Monday, February 20, 2012

माफ करना हे पिता - ८

(पिछली किस्त से आगे)


माफ करना हे पिता - ८

शंभू राणा

मेरे एक दोस्त ने उन्हें एक काल्पनिक सपना कह सुनाया कि मैंने जंगल में आग लगी देखी तो उस पर पानी डाल कर बुझा दिया। प्रश्नकर्ता का मकसद लॉटरी का नम्बर निकलवाना नहीं था, उसे पिता के जवाब में दिलचस्पी थी। पिता ने बिना सोचे जवाब दिया- हाँ ठीक तो है। आपने आग में पानी डाल दिया, आग बुझा दी….बस। बड़ा आसान है। योगेश बाबू, पढ़े-लिखे जवान आदमी हो, इतना भी नहीं समझते कि इस उम्र में ऐसे सपने आते हैं।

दो-एक महीने तक अपने आसपास मक्खियों का भिनभिना महसूस कर पिता अज्ञातवास में गाँव चले गये। करीब छः महीनों तक हम दोनों ने एक दूसरे की कोई खोज-खबर नहीं ली। मैं इस अर्से में कबाड़ से जुगाड़ पद्धति से जिन्दा रहा। पिता की पेंशन न जाने कहाँ अटक गयी थी। वो ऐसे महारथी थे कि गाँव में रह कर भी हरकारों के जरिये लॉटरी के शेयर मार्केट में अपना दखल बनाये रहे। सपने देख-देख कर नम्बर निकाल रहे थे। लॉटरी हार-जीत रहे थे। अब हरकारे कितनी ईमानदारी बरतते होंगे कहना मुश्किल है। वो छः महीने बाद अचानक प्रकट भये एक दिन गोर्की जैसी मूछें बढ़ाये हुए। पेंशन चल पड़ी थी।

लॉटरी उनसे तब तक नहीं छूटी जब तक सरकार ने इसे बंद न कर दिया। इस धंधे में असफल रहने का कारण उनकी नजर में मैं था। बकौल उनके- गुरू हम तो क्या का क्या कर दें, इस शख्स से जो हमें इतना सा सहयोग मिल जाये। मैंने कब उनके हाथ बाँधे, उन्होंने मेरा कहा कब किया, याद नहीं। जो भी चीज उनके मन मुताबिक न होती, उसका ठीकरा मेरे सर फोड़ा जाता। उन्होंने कुछ ऐसी बातें भी मेरे साथ चस्पा कर रखी थीं कि जिनका मुझ से कोई मतलब नहीं था। उनके कहे मुताबिक वो बीमार पड़ना तब से शुरू हुए जब से उन्होंने भात खाना शुरू किया। वर्ना पहले तो हम उस घर में ही नहीं जाते थे जहाँ चावल पक रहा हो। गुरू हमारी शादी (पहली) में सात गाँवों की पंचायत बैठी, सिर्फ हमारी वजह से भात का प्रोग्राम कैंसिल कर पूड़ियाँ बनीं। तो चावल वो मेरी वजह से अपनी जान पर खेल कर खाये जा रहे थे। जब कि सच यह है कि मुझे चावल कोई इतने पसंद नहीं कि भात खाये बिना खाया हुआ सा न लगे। पिता सुबह को चावल बना कर परोस दें तो मैं क्या कर सकता था, सिवाय इसके कि चुपचाप खा लूँ और देखने वाले की नजर में अपने बाप की सेहत से खिलवाड़ करता हुआ रंगे हाथों पकड़ा जाऊँ। गुनहगार कहलाऊँ। पिता दूसरों की नजर में बुजुर्ग, सीधे और भलेमानुष, मैं कमीना और बूढ़े बाप को सताने वाला। परिस्थितियाँ कभी भी मेरे अनुकूल नहीं रहीं।

मकान मालिक लोगों की जो जमीन यूँ ही पड़ी-पड़ी कूड़ेदान का काम कर रही थी, पिता ने उसमें शाक-सब्जियाँ उगाना शुरू कर दिया। यह काम वह पहले भी करते ही थे। अब होल टाइमर थे। बारहों महीने मौसम के मुताबिक सब्जी खेत में मौजूद। सब्जी तोड़-तोड़कर पास-पड़ोस में बाँट रहे हैं। इस उस को दे रहे हैं। पेड़ों को पब्लिक नल से पानी ढोकर सींच रहे हैं। और मजे की बात कि न आप मिर्च खाते हैं न बैगन। बैगन का नाम आपके मुताबिक दरअसल बेगुन है, इसमें कोई गुण नहीं होता। भगवान इसकी रचना भूलवश कर बैठा। अचार के सीजन में बड़े-बड़े केनों में अचार ठुँसा पड़ा है। लहसुन छील-छील कर उँगलियों के पोर गल गये हैं।

आपके कथनानुसार कोई खाता नहीं, वर्ना हम तो ससुर टर्रे का भी आचार डाल दें। टर्रा मतलब मेंढक। बड़ियों के मौसम में बड़ी-बड़ी मुंगौड़ियों की रेलम पेल। बड़ी पिता के मुताबिक स्वास्थ्य खराब करने वाली चीज है, उसकी तासीर ठंडी होती है। एक बार उन्होंने 17 किलो माश की बड़ियाँ बना डालीं। 17 किलो माश को धोना, साफ करना और सिल में पीसना अपने आप में एक बड़ा काम है- संस्था का काम है। पर उन्होंने पीस डाले रो-धोकर मुझे सुनाते हुए रुआँसी आवाज में कि मेरा कोई होता तो माश पीस देता। ऐसे चूतियापे के कामों में सचमुच मैंने कभी उनका साथ नहीं दिया। सिवाय इसके कि अचार का आम या बड़ियाँ छत में सूखने पड़ी हैं, बूँदाबाँदी होने लगी तो उन्हें उठा कर भीतर रख दूँ। सोचने वाले सोचते कि इस आदमी ने अचार-बड़ियों का कुटीर उद्योग खोल रखा है। अच्छा भला मुनाफा हो रहा है। इसका लड़का अगर थोड़ा हाथ बँटा देता तो क्या बुरा था। आखिर यह बूढ़ा आदमी इतनी मेहनत किसके लिये कर रहा है। सचमुच बेटा इसका नासमझ है और कमीना भी। मुझे कहीं पनाह नहीं थी।

(जारी)

1 comment:

batrohi said...

यह लेख जैसा भी हो, इसके साथ डाली गई पंटिंग तो अद्भुत हैं, कलात्मक और सुरुचिपूर्ण. यद्यपि उनका मूल पाठ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता.