Tuesday, May 1, 2012

बाबू - ५


(पिछली किस्त से आगे)

मैं भूल से ऐसा सोचता था कि यह असाधारण उन्माद बहुआ के रक्त से हमारे परिवार में आया. नहीं, हमारे ही रक्त में लाल कणों के साथ सफ़ेद कणों के स्थान पर घुला हुआ है, गंधक का तेज़ाब. बाबूजी, बलदेव ताऊ और चाचा को छोड़ (स्वयं मुझे भी शामिल करते हुए!) कोई चैथा व्यक्ति ऐसा नहीं जो जीकल और हाइड न हो. इस परिवार के लोग मुझे कारामज़ोव के भारतीय अवतार लगते हैं! कारामज़ोव की 'उत्पत्ति' पूर्वी आर्थोडाक्स रूसी गिरजे द्वारा प्रचारित 'पाप' चेतना से हुई - जितना अधिक 'पाप' करोगे, गिरजे के पादरी के माध्यम से वह सब ईश्वर अपने ऊपर ओढ़ लेगा. मेरे परिवार में भी घोर असाधारणता - उसे चाहें तो पागलपन भी कह सकते हैं! - धार्मिकता के अतिरेक का परिणाम है. है कोई एक भी मारवाड़ी व्यापारी जिसने बाबू के समान बंबई में रहते हुए मालगाड़ी से मँगाकर पिया है सिर्फ़ संगम का गंगा जल - हफ़्ते दस दिन नहीं, तेरह साल! कितने सौ कि हज़ार भारतीय उच्च शिक्षा पाने को इंग्लैंड या अन्य देशों में गए, वहाँ रहे, मगर उनमें से कितने ऐसे थे जो वहाँ अपने आहार के लिए अन्न ही नहीं पीने के लिए गंगा जल तक ले गए होंगे. यह अति तीव्र प्रखर धार्मिक ज्योति, चंद्रमा के पीछे के सुई से भी न भेदा जा सकने वाला गाढ़ा अंधकार पैदा करती है. द्रौपदी घाट की एकड़ों लंबी चैड़ी ज़मीन कृष्णा ताऊ को कैसे मिली, मैंने माँ के मुँह से सुना है. ब्रजमोहन मामा ने ग़लत न कहा था, "बेटा, तुम्हारे परिवार में सब आधे पागल पैदा होते हैं, महामनाजी से लेकर छोटा बच्चा तक. तुम आधे से ज़्यादा पागल हो." क्योंकि मैं रामकुमारजी से लड़कर इलाहाबाद युनिवर्सिटी को लात मार, जयपुर जा रहा था.

मालाबार हिल से शुरू कर, मोती बाग़, दिल्ली में सेक्रिटेरियट क्लर्क के घर (उनका पता जो मधु को बचपन में कंठस्थ था, अब तक मेरे पास नोट है, लक्ष्मी देवी, एफ़ 42 मोती बाग़ 2, दिल्ली 21) और यहाँ से शिमला की अनाम धर्मशाला तक.

अपने पिता के जीवन पर हमेशा भर्तृहरि का यह श्लोक मेरे ध्यान में आता है -

शिरः शार्वं स्वर्गात्पतति शिरसस्तत्क्षितिधरम्
महीध्रादुत्तुंगादवनिमनेश्चापि जलधिम्..
अधो गंगा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः..

(गंगा नदी स्वर्ग से गिरी शिव के मस्तक पर, वहाँ से हिमालय की चोटी पर, फिर मैदान में नीचे, और भी नीचे बहती हुई कम होती गई और अंत में सैकड़ों धाराओं में टूटकर खारे समुद्र में मिल कर ग़ायब हो गई. जो व्यक्ति विवेक बुद्धि खोता है, उसका पतन भी ऐसे ही सौ रास्ते से होता है. )

आगरे में मेरे पास करने को कुछ था नहीं. एक बार गोकुल मामा ने अस्पताल अपने साथ घुमाया. अपना क्लास दिखलाया. सिनेमा हालनुमा क्लास, सामने की दीवार पर बड़ा-सा ब्लैकबोर्ड. एक कमरे में टेबुलों पर पूरे-आधे शव; कुछ पर अस्थि खंड.

दिन भर शहर में पैदल घूमता. आगरा कालेज से लेकर क़िले और ताज महल तक. एक बार सिकंदरा तक गया था. एक बार यमुना पार जाकर, लंबे रास्ते घूम कर ताज महल के दूसरी ओर के किनारे तक. लौटते समय बीच में शाम हो गई. अस्पताल पहुँचने पर माँ की डाँट खाई.
कोई एक माह बाबू वहाँ रहे होंगे. स्वस्थ होकर वहाँ से इलाहाबाद आए, कुछ दिन घर रहे. फिर कहीं चले गए ...

एक बूढ़ा जहाज़ तख़्तों की सारी हड्डी पसलियों से चर चर चरमराता हुआ भी ऊँची समुंदरी लहर के सामने अपना माथा एकदम ऊपर उठाकर लहर पर सरकता हुआ चढ़ता, हाँपता हुआ उस पर से उतरता है, फिर अगली ऊँची लहर ... ऐसी ही रही मेरे पिता की जीवन यात्रा, अंत तक!

जयपुर में था, उनका पोस्टकार्ड मिला कि वह अमुक तारीख़ को जयपुर आ रहे हैं. जानता था, घर वह न आएँगे. मैं युनिवर्सिटी की नौकरी करने चला, वह नौकरी करने के सख़्त खि़लाफ़, लगे हवाले देने. खीझकर मैंने उनकी बात काटी, "तुम्हारे बाप जितने बड़े आदमी थे, मेरे बाप उतने बड़े आदमी नहीं हैं." इसका बदला लेने के लिए मेरे घर वह एक बार भी न आए - जयपुर में आने पर भी. वह जिन वैद्यजी के यहाँ ठहरते थे, वह ठिकाना मुझे मालूम था. मिलने गया. पिछली बार दिल्ली में मिला था, तब की तुलना में काफ़ी दुबले हो गए थे; दायाँ पैर फ़ाइलेरिया का, अधिक फूला हुआ. हाल पूछने पर बोले, सब ठीक है.

पाँचवें रोज़ पहली तारीख़ को मुझे युनिवर्सिटी से वेतन मिला, साढ़े चार सौ रुपए. अगले दिन सुबह-सुबह राजस्थान बैंक जाकर वह सब निकाला. फिर क्लर्क से पूछा खाते में और कितना बचा है. दो सवा दो सौ रुपए थे. दस रुपए छोड़ सारा पैसा निकलवा लिया.

यह तुम्हारे इकलौते बेटे की मेहनत की कमाई है. तुम ग़ैरों के आगे हाथ क्यों फैलाओ, यह ले लो, और घर चल कर गृहस्थी सम्हालो - यह घर गृहस्थी तुम्हारी नहीं तो और फिर किसकी है! मधु चार साल की हो गई. उसका नाम तुम्हीं ने तो रखा था न!

रास्ते भर मन ही मन गुनता रहा, मिलने पर उनसे कहने को. घाट दरवाज़े के अंदर दाएँ हाथ दूसरी कि तीसरी गली में घुसते ही एक मंदिर, उसके बग़ल वाला घर वैद्यजी का. बैठक में वह थे, वैद्यजी, और उनके चार पाँच मरीज़. मेरे नमस्कार के उत्तर में वह बोले, "पंडितजी तो चले गए, कल रात की गाड़ी से." मैंने यह भी न पूछा कि कहाँ!

हर साल 20 नवंबर आने पर मैं याद करता हूँ, आज के पाँचवें रोज़ मैं आख़िरकार उन्हें पकड़ पाया, जब वह अपनी निष्प्राण देह शिमला, स्नोडेन हास्पिटल की मार्चुअरी में छोड़कर फिर चले गए थे. मार्च सन् 41 में भी, जब मैं सात साल का था, उन्होंने घर छोड़ा था. रात 1 बज चुका था, फिर भी मैं जाग रहा था.

यह पिता के साथ मेरी दौड़ है, समानांतर और मरण पर्यंत ...

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यह संस्मरण यूं तो 1953 के आसपास से शुरू होता है और 1961 में बाबू की आत्महत्या पर आकर ठहर जाता है, लेकिन हरदम इस कालावधि के पार - आगे और पीछे - झाँकता रहता है. इसमें आने वाले व्यक्तियों के हवाले यहाँ साफ़ किये जाते हैं:


बाबूजी : पं. मदन मोहन मालवीय, बाबू के पिता और मेरे दादा 
बहुआ : बाबूजी की पत्नी, मेरी दादी 
चाचा : राधाकांत मालवीय, बाबूजी के दूसरे बेटे, मेरे चाचा
बाबू : मुकुंद मालवीय, बाबूजी के तीसरे बेटे, मेरे पिता 
छोटचा : गोविन्द मालवीय, बाबूजी के चौथे और सबसे छोटे बेटे, पूर्व सांसद, उपकुलपति, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी
कृष्णा ताऊ : कृष्णकांत, बाबूजी के भतीजे, लेखक व सम्पादक
बलदेव ताऊ : क़रीबी रिश्तेदार, नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य के. डी. मालवीय के पिता
दिद्दी : मेरी बड़ी बहन, आयु में 18 साल बड़ी
मधु : मेरी तीन बेटियों में सबसे बड़ी
ब्रजमोहन मामा : मेरे बड़े मामा, एग्जे़क्यूटिव ऑफ़िसर (1921-43) के बतौर क़रीब चौथाई सदी तक इलाहाबाद के बेताज बादशाह कहलाए
गोकुल मामा : गोकुल नारायण, आगरा मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल व गवर्नर जनरल के निजी चिकित्सक

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

दुःखद । त्रासद । नैराश्य से परिपूर्ण सत्यकथा ।