Friday, September 14, 2012

आवारगी सही है मगर ये बताइये


उस्ताद खानसाहेब मेहदी हसन की एक और यादगार ग़ज़ल पेश है -




दीवार-ओ-दर पे नक्श बनाने से क्या मिला 
लिख लिख के मेरा नाम मिटाने से क्या मिला 

हाँ चौदहवीं का चाँद भी शरमा गया हुज़ूर 
एक दिलजले के दिल को जलाने से क्या मिला 

आवारगी सही है मगर ये बताइये 
उसकी गली में आपको जाने से क्या मिला 

चारागरी से जिस को अदावत सी है उसे 
दिल के हज़ार ज़ख्म दिखाने से क्या मिला 

जो हो सके तो बताइये अपनी मसर्रतें 
ये सोचना ग़लत के ज़माने से क्या मिला.

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