इस साल पड़ी ऐतिहासिक गर्मी ने जब खाल में पर्याप्त भूसा भर दिया तब जाकर दिल्ली से मित्र आशुतोष बरनवाल ने रानीखेत जाकर दो-एक दिन ठण्ड में काटने का कार्यक्रम तय किया. एक और शानदार मित्र बंटी बख्शी ने रानीखेत से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर मजखाली में अपनी कॉटेज में रहने का निमंत्रण पहले से दिया हुआ था.
इस दफा एक नई बात यह हुई है कि पहाड़ों की हवा में धूल, धुएँ और धुंध का एक स्थाई परदा पड़ा रहता है और हिमालय तो क्या सामने की पहाड़ी तक ठीक से नज़र नहीं आती. रात को सुदूर पहाड़ियों पर जलती हुई लाल बल्बों की माला दरअसल चीड़ के जंगलों में धधकती हुई आग होती है जो उक्त परदे के पीछे एक बड़ी वजह मानी जा सकती है. इस वजह से हमारे इलाके के सारे ग्रीष्मकालीन पर्यटन स्थल अब “तथाकथित” रह गए हैं.
पंखे वगैरह लगाने की बात पहाड़ों पर ज़्यादातर लोगों ने सोची भी नहीं थी सो कॉटेज में पहुँचते ही हम जान गए कि आधी रात तक तो गर्मी से छुटकारा मिलने से रहा. ये अलग बात थी कि यहाँ की गर्मी मैदानों की गर्मी से कहीं फर्क और झेली जाने लायक थी. ऊपर से हम दोनों के कमरों में एक-एक संगीतकार मच्छर भी था. गुडनाईट के असर को पूरी तरह नकारते हुए ये दोनों सज्जन हमारा खून चूसते रहे और भोर होने पर ही चैन आया. कुछेक घंटे सोने के बाद हल्की हल्की गर्मी लगना शुरू हो गयी सो पतली जयपुरी रजाई ओढ़े सोना नामुमकिन था. रसोई में नाश्ते की जुगत चल रही थी और आशुतोष मेरी ही बाट देख रहे थे. दिल्ली से लाई गयी नफीस फ्रेंच रेड वाइन को रास्ते की धूप में गर्म हो जाने की वजह से पिछली रात से फ्रीजर में रखा दिया गया था. इस बात का विशेष ध्यान धरा जाना था कि उसे सोने से पहले फ्रीज़र से निकाल लिया जाए. पता नहीं थकान थी या जापानी व्हिस्की सुन्तोरी का असर कि मैं इस काम को करना भूल गया. मैं बालकनी में आकर पहली सिगरेट सुलगा ही रहा था कि अपनी मुक्त हंसी हँसते हुए आशुतोष नमूदार हुए.
फ्रीजर में धरी वाइन जम चुकी थी और उसका कॉर्क बिलकुल सटीक अनुशासन के साथ बाकायदा बाहर आ चुका था. अगर कोई पूरे होश में भी उस बोतल को ज़रूरी उपकरणों की मदद से भी खोलता तो इतनी सफाई से इस काम को अंजाम नहीं दे सकता था. लगता था जैसे किसी ने बोतल के भीतर घुसकर पिस्तौल से कॉर्क की कनपटी पर घोड़ा लगाकर “ढिचक्याऊं” कर दिया हो. यह खुला निमंत्रण था. धूप में धरकर वाइन को बाकायदा पिघलाया गया और फिर अंडे परांठे के नाश्ते के साथ एक शर्मीली गौरैया की उत्सुकताभरी उपस्थिति में उसका भोग.
इस दरम्यान भोपाल पहुंचे ज्ञानरंजन जी का फोन आया बरास्ते जनाब राजकुमार केसवानी. और बरेली फोन करके वीरेन डंगवाल साहेब को थोडा जलाया गया. उन्होंने आदतन हमारी वाइन में मक्खियों द्वारा एक नंबर कर देने की बद् दुआ दी.
दिन को मित्र प्रभात मेहरा के घर ठेठ कुमाऊंनी खाने की व्यवस्था पहले ही बनाई जा चुकी थी. एक बोतल बीयर सूतने के उपरान्त कोई तीन बजे खाने का लुत्फ़ उठाया गया. अजगरावस्था पहुँच चुकी थी सो एक लंबा वॉक ज़रूरी था. रानीखेत की लोअर मॉल रोड में टहलना आज भी मेरी निगाह में महानतम कार्यों में से एक है. घने और विविधता भरे जंगल से लबालब इस रास्ते पर कोई डेढ़ सौ साल पुराने यूकेलिप्टस के शानदार पेड़ हैं. नीचे एक तस्वीर में आपको आशुतोष उस से लिपटे नज़र आ रहे हैं और आखिरी फोटू उनके अतिप्रमुदित हो चुकने का सबूत है.
फोटू देखी जाएँ और जो जैसा महसूस करना चाहें करें.
इस दफा एक नई बात यह हुई है कि पहाड़ों की हवा में धूल, धुएँ और धुंध का एक स्थाई परदा पड़ा रहता है और हिमालय तो क्या सामने की पहाड़ी तक ठीक से नज़र नहीं आती. रात को सुदूर पहाड़ियों पर जलती हुई लाल बल्बों की माला दरअसल चीड़ के जंगलों में धधकती हुई आग होती है जो उक्त परदे के पीछे एक बड़ी वजह मानी जा सकती है. इस वजह से हमारे इलाके के सारे ग्रीष्मकालीन पर्यटन स्थल अब “तथाकथित” रह गए हैं.
पंखे वगैरह लगाने की बात पहाड़ों पर ज़्यादातर लोगों ने सोची भी नहीं थी सो कॉटेज में पहुँचते ही हम जान गए कि आधी रात तक तो गर्मी से छुटकारा मिलने से रहा. ये अलग बात थी कि यहाँ की गर्मी मैदानों की गर्मी से कहीं फर्क और झेली जाने लायक थी. ऊपर से हम दोनों के कमरों में एक-एक संगीतकार मच्छर भी था. गुडनाईट के असर को पूरी तरह नकारते हुए ये दोनों सज्जन हमारा खून चूसते रहे और भोर होने पर ही चैन आया. कुछेक घंटे सोने के बाद हल्की हल्की गर्मी लगना शुरू हो गयी सो पतली जयपुरी रजाई ओढ़े सोना नामुमकिन था. रसोई में नाश्ते की जुगत चल रही थी और आशुतोष मेरी ही बाट देख रहे थे. दिल्ली से लाई गयी नफीस फ्रेंच रेड वाइन को रास्ते की धूप में गर्म हो जाने की वजह से पिछली रात से फ्रीजर में रखा दिया गया था. इस बात का विशेष ध्यान धरा जाना था कि उसे सोने से पहले फ्रीज़र से निकाल लिया जाए. पता नहीं थकान थी या जापानी व्हिस्की सुन्तोरी का असर कि मैं इस काम को करना भूल गया. मैं बालकनी में आकर पहली सिगरेट सुलगा ही रहा था कि अपनी मुक्त हंसी हँसते हुए आशुतोष नमूदार हुए.
फ्रीजर में धरी वाइन जम चुकी थी और उसका कॉर्क बिलकुल सटीक अनुशासन के साथ बाकायदा बाहर आ चुका था. अगर कोई पूरे होश में भी उस बोतल को ज़रूरी उपकरणों की मदद से भी खोलता तो इतनी सफाई से इस काम को अंजाम नहीं दे सकता था. लगता था जैसे किसी ने बोतल के भीतर घुसकर पिस्तौल से कॉर्क की कनपटी पर घोड़ा लगाकर “ढिचक्याऊं” कर दिया हो. यह खुला निमंत्रण था. धूप में धरकर वाइन को बाकायदा पिघलाया गया और फिर अंडे परांठे के नाश्ते के साथ एक शर्मीली गौरैया की उत्सुकताभरी उपस्थिति में उसका भोग.
इस दरम्यान भोपाल पहुंचे ज्ञानरंजन जी का फोन आया बरास्ते जनाब राजकुमार केसवानी. और बरेली फोन करके वीरेन डंगवाल साहेब को थोडा जलाया गया. उन्होंने आदतन हमारी वाइन में मक्खियों द्वारा एक नंबर कर देने की बद् दुआ दी.
दिन को मित्र प्रभात मेहरा के घर ठेठ कुमाऊंनी खाने की व्यवस्था पहले ही बनाई जा चुकी थी. एक बोतल बीयर सूतने के उपरान्त कोई तीन बजे खाने का लुत्फ़ उठाया गया. अजगरावस्था पहुँच चुकी थी सो एक लंबा वॉक ज़रूरी था. रानीखेत की लोअर मॉल रोड में टहलना आज भी मेरी निगाह में महानतम कार्यों में से एक है. घने और विविधता भरे जंगल से लबालब इस रास्ते पर कोई डेढ़ सौ साल पुराने यूकेलिप्टस के शानदार पेड़ हैं. नीचे एक तस्वीर में आपको आशुतोष उस से लिपटे नज़र आ रहे हैं और आखिरी फोटू उनके अतिप्रमुदित हो चुकने का सबूत है.
फोटू देखी जाएँ और जो जैसा महसूस करना चाहें करें.
1 comment:
म्यांव...
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