Sunday, April 29, 2012

बाबू - १


निर्वासन की थीम पर आधारित 'जलसा' के अंक में लक्ष्मीधर मालवीय का बेहद मार्मिक संस्मरण छपा है. पत्रिका के संपादक श्री असद ज़ैदी ने न केवल इसे कबाड़खाने में पोस्ट करने की अनुमति दी, इसका यूनिकोड संस्करण भी मुहैय्या कराया. उनका धन्यवाद.
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बाबू


लक्ष्मीधर मालवीय

हिंदी लेखक, शिक्षक, चित्रकार और फ़ोटोग्राफ़र लक्ष्मीधर मालवीय (जन्म 1934) पिछले 45 बरस से जापान में बसे हुए हैं, लेकिन अपने बचपन से जवानी तक का पूरा ज़माना उनके सीने में एक अमानत की तरह ज्यों का त्यों सुरक्षित है, और वह गद्य भी जिसे वह अपने साथ लेकर गए थे. कुछ साल पहले ‘लाई हयात आए’ नाम से उनके संस्मरणों का पहला खंड किताब की शक्ल में छपा था. यहाँ हम दूसरे (अब तक अप्रकाशित) खंड ‘क़ज़ा ले चली चले’ का एक अध्याय प्रकाशित कर रहे हैं.
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rid me of the invisible people
who forever move about my house!

- गार्सीया लोर्का


मैं इंटर में था, कि गिलबिल्लीवाला मकान किराएदारों से ख़ाली हुआ. तीन मंज़िल का घर, रहने वाले हम माँ-बेटे, दो प्राणी. पहले एकाध साल एक परिवार, नीचे के हिस्से में किराएदार रहा. फिर भगीरथमल नवलगढ़िया, मारवाड़ी आढ़ती व्यापारी का परिवार नीचे के हिस्से में आकर बसा.

भगीरथजी तो बाहर-बाहर रहते थे, आसाम वगै़रह से थोक भाव माल मँगाते, मुनाफ़े से बेचते. दो-चार महीने में एक बार घर आते. स्थायी रूप से रहते थे, उनकी पत्नी बींदणी, मारवाड़ी में 'बहू', और उनके दो बेटे बिस्सू और ओम. छोटा 13-14 साल का ओम अध-पगला था. उसके चेहरे पर - विशेषकर पुतलियों की चमक में - व्यंग्यपूर्ण मुस्कान थिरकती रहती. एक बार वह बाहर गली के नल पर नहाकर बाहर के दरवाज़े से नंग धड़ंग वापस आ रहा था, कि मैं तभी बाहर निकल रहा था - मैंने उसकी भरपूर पिटाई की थी. उसका बड़ा भाई बिस्सू उसे मारता-पीटता तो वह चिल्ला-चिल्लाकर रोता, इस पर उनकी माँ उन दोनों से अधिक ज़ोर से चिल्लाती. मगर मारवाड़ी भाषा में होने से सब रोना-चिल्लाना मिलकर महज़ शोर बनकर तीसरी मंज़िल के मेरे पढ़ने के कमरे तक सुनाई देता.

बीच-बीच में बाबू बाहर से आते. कुछ हफ़्ते-महीने घर में रहते और अचानक फिर कहीं चले जाते. हाँ, जहाँ भी वह रहते, पत्र हर हफ़्ते-दस रोज़ पर अवश्य भेजते, अधिकतर मेरे नाम. उन पत्रों में उनके बारे में कम, मेरे लिए बातें अधिक रहती, कि मुझे अपना जीवन बनाने में किन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

पिछले कई माह से वह कलकत्ते में थे. वहाँ मेरी दोनों बड़ी बहिनें भी रहती थीं. बाबू चितपुर रोड पर टीवड़ावाला की भव्य धर्मशाला में रहते थे - उसकी ऊपर की मंज़िल पर एक कमरा प्रायः सदा बाबू के लिए ख़ाली रख छोड़ा जाता था, कि वह जब ही चाहें उसमें आकर टिक सकें. बाबू के साथ सामान सदा अधिक रहता था - एक तो ठाकुरजी का धातु का बना भारी सिंहासन ही 30-40 किलो का रहा होगा! (उसे कोई बीस वर्ष तक बंबई में काकूमाँ ने, फिर उनकी बेटी अजब ने, अपने यहाँ रख छोड़ा था, सन 48 में मैं उसे बाबू के दूसरे सामानों के साथ वहाँ से इलाहाबाद ले आया था.) काठ की बनी उसकी फ़ोल्डिंग चैकी. जब तक बाबू उसे न ले गए थे, मैं घोर गर्मी की रातें उसे ऊपर वाली छत पर लगाकर उस पर सोता - सिर से चूतड़ तक ही उस पर समाता. मधु कुछ ही माह की रही होगी, एक रात वह कमरे के अंदर बिस्तर से नीचे गिरकर चीख़ी कि मैं लंगूर कुदान से वहाँ पहुँच उसे उठा लाया और उसे अपने नंगे सीने पर औंधे मुँह लिटाकर थपकियाँ देते हुए सुला दिया था. भोजन बाबू स्वयं न बनाते थे, निकट में तिवाड़ी का भोजनालय था. तिवाड़ी बनारस का था. इनसे दाम न लेता था. यहाँ तक कि वह स्वयं वहाँ तक न जा सकें तो धर्मशाला के चैकीदार से कहला देने पर इनकी थाली वह धर्मशाला में भेज देता!

कोई महीने भर से बाबू का कोई पत्र न आया था. दिद्दी का पत्र आया. उन्होंने लिखा था कि बाबू सख़्त बीमार पड़े हैं, उन्हें खू़नी पेचिश हो रही है. फिर बाबू की चिट्ठी मिली, मेरे नाम. नीले काग़ज़ पर. उनकी लिखावट से लगा, उनका हाथ बुरी तरह से काँप रहा था. चंद सतरें. उन्होंने माँ का ध्यान रखने को कहा था. अपनी समझ में उन्होंने यह अंतिम पत्र भेजा था.

फिर दिद्दी का तार मिला, माँ को कलकत्ता पहुँचने का बुलावा. माँ और मैं हाबड़ा स्टेशन पर उतरकर, दिद्दी का घर शहर बाहर घूघूडाँगा में होने से, सीधे टीवड़ावाला की   धर्मशाला पहुँचे.

बाबू थे नहीं, चैकीदार ने बताया, कई दिन बाद आज बाहर निकले हैं.

कोई एक घंटे प्रतीक्षा करने के बाद फाटक पर बाबू दिखलाई दिए, लड़खड़ाते पैरों घीरे-धीरे आते हुए. वह तिवारी के यहाँ भोजन करने गए थे. उन्हें स्वयं इसका भान न था कि उनकी लुंगी में खू़नी पाख़ाना लगा है! रास्ते में उन्हें दस्त हो गया था. रेंगते हुए अपने कमरे में पहुँचे और बिस्तर पर गिर गए - बेहोश होकर.

दिद्दी के यहाँ फ़ोन न था. रहती थीं वह डमडम हवाई अड्डे के रास्ते में, एकदम गाँव जैसे स्थान पर, बी सी राय के कारख़ाने के क्वार्टर में - जीजा वहाँ स्टोर कीपर थे.

माँ ने बाबू से घर लौट चलने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया. बताया, वैद्यजी की दवा खा रहे हैं, शरीर के अंदर से सारा दोष निकल जाने पर ठीक हो जाएँगे.

हर 5-10 मिनट पर उन्हें दस्त होता, खू़नी. नीमहोशी और कमज़ोरी के मारे, अधिकतर तो उन्हें इसका पता भी न होता. कमरे के एक किनारे ठाकुरजी का मंदिर था. बालगोविंदा की पूजा क्या, उस पर कई रोज़ पहले चढ़़ाए हुए फूल सब मुरझा गए थे. बालगोविंदा की पीतल की वह मूर्ति बहुआ द्वारिका से ले आई थीं.

एक कोने में 6-7 लुंगियों का ढेर लगा था. उन्हें धोने के लिए ग़ुसलख़ाने तक जाने की शक्ति तक बाबू में न थी.

तीसरे रोज़ दिद्दी बाबू का हाल देखने आईं. उन्हें हमारे पहुँचने का पता न था. माँ ने बाबू को इलाहाबाद ले चलने का निश्चय किया. दिद्दी बोलीं, "रेल का लंबा सफ़र करने क़ाबिल यह नहीं हैं. मान लो, रास्ते में इनकी जान निकल गई तो!"

माँ ने उत्तर दिया, "यहाँ परदेस में तो अपना कोई है नहीं, वहाँ अपने लोग तो हैं!"

(अगली किस्त में जारी. फोटो में लक्ष्मीधर मालवीय अपनी पत्नी अकिको और पुत्री तारा के साथ.)

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

पढ़ना पड़ेगा । मिलना भी हो शायद ।

मुनीश ( munish ) said...

घोर नैराश्य का कालिमामय समय जो लेखक ने जिया उसे कोई न जिए । अच्छा लगता है जानकर कि आज लेखक सुखी सानंद सपरिवार हैं । इसके अलावा और क्या...