गुजरात दंगों के दस साल
बीत गए. भारतीय इतिहास के माथे पर लगी इस कालिख को कौन भुला सकता है. शिवप्रसाद
जोशी उठा रहे हैं कुछ सवाल जो हमेशा से प्रासंगिक रहे हैं -
दस सालः भारी गुज़रती है
रात
-शिवप्रसाद जोशी
गुजरात. दस साल से जैसे एक
रात में सोए हुए हों और हड़बड़ाकर उठे फिर सो गए हों. नींद नींद नींद. एक बेसुधी. रेहान फ़ज़ल को मारने के लिए वे आ गए हैं. कार घेर ली है. पत्नी का क्रेडिट कार्ड
पास है. नाम है ऋतु राजपूत. उसे दिखाया. उस हमलावर ने कहा रितिक. हिंदु है. जाने
दो. रेहान फ़ज़ल पसीने में भीगते हुए सिकुड़ गए. बीबीसी रेडियो पर दस साल पहले के
उस वाकये को याद करते हुए जैसे रेहान डर कर और न जाने कहां घुटी पड़ी हुई चीखों के
सहारे बोलते हैं. वो उस डर के प्रेत को अपने सामने डोलता हुआ देख सकते हैं. मुझे
भी झुरझुरी होती है.
दंगाई के सामने पड़ जाना.
उसका छोड़ देना.
या आग के हवाले कर देना.
गुजरात के एक मृतक का बयान
पढ़ा है और गुजरात के एक बच गए व्यक्ति का बयान सुना है. गुजरात की दास्तानें सुनी
हैं. पढ़ा है सुना है किताबों पत्रिकाओं अख़बारों में तस्वीरें और टीवी में दृश्य
देखे हैं. क्या उसके अंधेरों और वीरानों और डरावनी दीवारों को देख पाया. गोधरा से
लेकर अहमदाबाद तक क्या कोई सीधी रेखा है जो मेरे दिल को चीरती हुई गुज़रती है. या
नियति पर ये आड़ी तिरछी खरोंचे हैं बंगलौर से कश्मीर, देहरादून से जयपुर तक. ये
खरोचें चाहकर भी क्यों नहीं मिटा पाता. और ये नियति क्या है. मैं गुजरात के मृतक
का बयान नाम की कविता पढ़ता हूं तो मुझे अनायास रोना क्यों आता है. वे तस्वीरें, वे बयान, वे लोग. क्या हम
सेंटीमेंटल होकर यूं ही खप जाएंगें. हम क्या करें. उन लड़ाइयों में हमारी क्या
भूमिका है जो दस साल से न्याय हासिल करने के लिए जारी हैं.
मोदी को लोग मैनेजर बताते
हैं. कि आर्थिक विकास के मैनेजर हैं. पर मोदी नाम का कोई मनुष्य भी तो होगा. क्या
नहीं है. गुजरात पर दस साल पहले धंसा कांटा निकाल फेंकने और बीती ताही बिसार दे का
ज्ञान देने वाली एक तृप्त बिरादरी, बताओ क्या जो नहीं भूलता
वो सिर्फ़ बदला ही होता है. क्या प्रतिशोध ही एकमात्र भावना रह जाती है. या ग्लानि
भी कोई भावना होती है. वो कांटा अब ख़ून से सना है और वहीं से खाद लेता हुआ एक
कंटीला पेड़ बन गया है. इस पेड़ का साया हमारे सिरों से नहीं हटता. क्या करें. हम
अभिशप्त हैं. और रहेंगे. वे गुजरात को समस्त काल्पनिक कल्पनातीत यथार्थपरक जितना
भी जैसा भी स्वर्गनुमा बना दे पर इस शाप से मुक्ति असंभव है. आज़ाद भारत
आत्मग्लानि का भारत भी है.
कुछ व्यक्तियों ने हम सबको
एक बहुत बड़ी जेल में डाल दिया है. हमारे मातापिता हमारे बच्चे हमारे दोस्त हमारे
संबंधी. घूमते फिरते ख़ुश रहते खातेपीते टहलते नौकरी पर आतेजाते क्या हम नहीं
जानते कि ये सब एक बहुत बड़ी जेल के भीतर करना पड़ रहा है. खुली हवा. किस खुली हवा
की बात कर रहे हैं आप. किस खुली हवा में सांस लेंगे. क्या पिछले दस साल से आप अपनी
सांसों में जमा दुर्गंध को नहीं महसूस कर रहे. ये उन कब की जलाई जा चुकी फेंकी जा
चुकी दफ़्न की जा चुकी लाशों से अभी तक उठ रही है. और दस साल ही क्यों.
ख़ामाख्वाह भावुक होने का
किसका जी चाहता है. हिंदी में तो कितने ख़तरे हैं इसके. पूरी पहचान को काली स्याही
में डुबो देंगे. पर मैं कहता हूं इसी भावुकता से आप मनुष्यता ग्रहण करेंगे, सबजेक्ट से एक ऐसी दूरी रख
पाएंगे कि पास जाना पड़े तो चौंके नहीं कि कहां आ गए. गुजरात बहुत ढंग से बहुत कुछ
सिखाता है. चुभता तो ये रहेगा ही चाहे कितने ही वे अमिताभ कितनी ही महिमा रच लें.
24 घंटे गांवों में बिजली
तो ले आएंगें पर आत्मा में उजाला कब भरेंगें वे. उस घने काले गहरे सूराख में कितनी
कारें कितनी हरियाली कितना पानी और कितना सकल घरेलू उत्पाद डाल देंगे कि वो भर
जाए.
2 comments:
गुजरात का ये रूप डराता है, सिर्फ भावनाएं नहीं उफनतीं, कहीं ख़ौफ़ भी पैदा होता है।
शुक्र कीजिए कि आप अशोक पांडे हैं ..
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