Thursday, June 21, 2012

ग़ज़ल-गायकी के मीर को जसम का सलाम



ग़ज़ल-गायकी के मीर

(मेहदी हसन साहेब को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि )

प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच की और से जारी  

१८ जुलाई १९२७ को राजस्थान के झुंझनू जिले के लूणा गाँव में मेहदी हसन पैदा हुए. मेहदी साहब का बचपन तंगहाली में गुजरा पर संगीत के मामलेमें वे शुरू से ही धनी रहे. उनके परिवार की पन्द्रह पीढियां संगीत से जुडी थीं. संगीत की शुरुआती तालीम उन्होंने अपने पिता उस्ताद अजीम खान औरचाचा उस्ताद इस्माइल खान से ली. दोनों बढ़िया ध्रुपदिये थे. बंटवारे की टीस उन्हें हमेशा ही सालती रही. अपनी जमीन से विस्थापित मेहदी साहब का परिवार पाकिस्तान चला गया. पाकिस्तान जाने के बाद जिंदगी चलाने के लिए उन्हें काफी मेहनत मशक्कत करनी पड़ी. पर जिंदगी चलती रही.

१९५७ से १९९९ तक गज़ल के इस महान फनकार ने ग़ज़ल-गायकी के प्रतिमान स्थापित किए और हमारे उप-महाद्वीप में विकसित इस महान साहित्यिक विधा को लोकप्रियता के चरम तक पहुंचाया. उन्होंने सार्वजनिक स्तर पे पिछले १२ सालों से गाना छोड़ दिया था. उनका आख़िरी अल्बम २०१० में 'सरहदें' नाम से आया था. यह लता मंगेशकर के साथ उनका युगल एल्बम था. ८४ बरस की उमर में पिछले १३ जून को उनका निधन हो गया. इस महान कलाकार को जसम की श्रद्धांजलि !

मरुभूमि में बहुधा बहुत चटख रंग के फूल खिलते हैं. मेहंदी साहब की गायकी भी ऐसी ही थी. जब वे बात करते थे, तो एक शाइस्ता राजस्थानी आदमी का बोल -चाल का लहज़ा दिखता था. पाकिस्तान में बसने के छः दशक बाद भी पंजाबी के वर्चस्व ने उनके व्यक्तित्व के किसी भी हिस्से को प्रभावित नहीं किया था. न तलफ्फुज को, न लहजे को और न वेश-भूषा को ही. रहते भी वे कराची में थे, जहां आम-तौर पर मुहाजिर रहते आए हैं. ध्रुपदिये पुरखों के साथ-साथ मरुभूमि के विराट विस्तार में फैलता 'पधारो म्हारे देस' में मांड का दुर्निवार स्वर उन्हें बार बार अपनी जन्मभूमि की और खींचता था. क्लासकीय के साथ-साथ लोक की राग-रागिनियां भी उनकी गायकी के अहसास में शामिल रहीं.

मेहदी हसन ने जिस दौर में गाना शुरू किया, वह १९५० का दशक उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर और मुख्तार बेगम जैसों का था. गज़ल गायकी के इन धुरंधरों के सामने अपनी जगह बना पाना काफी मुश्किल था. पर मेहदी साहब के पास कुछ और था, ध्रुपद की तालीम और ग़ज़लों का बेशकीमती खजाना. यह थोड़ा मुश्किल जोड़ था. ध्रुपद की बंदिशों से एकदम अलग गज़लें ख्याल की बंदिशों के रूप में इस्तेमाल होती रही है. मेहदी साहब ने अपनी ध्रुपद विरासत के आधार पर गज़ल गायकी की नयी आवाज़ विकसित की. बेगम साहिबा गज़ल की उस परम्परा से आती थीं, जो मुग़ल दरबार और दीगर रियासती दरबारों से निकली-बढ़ी थी. वे गज़ल की ख्याल गायकी के शीर्ष का प्रतिनिधित्व करती थीं. मेहदी साहब कहा करते थे कि जिस गज़ल को बेगम साहिबा ने छू लिया, उसे गाने का कोई मतलब नहीं. उनके प्रिय शायर मीर थे. मीर की शायरी जैसी ही क्लासिकीयता उनके गायन में भी आपको मिलेगी. मीर की ही तरह मेहदी हसन ने लोकप्रिय और शास्त्रीय के बीच की दीवार गिरा दी. वे खासपसंद भी हैं और आमपसंद भी. फिल्मों के लिए उनकीगाई गयी ढेरों गज़लें इसका सबूत हैं.

जब शायरी और गायकी की दो विधाएं मिलती हैं, तो एक अद्भुत कीमियागरी होती है. लिखी गयी ग़ज़लों को पढ़ना हमेशा ही उनके अर्थ को महदूद कर देता है. रिवायती ऐतबार से ग़ज़ल 'कही' जाती है, उसका सम्बन्ध ''वाचिक' से रहा, भले ही मुद्रण के साथ वो छपे अक्षरों में भी अपने जलवे बिखेरती रही. मेहदी हसन ने मौसीकी के ज़रिए सुनने वालों को अहसास कराया कि उसके कहे जाने में क्या जादू रहा होगा और है. वे शर्तिया ग़ज़ल का काव्यशास्त्र जानते थे, उसकी तालीम उनकी भले ही औपचारिक न रही हो. अकेले वे ही थे जो गाते वक्त ये विवेक रख सकते थे कि अगर किसी ग़ज़ल के भाव संश्लिष्ट हैं , तो उसका मुख्य भाव क्या है और कौन से भाव अंडरटोन में हैं. जब मीर की ग़ज़ल 'आ के सज्जादा-नशीं कैस हुआ मेरे बाद' हम मेहदी साहेब से सुनते हैं, तभी ये समझ में ज़्यादा आता है कि इश्क के विषाद से भी ज़्यादा इस ग़ज़ल में इश्क के मैदान में 'मीर' होने का भाव अव्वल है .'खुदी' को बुलंद करना अहम है. मेहदी साहब की अदायगी में 'इश्क के मैदान में बादशाहत ' की मीर की दावेदारी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति पाती है.

ग़ज़लों को सुनना श्रोता को गायन के सहारे अर्थ की और गहरी और विस्तृत दुनिया तक ले जाता है. सलीम कौसर की एक गज़ल 'मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है/ सरे आइना मेरा अक्स है पसे आइना कोई और है' को मेहदी हसन ने भैरवी ठाठ में गाया है. जब मेहदी साहब इसे अदा करते हैं तो बेहद सीधी-सादी दिखने वाली गज़ल इंसान के ऐतिहासिक संघर्षों का बयान बन जाती है. मानवीय संघर्षों के बावजूद हकीकतें 'मेरा जुर्म तो कोई और था, ये मेरी सज़ा कोई और है' की हैं. मेहदी साहब ने इस गज़ल को अदा करने के लिए उदास भाव वाला भैरवी ठाठ चुना जो कि पूरी गज़ल कीअदायगी में साफ़ है. पर एक बड़े गायक की तरह वे इस भैरवी ठाठ की उदासी को अकेला नहीं छोडते. मक्ते के शेर 'जो मेरी रियाजाते नीम शब् को सलीम सुबहो न मिल सके' में आयी सुबह को वे सुबह के राग में गाते हैं. शास्त्रीय संगीत के ठेठ बन्धो-उपबंधों के लिहाज से यह भले ही ठीक न हो, पर सुनने वाला इस उदास गज़ल के भीतर एक सुबह का तसव्वुर कर लेता है. परवीन शाकिर की गज़ल 'कू ब कू फ़ैल गयी बात शनासाई की' (दरबारी) भी इसी तरहकी एक गज़ल है जिसे मेहदी साहब ने अद्भुत स्वर और अर्थ दिए. 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ' (कल्याण) जैसी गज़ल की अपनी अदायगीसे उन्होंने उसके रूमानी और राजनैतिक दोनों अर्थों को बखूबी खोल दिया.  ग़ज़ल की अदायगी में किस राग का आधार लेना है, इसे मेहदी साहब ग़ज़ल के मानी के तर्क से चुनते थे. वे बता सकते थे कि 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन' को राग काफी में या ' ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ' को भीमपलासी में या ,'कोंपलें फिर फूट आईं ' को मेघ में, 'एक बस तू ही नहीं' को मियाँ की मल्हार में या 'शोला था जल बुझा हूँ' को किरवानी में गाना उन्हेंक्यों ठीक लगा. कभी-कभी इंटरव्यू में वे बताते भी थे.

उन्होंने हज़ारों सालों से प्रचलित राग-रागिनियों मालकौस , दरबारी, यमन, भैरवी , मल्हार आदि का निचोड़ लेकर ग़ज़ल के शब्दों की ढेरों अर्थ-छवियों की अदायगी जिस तौर पर की , वैसा पहले कभी न हो पाया था. ये हुनर उन्हें इस कदर सिद्ध था की कई दफा बगैर कम्पोजीशन पहले से बनाए वे सिर्फराग सोच लेते थे और गाते हुए तर्ज़ आप से आप बनती जाती थी.

उन्होंने माजी के महान शायरों मीर, ग़ालिब से लेकर अपने समकालीनों फैज़, फ़राज़, शहजाद और परवीन शाकिर तक को गाया, लेकिन मिजाज़ और तबीयत के लिहाज से उनका जैसा रिश्ता मीर से बना वैसा शायद ही किसी और से. लोगों का ख्याल है की ग़ालिब में वे वैसा नहीं रम पाए, लेकिन इसका क्या कीजिएगा कि ग़ालिब की एक ग़ज़ल 'अर्जे-नियाज़ इश्क के काबिल नहीं रहा, जिस दिल पे नाज़ था, वो दिल नहीं रहा' बहुतों ने गाई, लेकिन उसग़ज़ल के भाव के साथ न्याय सिर्फ मेहंदी कर पाए.

फैज़ साहब ने जब ग़ज़ल कहने की एक अलग राह निकाली तो मेहदी साहेब की गायकी ने ही उसकी विशेषता को सबसे पहले पकड़ा. ये अकारण नहीं कि जिस ग़ज़ल से सबसे पहले मेहंदी साहेब को मकबूलियत हासिल हुयी वह 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले' थी. फ़राज़ की अलग तेवर की रूमानी गज़लों की ख्याति के पीछे मेहंदी साहेब की अदायगी की भी करामात ज़रूर थी.

मेहदी साहब का आख़िरी वक्त तंगहाली में गुजरा. उनका बेहतरीन इलाज नहीं हुआ. भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों मुल्कों की सरकारों को इस पर शर्म आनी चाहिए. उनका भारत में इलाज के लिए आना जैसा मुद्दा बनाया गया, वह अफसोसनाक था. नेता-उद्योगपति और धनियों-मानियों केलिए यह सीमा कभी रोक नहीं बनी पर कलाकार के लिए वीजा-पासपोर्ट के अनंत झंझट थे. तीनों मुल्कों को अपनी आवाज़ के धागे से गूंथता यह फनकार आज हमारे बीच नहीं है पर उसकी आवाज अभी भी इन मुल्कों के आम-अवाम के दिलो-दिमाग में गूँज रही है.

मेहंदी साहेब को सुननेवालों की ज़िंदगी में वे शामिल थे. वे सुनने वाले तमाम लोग राग-रागिनियों की बारीकियां भले न जानते हों, लेकिन हर सुनने वाले के पास मेहदी साहेब के सुरों के संस्मरण हैं. मेहदी साहेब की गायकी उनके दुखों, उनकी खुशी, उनके संघर्षों में साथ निभाती है, सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, ज़िंदगी की तमीज विकसित करने में सहयोग करती है. कोई भी कला इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है?

पाकिस्तान के निजाम ने भले ही उन्हें कितने ही तमगों से नवाज़ा हो, उन्होंने व्यवस्था-विरोधी शायरों को गाना कभी बंद नहीं किया. सामंती-फ़ौजी-धार्मिक- पूंजीवादी हुकूमतें जिन जज्बातों को प्रतिबंधित करना अपना फ़र्ज़ समझती हैं, मेहदी उन्ही जज्बातों के अनोखे अदाकार थे.उनकी सुरीली ज़िंदगी इस बात की गवाह है की नागरिकता (जो की किसी राष्ट्र की होती है) सभ्यता की स्थानापन्न नहीं होती.

2 comments:

Arvind Mishra said...

मेहदी साहब के शायरी और गायकी के ब्लेंड को आपने बेहतर तरीके से उभारा है -आभार !

sanjay patel said...

प्रणय भाई आपके आलेख अण्डर करंट बड़ा प्रभावी है कि शायर के अल्फ़ाज़ को परवाज़ देने का बड़ा काम मेहदी साहब के हस्ते हुआ है. ये अलग बात है कि एक कालखण्ड विशेष के बाद (जब ग़ज़ल बहुतेरे वाद्यों के साथ तक़रीबन फ़िल्मी सी बन रही थी) तब उस्तादजी बहुत ख़ामोश और एकांत में थे. लेकिन याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अपने फ़न और अंदाज़ के साथ कभी कोई समझौता किया हो. फ़िल्मी नग़में तो दर-असल होते ही हैं साज़ों से घिरे लेकिन ग़ज़ल की महफ़िल में सिवा एक की-बोर्ड के मेहदी साहब ने किसी और साज़ का आसरा नहीं लिया. मैंने उनकी इन्दौर यात्रा के दौरान बहुत झिझकते हुए पूछ ही लिया था कि क्या कामरान भाई (उनके साहबज़ादे) की-बोर्ड वादक हैं इसलिये आपने ये बिदेसी साज़ अपनी महफ़िलों में शुमार कर लिया है. उनका कहना था नहीं ;ऐसा नहीं है. उन्होंने बताया कि कीबोर्ड पर वे सिर्फ़ कॉर्डस का प्रयोग करवाते हैं.इससे गायकी में भराव आता है.जब तकनीक से कोई चीज़ सँवरती है तो उसे अपनाने में क्यों गुरेज़ हो.

ये कहना छोटे मुँह बड़ी बात होगी कि अब ग़ज़ल का कारवाँ ख़त्म हो गया है लेकिन थम ज़रूर गया है. शायरी को संगीत की ख़ूबसूरत पैरहन से ख़ाँ साहब ने ग़ज़ल का अविस्मरणीय श्रंगार किया है.ये कहना प्रासंगिक होगा कि ग़ज़ल की रूह को पकड़ना है तो मेहदी हसन को सुनना ही पड़ेगा..वे ग़ज़ल का विश्वविद्यालय हैं और रहेंगे.