Wednesday, February 15, 2012

माफ करना हे पिता - ३

(पिछली किस्त से आगे)


माफ करना हे पिता - ३

शंभू राणा

शाम लगभग सात-आठ बजे का समय है। पिता खाना बना रहे हैं, मैं बरामदे में खेल रहा हूँ। गेट खोल कर ऑफिस का कोई कर्मचारी अहाते में दाखिल होता है। पिता उसका कमरा खोल देते हैं, वह आदमी बैठ कर कोई फाइल निपटाने लगता है। पिता फिर रसोई में जुट जाते हैं। करीब आधे घंटे बाद वह आदमी बाथरूम में घुस जाता है और तभी बिजली चली जाती है। पिता लालटेन या मोमबत्ती लेकर दफ्तर के खुले कमरे में जाते हैं। कुछ देर इन्तजार करने के बाद आवाज देते हैं। वह आदमी और जवाब दोनों नदारद। पिता मुझे कंधे में बिठाते हैं, हाथ में एक डंडा लेकर अंधेरे बाथरूम में ताबड़तोड़ लाठी चार्ज कर देते हैं। जवाब में जब किसी की चीख नहीं सुनाई दी तो उन्होंने नतीजा निकाला कि बिजली चली जाने के कारण वह आदमी बिना बताये चला गया। उनकी इस हरकत का मतलब मैं कभी नहीं समझ पाया। दुर्घटनावश मेरा खोपड़ा डंडे की जद में नहीं आ पाया।

कुछ समय बाद माँ फिर देहरादून आ जाती है। हम पास ही किराये की एक कोठरी में रहने लगते हैं। यह कोठरी पहले वाली से बेहतर है। कतार में चार-पाँच कोठरियाँ हैं, छत शायद टिन की हैं। मकान मालिक का घर हम से जरा फासले पर है। वह एक काफी बड़ा अहाता था जिसमें आम, लीची और कटहल वगैरहा के दरख्त हैं। अहाते में एक कच्चा पाखाना था जिसकी छत टूट या उड़ गयी थी। जब कोई पाखाने में हो उस वक्त दरख्तों में चढ़ना अलिखित रूप से प्रतिबंधित था। इसी तरह कोई अगर दरख्त में चढ़ा हो तब भी। अहाते में एक ओर मकान मालिक के दिवंगत कुत्तों की समाधियाँ थीं जिन में वह हर रोज सुबह को नहा-धोकर फूल चढ़ाता था। फूल चढ़ाने के बाद हाथ जोड़ कर शीश नवाता था कि नहीं, भगवान की कसम मुझे याद नहीं।

मकान मालिक लगभग तीसेक साल का था। दुबला पतला, निकले हुए कद का, चिड़चिड़ा सा, शायद अविवाहित था। परिवार में उसकी विधवा माँ और दो लहीम-शहीम सी बिन ब्याही बहनें थीं। एक नाम रागिनी था, दूसरी का भी शर्तिया कुछ होगा। परिवार में एक नौकर था श्रीराम। गठा हुआ बदन, साँवला रंग और छोटा कद। उसके नाम की पुकार सुबह के वक्त कुछ ज्यादा ही होती थी। मालिक मकान के परिवार का मानना था कि इस बहाने भगवान का नाम जबान पर आ रहा है। वे राम पर श्रद्धा रखने वाले सीधे-सच्चे लोग थे, हाथ में गंडासा लेकर राम-राम चिल्लाने वाले नहीं। ऐसे लोग तब अंडे के भीतर जर्दी के रूप में होंगे तो होंगे, बाहर नहीं फुदकते थे। बेचारा श्रीराम अपने नाम का खामियाजा दौड़-दौड़ कर भुगत रहा था। परिवार वाले उसे काम से कम बेवजह ज्यादा पुकारते।

एक दिन सुबह के वक्त मैं खेलता हुआ मकान मालिक के आँगन में जा पहुँचा। सामने रसोई में श्रीराम कुछ तल-भुन रहा था और मुझ से भी बतियाता जा रहा था। तभी अचानक न जाने क्या हुआ कि आँगन में एक ओर बने गुसलखाने का दरवाजा भड़ाम से आँगन में आ गिरा। भीतर मकान मालिक की बहन नहा रही थी। दरवाजा गिरते ही वह उकड़ूँ अवस्था में न जाने किस जनावर की सी चाल चलती तथाकथित कोने में खिसक गयी- श्रीराम को पुकारती हुई। श्रीराम ने रसोई से निकल कर श्रीकृष्ण की सी हरकतें कीं। उसने दोनों हाथों से टिन का दरवाजा उठाया, उसकी आड़ से गुसलखाने के भीतर एक भरपूर नजर डाल कर दरवाजा चौखट से यूँ टिका दिया, जैसे लाठी दीवार से टिकाते हैं। आइये दो मिनट का मौन धारण कर उस लड़की की हिम्मत को दाद दें। ऐसे गुसलखाने कई बार देखे कि जिनके भीतर जाते ही गूँगा आदमी भी गवैया बन जाता है। मगर वैसा चौखट से जुदा, कील-कब्जों से सर्वथा विरक्त दरवाजे वाला बाथरूम फिर देखने में नहीं आया और न नहाती हुई लड़की ही फिर कभी दिखी। समय भी कई बार अजीब हरकत कर बैठता है। अब भला लॉलीपॉप की उम्र के बच्चे को शेविंग किट भेंट करने की क्या तुक है ?

शाम का वक्त है। पिता मेरा हाथ थामे द्वारका स्टोर बाजार (शायद यही नाम था) की ओर जा रहे हैं। कंधे में झोला है, झोले में तेल के लिये डालडा का डमरूनुमा डब्बा। राशन लेने निकले हैं। दुकान में भीड़ है। पिता उधार वाले हैं, उनका नम्बर देर तक नहीं आता। मैं काउण्टर से सट के खड़ा हूँ। खड़े-खड़े टाँगें दुखने लगी हैं। छत से टँगे तराजू में जब सामान तोल कर उतारा जाता है तो उसका एक पल्ला पेंडुलम की तरह झूलता है और मैं हर बार अपना सर बचाने के लिये पीछे हटता हूँ। यह दृश्य उधार वाले ग्राहक के प्रति दुकानदार की नापसंदीदगी के प्रतीक के रूप में मुझे खूब याद है। यह बिम्ब भी अकसर कोंचता है। तगादा सा करता हुआ यादों के मुहाफिजखाने में कहीं मौजूद है। इसका भी कोई इस्तेमाल नहीं हो पाया।

पिता दफ्तर से दो-एक किलो रद्दी कागज उड़ा लाये हैं, जिन्हें बेच कर कुछ पैसे मिल जायेंगे। शाम के झुरमटे में साइकिल में मुझे साथ लिये कबाड़ी के पास जा रहे हैं। साइकिल दुकान के बाहर खड़ी कर मेरा हाथ थामे पानी कीचड़ से बचते आगे बढ़ते हैं कि एकाएक बड़ी फुर्ती से मुझे गोद में उठा कर साइकिल की ओर भागने लगते हैं। बहुत देर तक ताबड़तोड़ साइकिल चलाते रहते हैं। साँसें बुरी तरह फूली हुई हैं। मैं कुछ भी समझ नहीं पाता, डरा सहमा सा साइकिल का हैंडल कस कर पकड़े हूँ। बाद में पिता बताते हैं कि कबाड़ी की दुकान में सी.आइ.डी. का आदमी खड़ा था ताकि उन्हें सरकारी कागज बेचते रंगे हाथ पकड़ ले। पिता के मुताबिक साइकिल ने इज्जत रख दी, वर्ना जेल जाना तय था। उन्हें अपनी साइकिल पर बड़ा नाज था। बकौल उनके वह मामूली साइकिल नहीं थी, रेलवे की थी। रेलवे की साइकिल का मतलब अब वही जानें। जहाँ तक मुझे याद है, वह साइकिल उनकी अपनी नहीं थी, किसी की मार रखी थी।

(जारी)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

धारदार गद्य है । काफ़ी दिन बाद मिला पढ़ने को .