शेक्सपीयर की वसीयत पढ़ना हमेशा ही खासा दिलचस्प अनुभव होता है. यह देख कर हैरत होती है कि अपनी कालजयी रचनाओं में इस कदर देवता सरीखा सर्वज्ञानी लगने वाला महान कवि आदमी होने के ऐसे निहायत साधारण दर्जे पर उतर आता है कि अपनी पाई-पाई का हिसाब करने में उसे इतनी मेहनत करनी पड़ती है.
पिछली सदी के महानतम रचनाकारों में गिने जाने वाले बोर्हेस ने शेक्सपीयर पर एक टुकड़ा लिखा था, जिस में इस वसीयत का ज़िक्र भी आता है. कबाड़खाने की एक्सक्लूसिव पेशकश आपके वास्ते –
उस के भीतर कोई भी नहीं था : उसके चेहरे (जो उस ज़माने की बुरी
पेंटिंग्स के बावजूद किसी और से नहीं मिलता था) और उसके शब्दों में, जो प्रचुर,
शानदार और तूफानभरे थे, केवल ज़रा सा ठंडापन था, एक सपना जिसे किसी ने नहीं देखा. शुरू में वह सोचता था कि सारे लोग उसी के जैसे थे, लेकिन एक दोस्त की हैरानी देख कर वह अपनी ग़लती समझ गया जिससे उसने इस
खालीपन की बाबत बोलना शुरू किया था, और
उसे अहसास हुआ कि आदमी ने बाहरी तौर पर फर्क नज़र नहीं आना चाहिए. एक बार उसने सोचा
कि उसे अपनी बीमारी का इलाज किताबों में मिलेगा सो उसने किसी समकालीन के जितनी
थोड़ी सी लैटिन और ज़रा सी ग्रीक सीखी; बाद में उसने सोचा कि वह जिसे खोज रहा है
शायद मानवता के किसी मूलभूत अनुष्ठान में मिलेगा सो उसने खुद को जून की एक लंबी
दोपहरी को ऐन हेथअवे* द्वारा दीक्षित हो जाने दिया. बीस और कुछ सालों की उम्र में
वह लंदन चला गया. अपने सहजबोध से वह कोई और होने का दिखावा करने में प्रवीण हो
गया, ताकि बाकी के लोग उसके कोई नहीं होने की अवस्था को न खोज सकें; लंदन में उसने
एक पेशा ढूंढ लिया जो नियति ने उसके लिए तय किया हुआ था, यानी एक अभिनेता का, जो ऐसे
दूसरे की भूमिका उन इकठ्ठा हुए दर्शकों के सामने निभाता था जो उन्हें वह दूसरा
होने का नाटक करते थे. इन नाटकीय कार्यों से उसे एक खास किस्म की संतुष्टि मिली जैसी
उसने पहले कभी नहीं जानी थी; लेकिन आख़िरी वार्तालाप के बोल चुके और मंच से आख़िरी
मृतक को हटा लिए जाने के बाद अवास्तविकता का वह स्वाद उस तक लौट आता था जिससे उसे
नफरत थी. वह फेरेक्स या तैमूर नहीं रह जाता था और दोबारा से कोई नहीं हो जाया
करता. इस तरह पीछा किए जाने से परेशान आकर उसने दूसरे नायकों और दूसरी त्रासद
गाथाओं के बारे में कल्पनाएँ करनी शुरू कर दीं. तो जहां उसकी देह लन्दन के
शराबखानों और वैश्यालयों में अपनी नियति का पीछा करती थी उसके भीतर बसने वाली
आत्मा जूलियस सीजर थी जो अपशकुनों की ज़रा भी परवाह नहीं करता था, वह जूलियट थी
जिसे शोरगुल नापसंद था, और वह मैकबेथ थी जो मैदान में जादूगरनियों (जो नियति भी
हैं) से बातचीत करता है. किसी ने भी इतने
सारे आदमी नहीं देखे जितने कि यह आदमी है, जो मिश्र के प्रोटीयस की तरह वास्तविकता
की सारी पोशाकों को हरा सकता था. कभी कभार वह अपनी रचना के किसी कोने में एक
आत्मस्वीकृति को इस यकीन के साथ छिपा दिया करता था कि उसका अर्थ कभी भी खोजा नहीं
जा सकेगा; रिचर्ड
इस बात की पुष्टि करता है कि अपने भीतर वह कई लोगों की भूमिका निभाता है और विचित्र
शब्दों में आयागो घोषणा करता है “मैं वह नहीं जो मैं हूँ.” अस्तित्व, स्वप्न और
अभिनय की मूलभूत पहचान की प्रेरणा से उसके प्रसिद्ध वाक्यों को रचा गया था.
बीस सालों तक उसने उस नियंत्रित दिवास्वप्न को बंधे रखा, लेकिन एक
सुबह उसे तलवारों से मारे जाने वाले उतने सारे सम्राटों की ऊब और आतंक ने ने अचानक
जकड़ लिया. उसे उतने सारे यातनाग्रस्त प्रेमियों ने अचानक जकड़ लिया जो मिलते थे,
बिछड़ते थे और सुरीले अंदाज़ में मर जाते थे. उसी दिन उसने अपने थिएटर को बेच देने
की व्यवस्था की. एक हफ्ते के भीतर वह अपने पैतृक गाँव लौट आया था जहां उसने अपने
बचपन के पेड़ों और नदियों को दुबारा से खोजा - उसने उन्हें दूसरी चीज़ों से संबद्ध
नहीं किया जैसा कि उसकी काव्य प्रेरणा उत्सवपूर्ण तरीके से गाथाओं के उल्लेख और
लैटिन शब्दावली की मदद से किया करती थी. उसे कोई एक होना था; वह एक सेवानिवृत्त
निर्देशक था जिसने अपने हिस्से का पैसा कमा लिया था और जो अपने को ऋणों, मुकदमों
और सूदखोरी में व्यस्त रखता था. यह उसके इस चरित्र के भीतर था जिसने वह रूखी वसीयत
लिखी जिसे हम सब जानते हैं, जिस में से उस ने जानबूझकर साहित्य और करुणा के सारे
निशान मिटा दिए थे. लन्दन से उसका घर देखने आए दोस्तों के लिए वह दोबारा से कवि की
भूमिका ओढ़ लिया करता था.
इतिहास इस बात को जोड़ता है कि अपने मरने के पहले या बाद में खुद को
ईश्वर के सामने पाकर उसने उस से कहा – “मैं जो फ़िज़ूल ही इतने सारे लोग रहा हूँ, अब
बस एक मैं होना चाहता हूँ.” ईश्वर की वाणी ने एक चक्रवात के भीतर से उत्तर दिया – “मैं
भी कोई नहीं हूँ; मैंने दुनिया का सपना वैसे ही देखा है जैसे तुमने अपनी रचनाओं का
सपना देखा. मेरे शेक्सपीयर, मेरे सपनों के आकारों में एक तुम हो, जो मेरी तरह बहुत
सारे हो और कोई भी नहीं हो.”
- होर्हे लुई बोर्हेस
(ऐन हेथअवे* - शेक्सपीयर की पत्नी)
(ऐन हेथअवे* - शेक्सपीयर की पत्नी)
No comments:
Post a Comment