को
ओ मेरे हमवतन, मैं वो नहीं जो मैं थी
मैं हूँ वह औरत जो जाग चुकी
मैंने पा लिया है अपना रास्ता और कभी नहीं लौटूंगी मैं.
मैं देख चुकी हूँ नंगे पाँव भटकते बेघर बच्चों को
मैं देख चुकी हूँ मातम के कपड़े पहने मेंहदी लगी दुल्हनें
मैं देख चुकी हूँ कैदखाने की विशाल दीवारों के भुक्खड़ पेटों को आज़ादी निगलते हुए
मैंने दूसरा जनम लिया है विरोध और साहस के महाकाव्यों के बीच
मैंने आख़िरी साँसों में सीखा है आजादी का गीत, रक्त की लहरों और जीत में
ओ हमवतन, ओ भाई, अब मत समझना मुझे कमज़ोर और अक्षम
अपनी धरती की आज़ादी के रस्ते पर मैं तुम्हारे साथ हूँ अपनी पूरी ताक़त के साथ.
मेरी आवाज़ मिल चुकी है हजारों जाग चुकी औरतों के साथ
बंधी हुई हैं मेरी मुठ्ठियाँ हजारों हमवतनों के साथ,
तुम्हारे ही साथ मैं कदम बढ़ा चुकी अपने देश की राह पर
इन सब यातनाओं, गुलामी की इन सब जंजीरों को तोड़ने के लिए,
ओ मेरे हमवतन, मैं वो नहीं जो मैं थी
मैं हूँ वह औरत जो जाग चुकी
मैंने पा लिया है अपना रास्ता और कभी नहीं लौटूंगी मैं.

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

मीना, नाडिया...। अत्यातचारों का अंतहीन सिलसिला और प्रतिरोध का भी। कविता को बेमानी मानने वाले साथी ध्यान दें कि प्रतिरोध में लगी शख्सियतों की अभिव्यक्ति में कविता कितनी कारगर रही है।

प्रवीण पाण्डेय said...

यह जुझारुपन जीवन को एक पहचान दे जाता है, भीड़ से कहं अलग..