Friday, May 18, 2012

बाबा के साथ जुड़ा रहा., आज भी जुड़ा हूं




बाबा नागार्जुन का एक और संस्मरण देहरादून में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र और कवि-उपन्यासकार अतुल शर्मा के हवाले से –

प्रतिष्ठित जनकवि बाबा नागार्जुन उम्र की जिस दहलीज पर मिले, उस समय स्वाभाविक थकान घेरे रहती है. लेकिन बाबा नागार्जुन इसके अपवाद रहे. मैंने पहली मुलाकात में ही मस्ती, घुमक्कड़ी फक्कड़पन और ठहाकों से घुली मिली अद्भुत गहरी जि‍जि‍वि‍षा अनुभव की.

डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून का यूनियन वीक. एक तरफ चुटकुलेबाजों का तथाकथित कवि सम्मेलनीय मंच और दूसरी तरफ युवाओं से भरे हॉल में बाबा नागार्जुन का इंतजार. यह जनपक्षीय संदेश देने के लिए किया गया कार्यक्रम था. साहित्य का जनसंघर्षों के साथ भीतरी रिश्ता नागार्जुन जैसे प्रतीक को लेकर किया गया आयोजन था.

बाबा देहरादून पहुंचे. कुछ समय बाद उन्हें एक बड़े होटल में ठहरा दिया गया. मोटा खादी का कुर्ता, ऊंचा पजामा, खि‍चड़ी दाढ़ी, सिर से गले तक मफलर और मफलर के ऊपर टोपी. मोटा खादी का कोट, हाथ में छड़ी. एक दरी में छोटा सा बिस्तर रस्सी से बंधा था. एक झोला था जिसमें किताबें व दवाई की बोतलें थीं. सहज देहाती युगपुरुष बाबा नागार्जुन भव्य होटल के रंगीन पर्दों, दीवारों, खिड़कियों और फर्नीचरों के बीच चल रहे थे. पीछे युवाओं की उत्साही भीड़ थी. एक सुविधाजनक सोफे में बैठकर उन्होंने अपनी सांसों को संयत करने के लिए पानी मांगा. एक नजर युवाओं की तरफ डाली और मुस्कुफराये. फिर पैर सोफे पर चढ़ा कर बैठ गए. छात्र संघ अध्यक्ष जो उन्हें सादतपुर से गाड़ी में लाए थे, उन्हें इशारे से बुलाया और कहा, ‘‘अतुल को बुला सकते हो?’’

मेरे पास फोन आया- ‘बाबा देहरादून पहुंच गए हैं. आपको याद कर रहे हैं.’ कुछ ही देर बाद मैं बाबा के सामने था. वह मेरा हाथ पकड़कर बैठ गए. हंसे और कुछ बातें कीं. फिर धीरे-धीरे उठे, अपना छोटा सा रस्सी बंधा बि‍स्तर सामने रखवाया, झोला कंधे पर टांगा और छड़ी ढूंढने लगे. न मैं कुछ समझ पाया और न कोई और.

‘‘अतुल के घर जाऊंगा.’’ विनम्रता और दृढ़ता के साथ बाबा ने कहा. सब चौंके. उन्होंनें मेरा हाथ पकड़ा. सब बाहर की तरफ चलने लगे. न कोई विवाद न कोई संवाद. मेरी क्या हिम्मत मैं कुछ कहूँ.मेरे लिए तो यह अप्रत्याशित सौभाग्य था.

‘‘वहीं रहूंगा.’’ बाबा ने निर्णायात्मक स्वर में कहा. बाहर निकल छात्रसंघ अध्यक्ष ने मुझे अलग बुलकर कहा, ‘‘एक- डेढ़ घंटे बाद कार्यक्रम है. बाबा को वहां भी पहुंचना है.’’

‘‘मुझे बताओ मैं क्या कर सकता हूं ?’’ मैंने कहा.

‘‘मैं आपके साथ चलता हूं और साथ ही कॉलेज ले आयेंगे.’’ छात्रसंघ अध्यक्ष ने कहा. गाड़ी में बाबा बहुत खुश थे.

हम जहां पहले रहते थे, उसके सामने बजरी बिछा एक लॉन था. और उसके आसपास पिताजी के लगाए बावन तरह के गुलाब, कैक्टस, बोगेनवैलिया, कुछ सब्जियां और अन्य पौधे लगे थे. जाफरी वाला मकान, टीन की छत, नींबू के पेड़ से सटा हुआ एक कमरा. वहां रखी चारपाई और दो कुर्सियां. बाबा वहीं बैठे, फिर लेट गए. मैंने परिवार में अम्मा जी, रीता, रेखा और रंजना को मिलवाया. वह उठकर बैठ गए. एकदम बोले, ‘‘अतुल, मुझे तो मेरा परि‍वार मि‍ल गया.’’ अम्मा जी से कहा, ‘‘थोड़ी सी खिचड़ी खाऊंगा.’’ हमें बहुत अच्छा लग रहा था, पर छात्रसंघ पदाधिकारियों की धड़कनें बहुत बढ़ रही थीं.

बाबा मेरा हाथ पकड़कर बाहर आये. और क्यारियों में घूमने लगे. अपनी छड़ी से इशारा करते हुए बोले, ‘‘यह तो सर्पगंधा है. रक्तचाप की अचूक औषधि. यह कैलनडूला एन्टीबायटिक.’’ ऐसे कई पौधे उन्होंने गिना दिये. वह कहने लगे, ‘‘लगता है बहुत जानकार आदमी थे शर्मा जी.’’ (शर्मा जी यानी स्वतंत्रता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा प्रेम). काफी देर गुलाब को देखते रहे. और फिर कमरे की ओर जाने लगे. इतनी देर में खिचड़ी बन चुकी थी. उन्होंने बहुत थोड़ी-सी खिचड़ी और सब्जी खाई. और फिर मुझसे पूछा, ‘‘कितनी देर में है आयोजन?’’ मैंने कहा, ‘‘शुरू ही होने वाला होगा.’’ ‘‘तो फिर चलते हैं वहीं पर, सामान यहीं रहेगा. मैं भी यहीं रहूंगा.’’ मैंने न जाने क्यों पूछ लिया, ‘‘यहां कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’ इस पर वह नाराज हो गए. उन्होंने कहा, ‘‘खबरदार जो मेरे घर को असुविधाजनक कहा.’’

डी.ए.वी. कॉलेज हॉल- बाबा के आने से खलबली मच गई. राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत यात्रा और निराला के समकालीन आपातकाल में सक्रिय काव्यमय विद्रोह करने वाले मैथिली साहित्य में साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त हिंदी के वरिष्ठतम कवि, गद्यकार व आन्दोलनकारी बाबा नागार्जुन बार-बार मंच से यही कहते रहे कि- जन से होते हुए जन तक पहुंचना ही लक्ष्य है. दिल्ली से उनके साथ आये महेश दर्पण और देहरादून के कवियों के साथ उन्होंने काव्यपाठ किया. ‘मंत्र’ कविता सुनाई. छात्र-छात्राओं के साथ घंटों बैठे रहे. रिश्ते जोड़ लिये. सबको हमारे घर का पता देते रहे. और अद्भुत निरन्तरता के संवाद बाबा नागार्जुन से मिलने दो दिन तक हमारे यहां मेला लगा रहा. चाय का बड़ा भगोना रेखा ने चढ़ा दिया था. युवा और वृद्ध, साहित्यकार और रंगकर्मी अलग-अलग सोच के राजनीतिक लोगों से हमारा घर भरा रहा. बाबा क्या आये जश्न हो गया. तभी तो वे जनकवि हुए.

अगले दिन मेरे आग्रह पर महादेवी पीजी कॉलेज के हिन्दी विभाग में भी उन्होंने शिरकत की. रात को सोते समय कहने लगे, ‘‘आज मेरी पांच हजार से ऊपर फोटो खिंची होंगी. ये सोच रहे हैं कि मैं इतनी जल्दी चला जाऊंगा. इन्हें पता नहीं कि अभी बहुत दिन जियूंगा.’’ वह ठहाका मार कर हंसे. मैंने मन ही मन सोचा, बाबा नागार्जुन कभी समाप्त हो ही नहीं सकते. वह हमारे यहां कई दिन तक रहे.

जयहरि‍खाल, पौड़ी गढ़वाल- बाबा का पिचतरवां जन्मदिवस. वाचस्पति के यहां आकर वह हर साल रहते थे. उसका फोन आया कि ‘‘बाबा का पिचतरवां जन्मदिवस है. तुम्हें आना है.’’ मैं यह अवसर कैसे चूकता. लैंसडाउन के पास छोटी-सी बस्ती जयहरिखाल पहुंच गया. वहां वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित बाबा नागार्जुन की काव्यपुस्तक ‘ऐसा क्या कह दिया मैंने’ का विमोचन हुआ. शेखर पाठक, गिर्दा आदि मौजूद थे.काव्यगोष्ठी हुई. बाबा ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अकाल’ सुनाई. और लोगों ने भी काव्य पाठ किया. मैंने दो जनगीत सुनाए.  उसकी एक पंक्ति पर बाबा काफी देर तक बोले. यह मेरे लिये उत्साहजनक था. पहली पंक्ति थी-

‘ये जो अपनी  रक्त शिरायें हैं सारी पगडंडियां गांव की हैं’

और दूसरी कविता की पंक्ति थी- ‘जिस घर में चूल्हा नहीं जलता, उसके यहां मशाल जलती है.' मेरी इन दोनों पंक्तियों पर काफी देर तक चर्चा की. जयहरिखाल को केन्द्र मान कर कई कविताएं लिखी थीं जो गढ़वाल विश्वविद्यालय के कोर्स में पढ़ाई जाती हैं.

नैनीताल- नागार्जुन, गिर्दा और मैं नुक्कड़ कवि सम्मेलन में काव्यपाठ कर रहे थे. बाबा ने एक पंक्ति सुनाई- ‘एक पूत भारत माता का. कंधे पर है झंडा. पुलिस पकड़ कर जेल ले गई. बाकी रह गया अंडा.’ यह सबको बहुत पसंद आई. साहित्य समझ भी आये और परिवर्तन की दिशा में कार्य भी करे. यह मकसद ठीक लगा. उन्होंने चलते समय अपनी घड़ी देते हुए कहा, ‘‘अतुल, यह लो मैं तुम्हें समय देता हूं.’’ यह कहकर वह खुद ही ताली बजाकर बच्चों की तरह खिलखिलाये और बाबाओं की तरह चले गये मुड़कर नहीं देखा.

ये दृश्य कभी भूलता नहीं. ऐसे बहुत से संस्मरण मेरे पास हैं जो नैनीताल, हल्द्वानी, कौसानी, पौड़ी, अल्मोड़ा, देहरादून ही नहीं, बल्कि दिल्ली तक फैले हुए हैं. बहुत लोगों में बाबा इस तरह से जीवित हैं.

दिल्ली विश्वपुस्तक मेला. एक स्टॉल पर बाबा बैठे हैं. वह किसी पुस्तक का विमोचन करने को तैयार हैं. उनसे मिले बहुत वर्ष हो गये थे. सोचा कि पहचान भी पायेंगे कि नहीं. उनके पास गया और प्रणाम किया. वह किसी और से बात करने लगे. मैं चलने लगा. उन्होंने लपक कर मेरा हाथ पकड़ा, ‘‘अरे, इतनी जल्दी क्या है? देहरादून जाना है क्या?’’ वह फिर चिरपचित हंसी के साथ मिले. अच्छा लगा कि भीड़ भरी दुनिया में अभी कुछ लोग ऐसे हैं जो मन से जुड़ते हैं. उन्होंने गढ़वाल की कई बातें पूछीं. एकएक दिल्ली के नामवर लोगों ने उन्हें घेर लिया. भीड़ के पीछे खड़ा मैं भी बाबा के साथ जुड़ा रहा. आज भी जुड़ा हूं.

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