Wednesday, March 28, 2012

मेरा गाना मनोरंजन नहीं ;अनहद की अनवरत खोज है.

वह भगवा वस्त्र पहनतीं हैं,सिर पर विशाल केशराशि वाली जटाएँ है जिसको अभी उन्होंने जुड़ा बनाकर सहेज रखा हे. चककती आँखें हैं और हिन्दी-अंग्रेज़ी में बतियाते हुए कभी हँसतीं,अश्रुजल बहाती तो कभी कहीं शून्य में खो जातीं.देह-भाषा एक मासूम बच्चे सी और भाषा और चिंतन किसी गूढ़-गंभीर विदूषी जैसा.ये उनके आभामण्डल का ही परिणाम है कि एक स्थानीय होटल में बैठा हूँ लेकिन लग रहा है फिलवक्त ये जगह चैतन्य महाप्रभु के आश्रम में तब्दील हो गई है. ये हैं सुप्रसिध्द बाउल गायिका पार्वती बाउल जो कबीर यात्रा में भाग लेने इन्दौर आई हैं.

अभिवादन होते ही मैं उन्हें नईदुनिया (एम.पी.०९-मेंट्रो प्लस) का वह अंक देता हूँ जिसमें उनकी तस्वीर प्रकाशित हुई है. वे बच्ची सी चहक उट्ठी हैं और ध्यान से रपट पढ़ रहीं हैं.किसी हिन्दी अखबार से यह उनकी सर्वथा पहली बातचीत है. संवाद शुरू होता है तो कहती हैं कि परिवार में शास्त्रीय संगीत का खासा माहौल था और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ सबसे चहेते कलाकार थे. पिता सरकारी मुलाजिम थे सो यहाँ वहाँ स्थांतर होता रहता था. पार्वती नृत्य की ओर आकर्षित थीं सो पिताजी ने पं.किशन महाराज की शिष्य श्रीलेखा मुखर्जी के पास भेजा. बढिया तालीम चलती रही और बाद में शांति निकेतन में पढ़ने का सौभाग्य मिला.वहाँ चित्रकारी सीखी.पार्वती कहतीं हैं मुझे कुछ ऐसा करना था जिसमें सिर्फ़ मनोरंजन न हो;नृत्य हो,गीत-संगीत हो और एक आध्यात्मिकता. मेरे लिये किसी भी काम का संतोष,परिणाम या सफलता महत्वपूर्ण नहीं,लगातार कुछ करते रहना और चलते रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है.सूफियाना रंग में आकंठ डूबी पावती बाऊल का यकीन यात्रा में है उसकी मंजिल में नहीं.वे कहती हैं मंजिल तो वह निराकार – निर्गुण आत्मतत्व है जिसकी तलाश में ये एकतारा गूँज रहा है. वे कहतीं हैं मैं अनहद की उपासक हूँ;सुनाना नहीं चाहती,सुनना चाहती हूँ.


पार्वती बाऊल ने बताया कि हर बंगाली परिवार को कम से कम एक बाऊल गीत तो याद रहता है.इस विधा की एक सुदीर्घ परम्परा वहाँ पाई जाती है. उलटबासी में कहे गये पदों में नये-नये प्रश्न और जिज्ञासाएँ होईं हैं.जैसे एक पद में कहा गया है कि दिन में उजाला कहाँ;और रात में ये सूरज कैसे निकला है. तो उत्तर है कि दिन में अंधियार है यदि ज्ञान का आसरा नहीं और अंधरा भी निस्तेज है यदि ज्ञान की ज्योत प्रज्ज्वलित है. पार्वती ने बताया कि बाऊल के सैकड़ों गुरू हैं और उनकी सुदीर्घ परम्परा है. ज्यादातर गुरू और पद-रचयिता हैं और असंख्य पद रच चुके हैं. पार्वती बाऊल वैष्णव दरवेश परम्परा से हैं. इसमें पैर एकदूसरे के विपरीत रखा जाता है जो वैष्णव मत का प्रतिनिधित्व करता है और गाते वक्त चक्कर लगाना दरवेश परम्परा का परिचायक. यह युवा गायिका बताती है कि उनके गुरूजनों एक साध्वी बरसों पहले तुर्की जाकर सूफी संगीत सीखी थी और बाद में बंगाल में आकर बाऊल में उसे समाहित किया. बाऊल गाने वाले भिक्षुक नहीं वे तो सर्वशक्तिमान की कृपा के अनुगायक हैं. बाऊल परम्परा में सन्यास अनिवार्य नहीं. बाकयदा परिवार बसाया जा सकता है. भगवा भी इसलिये धारण किया गया है कि हमारे गायक साधक हैं यह संदेश जा सके. क्योंकि बाऊल सिर्फ गाना भी नहीं;नजर नहीं आने वाले लेकिन कण-कण में समाने वाले उस ईश्वर का वंदन है जो निराकार है. बाऊल विरासत में सर्वधर्म की भावधारा है और संप्रदाय से ऊपर जाकर दरवेश,वैष्णव,नाथयोगी सभी समाहित हैं.

जीवन के साढ़े तीन दशक देख चुकीं पार्वती बाऊल कुमार गंधर्व को बेहद पसंद करतीं हैं.किशोरी अमोनकर उनकी चहेती गायिका हैं और वे पूरे विश्व में बाऊल संगीत का एक जगमगाता नाम है. पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया की कबीर बानी से प्रभावित पार्वती बाऊल का हाल मुकाम लूनियाखेड़ी(मक्सी) है और मालवा की आबोहवा का भरपूर आनंद ले रहीं है. गातीं हैं,डुग्गी और इकतारा एक साथ बजाती हैं और पैरों में पहने हुए वजनदार कड़ों (जिन्हें वे नूपुर कहतीं हैं) से लय देती जाती हैं.नृत्य,गायन,वादन और भक्ति की यह बेजोड़ तपस्विनी कहती है कि कल जो गाया था वह वहीं रह गया,अब फिर एक नई टेर लगाना है और तलाशता है अपने उस मौला को जिससे मिलने में ही परम सुख है.बाकी तो सब बाहरी है.पार्वती बाऊल की यात्रा भीतरी है और उसके भावभीने स्वर की पुकार और इकतारे की टंकार हमें कहीं अपने भीतर झाँकने को विवश करती है.


जटाओं का रहस्य:पार्वती बाउल के माथे पर विराट जटाओं का डेरा है. वह कहती हैं कि कोई मान्यता बाऊल संगीत में नहीं है. मेरे भाई भी सन्यासी हैं बस उन्होंने एक दिन कह दिया पार्वती इन्हें बढ़ने दो शायद इनका विस्तार तुम्हें उस परमात्मा का स्मरण करवाते रहे.अब तकरीबन बीस बरस हो गये ये ऐसे के ऐसे ही है.वैष्णव-दरवेश परम्परा में दीक्षित पार्वती जब गाते गात घूमने लगती हैं तो मंच पर फैल जाती उनकी केशराशि एक अलग ही वातावरण की निर्मिति करती है.
(ये साक्षात्कार मैंने नईदुनिया के लिये किया था. मन ने कहा कबाड़ख़ाना पर इस सामग्री के कई मुरीद हैं;सो साझा कर रहा हूँ;छाया:महेश गोयल)

12 comments:

Anupama Tripathi said...

वाह अच्छा लगा पढ़कर ....संगीत कि ऐसी साधना ...मन पर अमिट छाप छोड़ रही है ...कितना अच्छा होता आप कुछ उनका गाया हुआ भी पोस्ट करते ...
अगर हो सके तो कीजियेगा ...सुनने कि इच्छा प्रबल हो गाई ....!!
आभार ...

Narendra Mourya said...

वाह भाई, मजा आ गया। पार्वती बाउल से मुलाकात करवाकर सचमुच आपने हम जैसे कई लोगों का भला किया है। कुछ बरस पहले मैंने दिल्ली में बाउल गान सुना था। शांति निकेतन के ही लखन महाराज ने सुनाया था। मैं उनके तीन-चार कार्यक्रमों मे शामिल था। तब उनसे बाउल गान के बारे में काफी बात हुई थी। आपकी पोस्ट पढ़कर बरसों बाद भीतर कहीं बाउल गान गूंज उठा। पार्वती बाउल से आपने बहुत उम्दा बातचीत की है। उनका दर्शन बहुत करीब महसूस हुआ। बस अब उन्हें सुनने का मन है शायद कभी मौका मिल ही जाए। बहरहाल आपका शुक्रिया।

प्रज्ञा पांडेय said...

sukhad aashchary hain ve toh.

प्रज्ञा पांडेय said...

sukhad aashchary hain ve toh.

वर्षा said...

पढ़कर मन के तार झनझना उठे। ऐसे लोगों के बारे में जानकर अब लगता है कि वो कहां पहुंच गए, कितना संघर्ष, कितनी मेहनत की होगी, मन में बेचैनी की कई तरंगें उठती हैं।

sonal said...

bahut bahut shukriyaa

iqbal abhimanyu said...

फाइव स्टार बाउल का ज़माना है बाबूजी. :/

अजेय said...

vow(L) !! she rocks.

रवि रतलामी said...

हमने तो कोई बाउल गाना नहीं सुना. कोई ऑडियो चढ़ाएँ या एमपी3 डाउनलोड लिंक दें तो भला हो!

लोकेन्द्र सिंह said...

पार्वती बाउल से मुलाकात कराने के लिए शुक्रिया...

मुनीश ( munish ) said...

लेकिन कहीं ये ब्राह्णवाद का पोषण तो नहीं :) हैं जी ? भगवा का तो है ही सवा शर्तिया !

sanjay patel said...

नहीं मुनीश भाई,कोई भगवाकरण नहीं पार्वती के गायन में. मैंने उनको ऐसी शख़्सियत के रूप में पाया है जो सभी मज़हबों का आदर करतीं हैं. उनकी प्रस्तुति के समापन में तो मैंने एक ऐसी बंदिश सुनी जिसमें सभी दरवेश,पीर,पैग़म्बर,औलियाओं का भावपूर्ण स्मरण था.....