Friday, April 6, 2012

ऊर्दू की परवरिश की ज़िम्मेदारी बड़ी बहन हिन्दी पर है.


एक वक़्त था देश कई सूबों में हिन्दी,अंग्रेज़ी और ऊर्दू की तालीम स्कूल के स्तर पर दी जाती है. भाषा के विकास में एक राजनीति एक ग़लत खेल खेल रही है. राजनीति नाहक ही भाषा को मज़हब के साथ जोड़ रही है.साझी विरासत को बाँटने की शुरूआत करने के लिये अंग्रेज़ों ने ज़ुबानों को बाँटा. देश के बटवारे के साथ तहज़ीबों का भी बटवारा हुआ. हमारी ज़ुबानें हमारी तहज़ीब का सरमाया थीं.बटवारे के बाद ऊर्दू को सिर्फ़ मुसलमानों और दहशदगर्दी के साथ जोड़ा गया. हिन्दी बड़े हिस्से में बोली जाती थी सो राजगादी पर जा बैठी. उसे चाहिये कि वह बड़ी बहन बनकर ऊर्दू को पाले-पोसे और उसकी परवरिश करे.हमारा मुल्क एकाधिक भाषा का हामी रहा है.ऊर्दू जो स्कूलों में सिखाई जाती थी अब मदरसों में सिखाई जा रही है.यही वजह है कि ऊर्दू एक अवामी ज़ुबान न रह कर मुसलमानों की ज़ुबान बनती जा रही है.

ये विचार हैं ऊर्दू के जानेमाने आलोचक और भाषाविद डॉ.गोपीचंद नारंग के जो इन्दौर के एक सांस्कृतिक और सामाजिक सिलसिले रूपांकन की मेज़बानी में मदू ‘एक शाम जावेद अख़्तर के नाम’में शिरकत के लिये बुधवार की शाम इन्दौर तशरीफ़ लाए.आपके दोस्त को उनसे एक लम्बी गुफ़्तगू का फ़ख्र हासिल हुआ. मौक़ा था जावेद अख़्तर की नज़्मों के नये मजमुए 'लावा'के इजरे का.

डॉ.गोपीचंद नारंग ऊर्दू के मूर्धन्य आलोचक हैं जिन्हें पूरी दुनिया में बहुत इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता है और यही वजह है कि ८० पार का ये स्कॉलर दुनिया की बीस से ज़्यादा यूनिवर्सिटीज़ में बतौर गेस्ट फ़ैकल्टी अपने सुदीर्घ ज्ञान का परचम लहराता रहता है.ऊर्दू अदब डॉ.नारंग को न केवल ज़ुबान बल्कि उसके इतिहास,व्याकरण और मुस्तक़बिल के प्रतिष्ठित टीकाकार के रूप देखती है.वे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके हैं और पद्मभूषण के साथ ही कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़े जा चुके हैं. इस तालिबे-इल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है वे बात करते वक़्त ज़ुबान के उस्ताद के बजाय एक दोस्त बन जाते हैं और उस सच को बाक़यादा आपके ज़हन में उतार देते हैं जिसे आज़ादी के बाद तोड़ा-मरोड़ा गया है.

डॉ.नारंग से बातचीत शुरू हुई ऊर्दू के सूरतेहाल से. उन्होंने कहा कि ऊर्दू में न केवल पद्य (नज़्में-ग़ज़लें) ख़ूब लिखे जा रहे हैं बल्कि गद्य (दास्ताने और अफसाने) भी फल-फूल रहीं हैं. ऊर्दू का स्रोत दखनी है जिसमें ब्रज,अवधि,सरायकी सभी कुछ शुमार थीं. हिन्दी की ताक़त बोलियाँ रहीं हैं.जिसमें मैथिली,राजस्थानी,मालवी,मराठी भी शामिल हैं.डॉ.नारंग ने बड़े मार्के की बात कही कि अमीर ख़ुसरो तक ऊर्दू-हिन्दी की जड़े एक थीं.हिन्दी के पास बोली का इतिहास था और ऊर्दू के पास था मुहावरा और रोज़मर्रा.लेकिन एक साज़िश के तहत इन दोनों सगी बहनों को जुदा किया गया. ऊर्दू ने २० वीं शताब्दी में मार झेली. इसकी शुरूआत १८५७ से हो जाती है जब धर्म की राजनीति ने इन एकजाई बहनों को अलग करने का सिलसिला शुरू किया.डॉ.नारंग ने कहा भाषा वह दरिया है जो सतत बहता रहता है.

तो क्या भाषाओं का ये अलगाव जारी रहेगा ? डॉ.गोपीचंद नारंग बड़े ऐतमाद के साथ कहते रात के बारह बजे सल्तनतें,नवाब,शासक,बादशाह बदल सकते हैं ,नया मुल्क वजूद में आ सकता है लेकिन ज़ुबान और तहज़ीब को बदलना मुमकिन नहीं.ऊर्दू अपनी सुन्दरता की वजह से ज़िन्दा तो रहेगी लेकिन हिन्दी पर ये ज़िम्मेदारी आयद है कि वह ऊर्दू को तस्लीम करे.उसके अदीब,दानिशवर ऊर्दू की रहनुमाई करें.साथ ही ऊर्दू वालों को भी सोचना है कि इस ज़ुबान में अस्सी फ़ी सद लफ़्ज़ हिंदी का आसरा लेकर चलते हैं.ऊर्दू को अहम बनाती है उसकी खनक,चुस्ती,गूँज और करिश्मा.इस ज़ुबान में एक ख़ास किस्म की दिल-फरेबी है जो इसके चाहने वालों को अपनी ओर लाती है.

डॉ.गोपीचंद नारंग के विचारों में पूरा का पूरा एक इतिहास बोल रहा था. यूँ लग रहा था मानो किसी ने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को खोल कर रख दिया है.उन्होनें मुखरता से कहा राजभाषा समितियाँ ज़ुबानें नहीं बनातीं उसे बनाता है अवाम. डॉ.नारंग ने मज़ाहिया लहजे में कहा परिंदा नाम की कोई चीज़ नहीं होती.लफ़्ज़ था परिंद जो फ़ारसी से आया था. उसे अवाम ने अपने हिसाब से परिंदा बना लिया. मुर्ग़ा था ही नहीं;मुर्ग़ था.पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनो चाहिये थे (हँसते हुए कहते हैं क्योंकि अण्डा भी चाहिये था) सो मुर्ग़ा-मुर्ग़ी बना लिये.ध्यान रहे हम ज़ुबान को ध्वनि से भी अर्थ देने में माहिर हैं मसलन अमीर का शाब्दिक अर्थ लीडर होता है हमने धनवान बना लिया.और ग़रीब के मानी होते हैं अपरिचित जिसे अवाम ने बिना पैसे वाला शख़्स बना डाला.ख़ुद एक बड़ा आलोचक होने के बावजूद डॉ. नारंग ने कहा कि आलोचकों को फतवे देना बंद कर देना चाहिये और उन्हें अपने आपको निष्पक्ष मशवरे तक महदूद रखना चाहिये.


डॉ.गोपीचंद नारंग से ये पूछने का हक़ तो बनता ही था कि आख़िर ऐसा क्या है जो ग़ज़ल को सारी काव्य-विधाओं में अव्वल बनाता है. नारंग साहब ने इस्लाम फैला अरब से स्पेन तक और इधर इण्डोनेशिया तक यानी ३०-३५ मुल्कों में उसका विस्तार पहुँचा लेकिन सूफ़ीवाद की छाप वैसी कहीं और नहीं पड़ी जैसी भारत में.ग़ज़ल का आधार है भक्ति और उसका रूहानी रंग. सिर्फ़ हुस्न और शराब ग़ज़ल नहीं है. ग़ज़ल जिस्मानी न होकर मेटाफ़िज़िकल और वह कारख़ाना-ऐ-कुदरत के वजूद को अभिव्यक्त करती है. डॉ.नारंग बोले कि हिन्दी में दुष्यंतकुमार से लेकर अदम गौंडवी,राजेश रेड्डी और आलोक श्रीवास्तव तक की हिन्दी ग़ज़ल में नासिर क़ाज़मी का सर्वाधिक प्रभाव है. इसके लिये डॉ.नारंग ने एक शे’र सुनाया और कहा बताइये इसे कौन सी ज़ुबान कहेंगे..

ध्यान की सीढियों पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है.


डॉ.गोपीचंद नारंग यानी एक बेहतरीन अदीब जिसने हिन्दुस्तानी क़ौमी फ़िक्र और उसमें ऊर्दू की हिस्सेदारी को पहचानने और समझने के अहम और ज़रूरी भूमिका तैयार की है. एक ऐसी धर्म-निरपेक्ष रूह जिसके होने से हमारी समाजी और तहज़ीबी सोच का उजला कलेवर नज़र आने लगता है. ख्यात कहानीकार कमलेश्वर ने ठीक ही कहा था “ भारत की सृजनात्मक और सांस्कृतिक आत्मा को ज़िन्दा रखने के लिये हर ज़बान को एक डॉ.गोपीचंद नारंग की ज़रूरत है”

4 comments:

शूरवीर रावत said...

आपके इस लेख ने कई पहलुओं पर सोचने को विवश कर दिया है. डा० गोपीचंद नारंग जी की पीड़ा बेवजह नहीं है...... जिस प्रकार उर्दू को मजहब से जोड़ कर देखा जा रहा है उसी प्रकार देववाणी संस्कृत भी गरिमा खोती जा रही है. चिंता का विषय है कि संस्कृत को अब भाषा ज्ञान या शिक्षा से नहीं जोड़ा जा रहा है अपितु अब प्रायः वे लोग ही संस्कृत पढ़ लिख रहे हैं जिन्हें आगे चल कर ब्राह्मणी वृत्ति अपनानी है........ अब लोग बाल्मीकि या तुलसी कृत रामायण पर चर्चा नहीं करते बल्कि रामानंद सागर कृत रामायण पर चर्चा करते हैं. उसी प्रकार बी० आर० चोपड़ा कृत महाभारत पर बातें की जाती है. चालीस से नीचे की पीढ़ी तो कदाचित ही यह जानती होगी कि महाभारत में कितने पर्व हैं..... वाण भट्ट या कालिदास के बारे में जानना तो दूर की बात है.

शूरवीर रावत said...

आपके इस लेख ने कई पहलुओं पर सोचने को विवश कर दिया है. डा० गोपीचंद नारंग जी की पीड़ा बेवजह नहीं है...... जिस प्रकार उर्दू को मजहब से जोड़ कर देखा जा रहा है उसी प्रकार देववाणी संस्कृत भी गरिमा खोती जा रही है. चिंता का विषय है कि संस्कृत को अब भाषा ज्ञान या शिक्षा से नहीं जोड़ा जा रहा है अपितु अब प्रायः वे लोग ही संस्कृत पढ़ लिख रहे हैं जिन्हें आगे चल कर ब्राह्मणी वृत्ति अपनानी है........ अब लोग बाल्मीकि या तुलसी कृत रामायण पर चर्चा नहीं करते बल्कि रामानंद सागर कृत रामायण पर चर्चा करते हैं. उसी प्रकार बी० आर० चोपड़ा कृत महाभारत पर बातें की जाती है. चालीस से नीचे की पीढ़ी तो कदाचित ही यह जानती होगी कि महाभारत में कितने पर्व हैं..... वाण भट्ट या कालिदास के बारे में जानना तो दूर की बात है.

स्वप्नदर्शी said...

Bahut achchii post aur Dr. Narag se parichay karaane kaa shukriya!

mridula pradhan said...

narang jee ko kai baar sunne ka awsar mila hai.....har baar kitna kuch janne ko milta hai,yah post bhi bahut hi sashakt hai.