Sunday, June 10, 2012

क्या तुम श्रृंगार को फिर से बसाना चाहती हो : आलोक धन्वा की नई कवितायेँ - 3



श्रृंगार

तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो!

क्या तुम जान बूझ कर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम श्रृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?


नन्हीं बुलबुल के तराने
एक नन्हीं बुलबुल
गा रही है
इन घने गोल पेड़ों में
कहीं छुप छुप कर
गा रही है रह-रह कर

पल दो पल के लिए
अचानक चुप हो जाती है
तब और भी व्याकुलता
जगाती है
तरानों के बीच उसका मौन
कितना सुनाई देता है !

इन घने पेड़ों में वह
भीतर ही भीतर
छोटी छोटी उड़ानें भरती है
घनी टहनियों के
हरे पत्तों से
खूब हरे पत्तों के
झीने अँधेरे में
एक ज़रा कड़े पत्ते पर
वह टिक लेती है

जहाँ जहाँ पत्ते हिलते हैं
तराने उस ओर से आते हैं
वह तबीयत से गा रही है
अपने नए कंठ से
सुर को गीला करते हुए
अपनी चोंच को पूरा खोल कर

जितना हम आदमी उसे
सुनते है
आसपास के पेड़ों के पक्षी
उसे सुनते हैं ज़्यादा

नन्हीं बुलबुल जब सुनती है
साथ के पक्षियों को गाते
तब तो और भी मिठास
घोलती है अपने नए सुर में

यह जो हो रहा है
इस विजन में पक्षीगान
मुझ यायावर को
अनायास ही श्रोता बनाते हुए

मैं भी गुनगुनाने को होता हूँ
पुरानी धुनें
वे जो भोर के डूबते तारों
जैसे गीत!

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

नये भावों में डुबकी लगाती कल्पना...

अरुण अवध said...

इन कविताओं मे मन के बिछड़े कोमल और सहज भावों का बिरहा है ! भीतर तक स्पर्श करती हैं रचनाएँ !

वंदना शुक्ला said...

लाज़वाब कवितायेँ ....

Amit Manoj said...

pata nahi kyon mujhe lgta hai ki aalok ji ko to or bhi sunder kavitayen likhni chahiye. naam bada hai thik hai, pr wh kavita hai kahan?

suraj singh said...

Saundarya ka bodh karati bhavpoorn kavita.