(पिछली किस्त से आगे)
आदमी हो तो आदमी की तरह रहो न ! यह क्या धज बना रखी है तुमने अपनी ! छोटे-छोटे बाल उगाए रखते तो चंचल माथे पे. नुची मूँछों का ठूँठ आलम तुम्हारे मुखमंडल को प्राकृत और अपभ्रंश के संयुक्त व्याकरण-जैसा सजा रहा है ! कपड़ों का यह हाल कि भदेसपन और कंजूसी का सनातन इश्तिहार बने घूमते हो ! चर्चगेट हो या चौरंगी, कनॉट प्लेस हो या हजरतगंज, सर्वत्र तुम्हारी यही भूमिका रहती है . आधुनिकता या माडर्निटी को अँगूठा दिखाने में तुम्हारी आत्मा को जाने कौन-सी परितृप्ति मिलती है ! ओ आंचलिक कथाकार, तुम्हारी आँखें सचमुच फूटी हुई हैं क्या ? अपने अन्य आंचलिक अनुजों से इतना तो तुम्हें सीख ही लेना था कि रहन सहन का अल्ट्रामॉडर्न सलीका भला क्या होता है . ओह, तुम मास्को-पीकिङ नहीं पहुँच सके हो अब तक ?... ओफ्फोह माई डियर नागा बाबा! व्हाट ए पिक्यूलियर टाइप ऑफ पुअर फेलो यू आर!... प्राग ही देख आए होते! प्राइम मिनिस्टर की कोठी के सामने, तीन मूर्ति के क़रीब एकाध बार हंगर-स्ट्राइक मार दी होती, तो फिर बुडापेस्ट देखने का तुम्हारा भी चांस श्योर था...और अब तो ससुर तुमने अपने आपको डुबो ही लिया है. पीकिङवालों को इस क़दर गालियाँ देने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी! देख लेना, कल या परसों फिर से ‘भाई-भाई’ के वही नारे मुखरित होंगे और चुगद की तरह फीकी-डूबी निगाहों से चीनी-गणतंत्र के दूतावास की बाहरी प्रकाश-मालाओं को तुम देखा करोगे ! ओ अछूत-औघड़ अदूरदर्शी साहित्यकार, तुम सचमुच ही भारी बेवकूफ हो ! तुमने माओ-त्से-तुङ्, लिउ-शाओ-चि और चाऊ-एन-लाई को बुर्जुआज़ी से उधार ली हुई गालियाँ दी हैं; कोई ‘सच्चा’ कम्युनिस्ट तुम्हें माफ़ नहीं करेगा. बंगाल के तरुण कम्युनिस्टों को यदि तुम्हारी ये कविताएँ अनूदित करके कोई सुना दे, तो वे निश्चय ही तुम्हारे लिए नफ़रत में डूबे हुए दो शब्द कहेंगे. बस दो ही शब्द...
जी हाँ, दो ही शब्द कहेंगे !
बतलाओ तो भला क्या कहेंगे?
--प्रतिक्रियावादी कुत्ता !
आईना घूम गया है यह सुनकर... वह चक्कर खा रहा है... चक्कर-पर-चक्कर... और एक चक्कर .. और एक चक्कर !
अरे, कब तक चक्कर काटेगा आईना ?
ओ भाई आईने, यह तुझे क्या हो गया !
इत्ते-से काम नहीं चलेगा. अभी और कुछ देर तक अपन आमने-सामने बैठेंगे. भई, तू घबरा क्यों उठा? किसी ने तुझे कुत्ता कह दिया? प्रतिक्रियावादी कह दिया किसी ने?...तो, क्या हुआ? आखिर मैंने भी तो उनके इष्टदेव को गालियाँ दी हैं न? तू घूँसे लगायेगा, तो दूसरा चुप बैठा रहेगा क्या?
वाह रे घूंसेबाज!
आईना एक बार और घूम गया है. अबकी, शायद परिहास की भंगिमा में...
-- अपनी शक्ल तो देखो !
-- क्यों, क्या हुआ है मेरी शक्ल को ?
-- पास-पड़ोस में किसी के यहाँ अगर आदमकद बड़ा आईना हो, तो कभी-कभी वहाँ पहुँचकर अपने शरीर की पूरी परछाईं देख आया करो न !
-- हट, भाग यहाँ से ! बदतमीज़ कहीं का !
-- भारी पहलवान हो न, घूँसे का ख़याल तभी तो आया है...!
मन-ही-मन गोरेगांव पहुँच गया हूँ क्षण-भर के लिए . डॉ. शुक्ला के क्वार्टर में आदमक़द आईना है .
अभी उतना भुलक्कड़ नहीं हुआ हूँ...
अरे, मैं तो धनुष की तरह बिलकुल ही झुक जाऊँगा कुछ वर्षों में ! हाय, मैं तो बुढ़ापे का गेट-पास पाने का हक़दार हो चुका हूँ... सिर के बाल खिचड़ी दिखते हैं . मूँछों का भी यही हाल है . हथेलियाँ उलटाओ, तो पतली नीली नसों के जाल स्पंदित नज़र आते हैं . सीने के ऊपर गले के दोनों छोर पर नीचे की तरफ़ गड्ढे किसी की भी हमदर्द निगाहों को अपनी ओर खींच लाएँगे...
केशवदास जी ने अपना ऐसा ही ढांचा देखकर स्वगत कहा होगा--
केसव, केसन अस करी जस अरिहू न कराहिं.
चंद्र बदनि मृगलोचनी ‘बाबा’ कहि-कहि जाहिं..
मगर क़सम ईमान की, शपथ जनता-जनार्दन की, मुझे तो अपना यह ‘बाबा’ संबोधन बेहद प्रिय है . किशोरी हो चाहे युवती, कोई भी चंद्रबदना मृगनयनी अपने राम को ‘बाबा’ कहती है, तो वात्सल्य के मारे इन आंखों के कोर गीले हो जाते हैं. अपनी प्रथम पुत्री जीवित रहती तो सत्रह साल की होती...
शादी करने के बाद घर से भागा न होता, तो हमारी यह चंद्रवदनी-मृगलोचनी तीस-बत्तीस वर्ष की होती .
पके बालोंवाले आचार्य केशवदास का धर्म-संकट कुछ और ही प्रकार का रहा होगा. बुढ़ापे में भी छिछोरपन जिनका पिंड नहीं छोड़ता, हमारे यह बुजुर्ग निःसंदेह उसी कोटि के थे. हाँ, यह भी हो सकता है कि केशवदास को बदनाम करने के लिए किसी अन्य ईर्ष्यालु कवि ने उनके नाम पर यह दोहा लिख मारा हो... फिलहाल आचार्य केशवदास तो महाकाल की अतल गोद में से बाहर आने से रहे, उनकी ओर से शायद कोई अन्य आधुनिक आचार्य मुझे बतलाएँगे, उक्त दोहा क्षेपक है. प्रतीक्षा में रहूगा.
मगर अपनी टेढ़ी कमर का क्या होगा?
आत्मा को सबल बनाओ, नागा बाबा, देह की फ़िक्र क्यों करते हो, प्यारे ! ‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः’ गीता का एक भी श्लोक याद न रहा?
तो राकेशवाला आईना ठीक ही कहता है, मैं बूढ़ा हो गया हूं. जवाबी हमला अपनी तरफ़ से अब शब्दों तक ही सीमित रहेगा?
कोई परवाह नहीं! शब्द को अपने पूर्वजों ने वज्र से भी बढ़कर शक्तिशाली माना है...
हूं... खैर, ‘हारे को हरिनाम’ ही सही.
शब्दों की गोलाबारी ज़िंदाबाद! शब्द-ब्रह्म की यह बारूद हमारे राष्ट्र की अपनी वस्तु है... एटम बम या मेगाटन कोई भी अक्षर शक्ति का सामना नहीं कर सकता !
अक्षर शक्ति के द्रष्टा, शब्द ब्रह्म के उद्गाता...हम भारतीय साहित्यकार सप्तर्षियों के वंशधर हैं . सुन ले रे अलादीन के आईने ! जो भी हमारा मखौल उड़ाएगा; उसकी कलेजियाँ टूक-टूक हो जाएँगी !
ख़बरदार ! हमें ताने न मारना, अहमक...
मुझे तूने डरपोक समझ रखा है?
माफ़ कीजिये, बाबा, आप क्या किसी से नहीं डरते हैं ?
वाह, डरता क्यों नहीं ! दरअसल डरना भी उतनी ही स्वाभाविक क्रिया होती है, जितनी कि डींग मारना !
तो आप किससे डरते हैं ?
अपने पाठकों से डरता हूँ . बलचनमा से डरता हूँ, वरुण के बेटों से डरता हूँ, दुखमोचन और रतिनाथ और वाचस्पति और पद्मानंद और मोहन माँझी से डरता हूँ . कंपाउंडर और उस बहादुर बीबी का ख़याल आते ही माथा दर्द करने लगता है कि बेचारी के प्रति मुझसे भारी अन्याय हो गया है . रात को जब लोग सो जाते हैं, तब अक्सर मेरा बालचंद आकर सिरहाने खड़ा हो जाता है . अभी उस रात चौपाटीवाले उस कमरे के अंदर बलचनमा फलाँगकर चला आया, तो पैरों के धमाके से मेरी नींद उचट गई.
सुरती फाँकेंगे, काका ? आपके लिए ख़ास तंबाकू लाया हूँ जटमलपुर के मेले से. वही सरइसावाला बड़ा पत्ता है. सूंघकर देखिये न ?
आप तो हमें भूल गए हो काका ! नहीं ? मैं झूठ कहता हँ ?
आप चुप क्यों हो, काका ?
नहीं खोलोगे ज़बान अपनी ?
अच्छा, न खोलो...
(जारी)
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