संजय चतुर्वेदी मेरे चहेते कवि हैं. भीड़ में सबसे अलग लहज़ा, गहरी नुकीली भाषा और समाज की रग-रग से वाकफियत. उनकी कई सारी कवितायेँ आप इस ब्लॉग पर पढते आए हैं. जोधपुर में रहनेवाले हमारे कबाड़ी मित्र संजय व्यास के इसरार पर संजय चतुर्वेदी के कविता-संग्रह प्रकाशवर्ष से उनकी एक कविता पतंग पेश कर रहा हूँ. प्रसंगवश बतलाना चाहूँगा कि इस कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था.
पतंग
तीन तिरछी पट्टियों
वाली पतंग
मई की शाम के आकाश
में
ऊपर जामुनी
बीच में वसंती
और नीचे आसमान के
दीप्तिमान नीले में
जादुई फ़िरोज़ी
अंतरिक्ष के
अक्षांशों को बदलती
वायु के आघूर्ण
और बरनॉली की प्रमेय
पर सवार
हिचकोले खा के
नाव-सी उतरती है वर्तमान में
जैसे उतरता हो
आकाशदीप
क्षितिज की कोमल और
अंधेरी रेखाओं में
अचानक घास, हवा और
ज़मीन से
निकलते हैं बच्चे
वीर-विहीन धरती पर
कुछ होने की शुभाशंका की तरह
बेस्वाद घरों की
आकृतियों अपनी लग्गियों से जगाते
सर्र से निकल जाते
है सूरज के सामने से
तेज भागती गाड़ियों
और टेनिस खेलकर लौटती औरतों के सामने से
उड़नतश्तरी अटक जाती
है टेलीफोन के तार में
अपने हाथ ऊपर उठाते
हैं
डोर से बंधे सूफी
और यह उतरा जलहंस
उच्छल जलधि में
छूते ही टूट जाता है
शिव का धनुष
टंकार से काँपती हैं
दासों दिशाएं
बोलती बंद, सन्निपात
और हड़कंप
फिर सब सहज
मुक्त होकर निश्छल
लौटते हैं
एक दूसरे को चपतियाते
छोटी-छोटी बातों पर
हँस-हँसकर लोटपोट होते
ये शिव-धनु-भंजक
मानव के रणंजय
एटलांटिक और प्रशांत
को जोड़ने वाले पाँव
उधर कहीं समेटी जा
रही है बाकी बची डोर
अगली यात्रा के लिए
तौले जा रहे हैं जहाज़
तेज़ी से काम कर रही
हैं अभियान की सूरतें
कभी न हारने वाली
आशाएं
उत्तरी ध्रुव,
एंटार्कटिका, सगरमाथा को छूने वाली उंगलियाँ
इधर सूरज हो गया दार्शनिक
अरुणाभ
शिव के आशीर्वाद की
तरह
और यह देखो, फिर एक
हरी पतंग ने
गाँठ की तरह जोड़
दिया हमारी डोर को
सूर्य के जाते हुए
रथ से
लोकातीत सूत्रों तक.
1 comment:
जिनको दुनिया कबाड़ कहती है, उसकी कीमत तो एक कबाड़िया ही जानता है। सच में रचना बेहतरीन है, आपकी पसंद भी
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