(पिछली किस्त से आगे)
मेरे पिता थे वह, और मैं 7 साल का हुआ था, तब से मेरे प्रथम दीक्षा गुरु! पिता-पुत्र के नाते बाबू के जीवन को यादकर दुःख होता है, एक मनुष्य के नाते घोर आश्चर्य. विश्वास ही नहीं होता कि अपने जीवन में एक बार भी उन्होंने यह न सोचा कि यह कैसा जीवन जी रहा हूँ मैं! मैं जा किधर रहा हूँ?
कानपुर में सिंघानिया के साझे में दूकान कोई मामूली बात नहीं. बंबई के आठ एजेंसियाँ थीं, जिनमें एक खटाऊ कपड़ा मिल की थी. जर्मन क्रुप उद्योग समूह की एजेंसी - वहाँ की बनी काँच की डिबिया अब भी यहाँ घर में कहीं पड़ी होगी. उमाशंकर दीक्षित, मेहर अली और एस के पाटिल आदि के साथ कंधा से कंधा जोड़कर काम करते कांग्रेस कार्यकर्ता थे. मालाबार हिल, विले पार्ले और जुहू के बँगलों में रिहाइश - घर में नौकर-चाकर से लेकर हज्जाम और रसोइया तक - लड़कियों को घर ही में पढ़ाने के लिए एमिली, ईसाई गवर्नेस. असाधारण रूप से धनी न हो तो ऐसा जीवन 13 बरस की कौन कहे, एक माह भी नहीं बसर किया जा सकता! एक दिन घर परिवार, सब कुछ छोड़कर लापता हो गए, ऐसे कि पीछे पलटकर न देखा.
स्वर्ग से गिरे तो भी बाप का बड़ा नाम था, उन्हें धन उधार लेने में कभी कठिनाई न हुई होगी. कुछ वर्ष के दिन वह राजस्थान के छोटे-बड़े राजा-महाराजा के मेहमान रहे. बीकानेर, चुरू, भरतपुर, डूँगरपुर आदि रजवाड़ों से मेरे नाम उनकी चिट्ठियाँ आई हैं. कई माह वह श्रीनगर रहे, महाराज के अतिथि ही रहे होंगे. काफ़ी दिन काठमांडो में. नेपाल नरेश का उन्हें भेंट किया हुआ बाघंबर उनका पूजा का आसन था. एक माह के क़रीब रामकृष्ण डालमिया के इंडिया गेट के निकट की कोठी में - वहाँ बाबू के साथ कुछ दिन मैं भी रहा हूँ. डालमियाजी हमें अपने बग़ल में बैठाकर भोजन करते थे.
बड़ा अचंभा होता है, परिचितों से धन उधार लेकर बाद में उसे न लौटाने में उन्हें संकोच भी कैसे न होता! वह भीख तो न माँगते थे, दान भी वह न था. उधार के नाम वे वह परोपजीवी जीवन जी रहे हैं, इस पर क्या उनका ध्यान न जाता रहा होगा!
उनके देहांत के बाद घर में जमा उनके काग़ज़ात, (हज़ार की संख्या में तो चिट्ठियाँ ही रही होंगी.) जो वह परदेश से घर लौटने पर छोड़ जाया करते थे, मैं जयपुर उठा ले गया. सैकड़ों व्यक्तियों के, जिनसे वह मिले होंगे, नाम-पते की कापियाँ. उत्तर भारत का कोई ही भाग ऐसा था जहाँ का पता उसमें न रहा हो.
साधारण पत्र थे, उनसे हुई भेंट अथवा उनके उपदेशों के लिए आभार जताते हुए. कुछ उलाहना देने वाले भी ख़त - उनके जिनसे लिया हुआ उधार इन्होंने लौटाया न था. ऐसों में से कुछ के नाम देख कर मेरा सारा शरीर लज्जा से थर्रा उठा.
जानसेनगंज में फ़ोटोग्राफ़र पी एन वर्मा की दूकान का क़र्ज़ 23 या 24 सौ रुपए का, बीसियों साल पुराना. पी एन वर्मा को मैं जानता था. उनका बेटा जगदीश मेरे बराबर का रहा होगा. मैं अपनी फ़िल्म वहीं धुलवाया करता था.
अगली बार जयपुर से इलाहाबाद जाने पर वर्माजी की दूकान पर जाकर इसकी चर्चा छेड़ी तो वर्माजी हँसकर बोले, "मकुंद भाई का हिसाब आप करियेगा! अरे, उनका और मेरा हिसाब तो वहाँ जाकर होगा!" छत की ओर तर्जनी दिखाते हुए वह हँसे.
एक पोस्टकार्ड था, प्रो. शिवाधारजी का. उन्होंने लिखा था कि थोड़ी सी पेंशन पर वह जीवन बसर करते हैं, 200 की राशि उनके लिए भारी रक़म है. शिवाधारजी म्योर कालेज में बाबू के अध्यापक थे - उन्होंने अँग्रेज़ी में मेरे लिखे हुए निबंध सुधारे थे. देव पर रीसर्च के दौरान दर्जनों बार उनसे मदद ली थी. इलाहाबाद जब-जब जाता, उनके दर्शन अवश्य करता. उनका उधार चुकाने को कहते हुए मेरा गला भर आया. शिवाधारजी जैसा कोई भी उत्तर देने के पहले हँस पड़ने वाला व्यक्ति, मेरा प्रस्ताव सुन कुछ देर तक वह सिर झुकाए हुए अपनी बँधी मुट्ठी को ताकते रहे, फिर इनकारी में हिलाते हुए कहा, "नहीं, जाने दीजिए."
एक कार्ड था डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का, 300 रुपयों के उधार की वापसी के लिए. बाबू के वह पुराने सहपाठी थे. दस वर्ष उन्होंने मुझे पढ़ाकर नौकरी लायक़ बनाया. मैंने उनसे कहा, "आपके आर्शीवाद से मैं अब कमाने लगा हूँ, यह ऋण मुझे उतारने दीजिए."
सदा की-सी अपनी लेसर दृष्टि से मुझे देखते हुए थिराए स्वर में धीरेन्द्रजी ने कहा, “I don't see, how you are related with this matter.”
(जारी)
2 comments:
shandar
बड़े लोग थे वे सब । उधार लेने, देने और चुकाने की इच्छा करने वाले सब के सब । आज इनसे लोगों की कल्पना ही हो सकती है।
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