Thursday, April 12, 2012

हिन्दी कविता का जेस्चर और मेटाफर युग

धीरेश सैनी के ब्लॉग एक जिद्दी धुन की ताज़ातरीन पोस्ट में नरेंद्र जैन की कवितायेँ और उन पर जनाब असद ज़ैदी की टिप्पणी प्रकाशित हुई है. उसी से एक बेहद ज़रूरी अंश लगा रहा हूँ -


आज कविता एक भयावह सरलीकरण के दौर से गुज़र रही है और यह सरलीकरण मोटी समझ या ठसपन वाला सरलीकरण नहीं, एक नैतिक और राजनीतिक सरलीकरण है. चूंकि घुटन, पीड़ा, दुःख और क्रोध से, अन्याय और विषमता के प्रतिकार से, अंतर्विरोध की मार से बचकर कविता नहीं लिखी जा सकती, और लिखी जाए तो समकालीन कविता नहीं हो सकती, इसलिए यथास्थितिवादी रचनाकारों ने वास्तविक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की जगह काल्पनिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की भूलभुलैयाँ रचनी शुरू की है. बिना विद्रोह किए, बिना उस विद्रोह की क़ीमत चुकाने को तैयार हुए ये लोग विद्रोह और प्रतिरोध का एक रुग्ण रोमांटिक औरउत्तर-आधुनिकतावादी संसार कलाओं में रच रहे हैं. अब मुठभेड़ और प्रतिरोध की जगह 'जेस्चर'और 'मेटाफर' ने ले ली है. देखते देखते आज ऐसे कवि काफ़ी तादाद में इकट्ठे हो गए हैं जो इस तरीक़े को ही असल 'तरीक़ा' और सच्चा 'सिलसिला' मानते हैं.

3 comments:

डॉ .अनुराग said...

मुझे तो आज की कविता ओर गध में फर्क करना मुश्किल होता है . कन्फ्यूज़ हूँ इन लम्बी कविताओं से .... कुछ तो गध के टुकड़े लगते है ,कोई इस पर रौशनी नहीं डालता

Ek ziddi dhun said...

हां, सही बात है मगर यह कविता तक ही सीमित नहीं है। यह बीमारी हिंदी में दूसरी विधाओं तक फैल चुकी है। और संगठनों में भी। इन दिनों कई ठोस वास्तविक मुद्दों पर प्रतिबद्ध जनसंगठनों के पदाधिकारियों तक के स्टेंड हैरान कर जाते हैं।

Kirti Vardhan said...

mahatvpurn kavita ka gadh hona nahi balki uski sampresnata hai,yadi vah pathak ke man ko aandolit karane me safal ho aur pathak ko nirasata ka anubhav na ho to vah achchhi kavita hi hai.un dakiyanusi logo ki jamat se bahar aakar jab kavita jan -jn ki bhasha me baat karati hai tab hi uski sarthakata hai.