Friday, February 17, 2012

एक सम्पूर्ण सेकेण्ड से कम कुछ भी नहीं


मई १६, १९७३

विस्वावा शिम्बोर्स्का

उन बहुत सी तारीखों में एक
जो कुछ याद नहीं दिलातीं.

मैं उस दिन कहाँ जा रही थी
क्या कर रही थी - मुझे याद नहीं,

मैं किस से मिली, हम ने किस बारे में बातें की
मैं नहीं जानती.

अगर आसपास कहीं कोई अपराध हुआ हो
तो मैं गवाही नहीं दे सकती.

सूरज चमका और
मेरे क्षितिजों से परे मर गया.
धरती घूमी
लेकिन इस बाबत कुछ भी नहीं लिखा गया मेरी नोटबुक में.

बेहतर होगा मैं यह सोचूँ
कि मेरी अस्थाई मृत्यु हो गयी थी
बजाय इस के कि मैं जिए जा रही थी
और मुझे कुछ भी याद नहीं है.

आखिरकार मैं कोई प्रेत तो नहीं थी -
मैं सांस ले रही थी, खाना खा रही थी
टहल रही थी.
मेरे क़दमों की चाप को सुना जा सकता था
मेरी उँगलियों के शर्तिया छोड़े होंगे
दरवाजों के कुंडों पर निशान
आईनों में क़ैद हुआ होगा मेरा प्रतिविम्ब
मैंने किसी भी रंग का कुछ पहना ही होगा
किसी ने देखा ही होगा मुझे.

शायद उस दिन मुझे कुछ मिला हो
जिसे खो दिया हो मैंने
शायद मैंने कोई चीज़ खो दी हो जो प्रकट हुई हो बाद में

मैं भरी हुई थी भावनाओं और सनसनी से
अब वह सब
कोष्ठकों के बीच बिंदुओं की पांत जैसा है

मैं कहाँ छिपी हुई थी?
कहाँ दफना लिया था मैंने खुद को?
अपनी आँखों के सामने ही अदृश्य हो जाने
की बुरी तरकीब नहीं यह.

मैं झकझोरती हूँ अपनी स्मृति को
संभवतः उसकी टहनियों में
सालों से निद्रामग्न कोई चीज़
फडफडाती हुई, हरकत में आ जाए.

नहीं.

स्पष्टतः मैं बहुत अधिक मांग रही हूँ
एक सम्पूर्ण सेकेण्ड से कम कुछ भी नहीं.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सम्पूर्ण सेकण्ड से कम कुछ भी नहीं..वाह..