Thursday, February 16, 2012

माफ करना हे पिता - ४

(पिछली किस्त से आगे)


माफ करना हे पिता - ४

शंभू राणा

देहरादून की यह यादें सन 1971 के आस-पास और उसके कुछ बाद की हैं। समय का अंदाज एक धुँधली सी याद के सहारे लगा पाता हूँ। शाम को रोशनदानों में बोरे ठूँस दिये जाते थे और कमरे के अंदर जलती हुई ढिबरी को गुनाह की तरह छिपाया जाता। बाहर घटाटोप अंधेरा। यकीनन उस समय सन 71 की भारत-पाक जंग चल रही होगी। उसी के चलते अंधेरे का राज था – ब्लैक आऊट। रोशनी से परहेज जंग में ही किया जाता है। न सिर्फ दिये की रोशनी से बल्कि दिमाग पर भी स्याह गिलाफ चढ़ा दिये जाते हैं। जो कोई अपने दिमाग पर पर्दा न डाले, युद्ध के वास्तविक कारणों, जो कि अमूमन कुछ लोगों के अपने स्वार्थ होते हैं, पर तर्कसंगत बात करे, वह गद्दार हैं। सामान्य दिनों में देश को अपनी माँ कह कर उसके साथ बलात्कार करने वाले अपनी माँ के खसम उन दिनों खूब मात्र भक्ति का दिखावा करते हैं।

माँ बीमार है, अस्पताल में भर्ती है। पिता दफ्तर, अस्पताल और घर सब जगह दौड़े फिर रहे हैं। मैं दिन भर घर में छोटे भाई के साथ रहता हूँ। यह भाई कब कहाँ से टपका, मुझे याद नहीं। मैं खुद बहलाये जाने की उम्र का हूँ, उसे नहीं बहला पाता। उसे झुलाने, थपकियाँ देने के अलावा बोतल से दूध पिलाता हूँ और अपनी समझ के मुताबिक पानी में चीनी घोल कर देता हूँ। शहद वाले निप्पल से कई बार बहल भी जाता है। उसे बहलाते हुए अकसर मुझे नींद आ जाती है। रोते-रोते थक कर वह भी सो जाता है। गर्मियों के दिन, दरवाजे चौखट खुले हुए।

शाम को पिता दफ्तर से लौट कर खाना बनाते हैं, फिर छोटे भाई को गोद में लिये एक हाथ से दरवाजे में ताला लगाने का करतब करते हैं। कंधे में बिस्तरा, झोले में खाना और चाय का सामान, एक हाथ में स्टोव लिये मुझे साथ लेकर पैदल अस्पताल जाते हैं। अस्पताल के बरामदे में लकड़ी की दो बेंचों के मुँह आपस में जोड़ कर बिस्तरा बिछाया जाता है, जिसमें दोनों बच्चे सो जाते हैं। पिता रात भर माँ और हमें देखते हैं। यह सिलसिला न जाने कितने दिन, लेकिन कई दिनों तक चला। दून अस्पताल की धुँधली सी यादें हैं। गेट के बाहर सड़क में खाली शीशियाँ बिका करती थीं। तब अस्पताल में अनार के जूस सा दिखने वाला एक घोल भी मरीज को मिलता था, जिसके लिये लोग शीशी खरीदते थे। समझदार लोग शीशी घर से लाते, दस-बीस पैसे की बचत हो जाती। यह घोल मिक्सचर कहलाता और हर मर्ज में मुफीद मान कर दिया जाता था। मिक्सचर स्वाद में शायद कसैला सा होता था लेकिन मीठा तो हरगिज नहीं।

उन्हीं दिनों कभी मैंने पिता से पूछा कि क्या इंदिरा गांधी तुमको जानती है ? क्योंकि वे खुद को सरकारी नौकर बताते थे और लोग कहते थे कि सरकार इंद्रा गांधी की है। मतलब कि वे इंदिरा गांधी के नौकर हुए। मालिक अपने नौकर को जानता ही है। मेरा सवाल ठीक था। ऐसे ही एक बार मैंने उनसे पूछा जब मैं तुम्हें याद कर रहा था तब तुम कहाँ थे, क्या कर रहे थे।
देहरादून की यादें बस इतनी सी है। शायद सन 74 में देहरादून छूट गया और आज तक फिर कभी वहाँ जाने का इत्तेफाक नहीं हुआ। कई चीजों और वाकयात आज भी यूँ याद हैं जैसे हाल ही की बात हो। पिता का दफ्तर, पास ही में चाय की दुकान, तिराहे पर साइकिल मैकेनिक गुलाटी। उसके बाँये मुड़ कर थोड़ा आगे अहाते के भीतर हमारी कोठरी। चित्रकार होता तो यह सब कैनवस में उकेर सकता था।

फिर पिता का तबादला अल्मोड़ा हो जाता है, बकौल उनके ऑन रिक्वेस्ट। अल्मोड़ा आकर हम गाँव में रहने लगे। पिता गाँव से शहर नौकरी करने आते-जाते हैं। कुछ समय बाद माँ फिर बीमार अस्पताल में भर्ती हो जाती है। पता नहीं क्या मर्ज था। पिता तीमारदारी और नौकरी साथ-साथ करते हैं। मुझे ननिहाल भेज दिया जाता है। एक दिन नानी के साथ माँ से मिलने गया था। याद नहीं हमारी क्या बातें हुई थीं। स्टूल में बैठा पाँव हिलाता उसे देखता रहा। पिता दहेज में मिले तांबे-पीतल के थाली-परात (जो कि उनकी गैरमौजूदगी के कारण ननिहाल में सुरक्षित थे) बेच-बेच कर दवा-दारू कर रहे थे।

(जारी)

2 comments:

शूरवीर रावत said...

नैनीताल समाचार के माध्यम से शंभू राणा जी के लेख पढता आया हूँ. उनके लिखने का जबरदस्त अंदाज अन्त तक बान्धे रहता है. आत्मकथा रूप में लिखा जा रहा 'माफ़ करना पिता' भी उनकी लेखन शैली के लिए सराहा जायेगा ही.
अगली कड़ी का इंतजार रहेगा. आभार !

मुनीश ( munish ) said...

ऐसी ही चीज़ों की वजह से कबाड़खाना हिन्दी का अद्वितीय ब्लॉग है । नैनिताल समाचार तोक्यो में कहाँ मिलना था , भारत में भी उस पर ब्रेड पकौड़े बिक चुके होंगे । यहाँ आकर ये शानदार लेखन काल के गर्त में जाने से बचा है , विज्ञान की महिमा
और गुणियों के हाथों उसकी लगाम आने से जो होता है वही हो रहा है । धन्य है ..वाक़ई शानदार काम है ।