कुमार अम्बुज जी के संग्रह 'अमीरी रेखा' से एक और कविता-
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
फिर न वह पेड़ वैसा बचता है और न वैसी रात आती है
न ओंठ रहते हैं न पंखुरियाँ
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
कार्तिक जा चुका है और ये पौष की रातें हैं जिनसे सामना है
जीवन में रोज ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक़्त निकल जाता है
बाद में तुम पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गयी हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा
लेकिन इस से हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वजन कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहाँ तक जीवित चले आने में हरेक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है
धन्यवाद न देने की कसक भी साथ चली जाती है
जो घेर लेती है किसी मौसम या टूटी नींद में
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
उन्हें अब खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरअक्स तुम
फिर अचकचाए या सकुचाए खड़े रहते हो
हालांकि कई चीज़ें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं
पतझड, झरने, चाय की दूकान और अस्पताल की बेन्च
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर कहना क्या चाहते हो
शायद इसलिए ही कभी सोच समझकर या अनायास ही
तुम उनके कंधे पर अपना सर रख देते हो.
(नोट- इस कविता को पढते हुए मुझे अपने सर्वप्रिय आधुनिक फिल्मकार सर्बिया के एमीर कुस्तुरिका की एक महशूर फिल्म 'अंडरग्राउंड' का आख़िरी दृश्य याद आता रहा. इसलिए कुछ लोगों को इस पोस्ट के साथ लगा उस फिल्म के उस दृश्य के एक लॉन्ग-शॉट का फोटो अटपटा लग सकता है. पर सनक अपनी-अपनी.)
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