Monday, February 6, 2012
नींबू चमकता है किसी दीये की मानिन्द एक आप्रवासी की रात में
और हमारे पास देश हैं
महमूद दरवेश
और हमारे पास देश हैं बग़ैर सरहदों वाले, जैसे
अज्ञात का हमारा ख़्याल, संकरा और चौड़ा - देश जिनके
नक़्शे संकराते हैं एक सलेटी सुरंग में जब हम चलते हैं उनमें और पुकारते हैं
उनकी भूलभुलैयों में: "और तब भी हम तुम्हें प्यार करते हैं"
हमारा प्यार उत्तराधिकार में मिली एक बीमारी है. देश जो
हमें अज्ञात में उछाल देने पर बढ़ा करते हैं. उनके
बेंत और चित्रण बढ़ते हैं, उनकी घासें और नीले पहाड़
एक झील चौड़ी होती जाती है आत्मा की उत्तर दिशा में. गेहूं के कांटे
उग आते हैं आत्मा के दक्षिण में. नींबू चमकता है किसी दीये की मानिन्द
एक आप्रवासी की रात में. भूगोल से निकलते हैं पवित्र पाठ.
और पहाड़ियों की उठती हुई बेड़ियां पहुंचती हैं ऊपर
और ऊपर. निर्वासन कहता है ख़ुद से: "अगर मैं एक चिड़िया होता
मैंने जला देने थे अपने पंख." शरद की ख़ुशबुएं
छवि बन जाती हैं जिसे मैं प्यार करता हूं उसकी, मुलायम बारिश
टपकती है सूखे दिल में और कल्पना खोल देती है अपना स्रोत
और बन जाती है वास्तविकता का फैलाव, इकलौती सच्ची जगह.
सारी सुदूर चीज़ें बन जाती हैं ग्रामीण और आदिम
मानो धरती अब भी इकठ्ठा कर रही हो ख़ुद को आदम से मिलने के लिए
जो उतर रहा अपने स्वर्ग से. मैं कहता हूं: ये हैं वे देश
जो हमें धारण किये हैं ... सो हम कहां जन्मे थे?
क्या दो पत्नियां थीं आदम की? या हम जन्मेंगे दोबारा
पाप को भूल जाने को?
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महमूद दरवेश
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