Friday, September 14, 2012

साहिर लुधियानवी का एक इंटरव्यू - २





 (पिछली किस्त से आगे)

"शुरू-२ में आप किन-२ शायरों से मुतास्सिर रहे ?"

"इक़बाल और जोश मलीहाबादी से ."

"अब अगर में ये पूछूं के आप शेर क्यों कहते हो ?"

साहिर ने बड़ी हैरानी से मेरी तरफ देखा (लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा के वो मेरी तरफ नहीं देख रहे हैं बल्कि अपबी लम्बी नोकीली नाक से मुझे सूंघ रहे हैं ) . एक बार फिर कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "मेरी राय में हर शख्स का जो पेशा होता है उस में उसके शौक़ और ज़रुरत शामिल होते हैं, कभी शौक़ पहले तो कभी ज़रुरत . सियासी और मजाजी मसलों से तआल्लुक का सवाल बाद में पैदा होता है . वतनपरस्ती और फ़र्ज़ के बाद मुझे अपनी ज़िन्दगी का एक हिस्सा ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फ़िल्मी शायरी की नज़र करना पड़ा . इसके साथ-२ ज़िन्दगी के कई अच्छे-बुरे हादसों की याद को महफूज़ रखने के लिए भी मेरा दिमाग़ शायरी करने को मजबूर हो जाता है . "

ये सुन कर मुझे उनका एक और शेर याद आ गया -

दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूँ मैं


"आप शेर कहते किस तरह हैं ?'

इस के जवाब में साहिर अपने चेचक भरे चेहरे को सहलाते हुए बोले, "कई बार, कोई ज़ाती हादसा या अवामी मामला दिमाग़ पर इस तरह हावी हो जाता है की शेर के बगैर उसकी एनालिसिस मुमकिन नहीं होती . उस वक़्त किसी ख़ास माहौल की भी ज़रुरत नहीं होती .

ऐसी हालत में कोई चीज़ रुकावट नहीं डालती, अलबत्ता फ़िल्मी गाना लिखने के लिए दरवाज़ा बंद करके, कमरे में टहल-२ कर और शऊरी तौर पर अपने आप को गीत के अहसास के दरमयान रख कर, माहौल और किरदार की नफ्सियाती कैफ़ियत को सांचे में ढाल कर शेर कहता हूँ, गीत लिखता हूँ ."

"अच्छे शेर की आपके मुताबिक क्या तारीफ़ है?"

"ख़ूबसूरत, सच्चा और फायदेमंद होना चाहिए ."

"क्या आप इल्म-ऐ-अरूज़ (तुक यानी बहर का ज्ञान) से वाकिफ हैं और क्या इस की सूझ-बूझ शायरी के लिए ज़रूरी है ?"

"मैं खुद इल्म-ऐ-अरूज़ से नावाक़िफ हूँ, ऐसी हालत में, मैं अरूज़ का जानना ज़रूरी कैसे समझ सकता हूँ . लेकिन ये ज़रूर कहूँगा के अगर एक अच्छा शायर अरूज़ से वाक़िफ हो तो ये उसकी शायरी के लिए ज्यादा अच्छा है ."

"आपकी ज़िन्दगी का कोई ऐसा वाकया, जिसने आप की शायरी पर गैर-मामूली असर डाला हो "

"बहुत से छोटे-बड़े वाकिये हैं, किसी खास वाकिये का इंतेख़ाब नामुमकिन है "

"आप इस सदी का सबसे बड़ा शायर किसे मानते हैं ?"

"नज़रयाती इख्तेलाफ़ (मतभेद) के बावजूद 'इक़बाल' को "

"उर्दू के मौजूदा शायरों में से आप को ख़ास तौर पर कौन सा शायर पसंद है ?"

"मुश्किल ये है, के हमारे ज़माने के शायरों में से ज़ाती पसंद को अलेहदा करने की बुनियाद क्या हो ? मेरे ख्याल से फ़नकार की शायरी के इलावा उसकी शख्सियत उसे दूसरों से अलग करती है . फिर भी मुझे फैज़ अहमद ‘फैज़' सब से ज़्यादा पसंद हैं .

"उर्दू के जदीद शायरों में से क्या कोई शायर ज़िक्र करने लायक है ?"

"नरेश कुमार ‘शाद’ ."

साहिर ने संजीदगी के साथ जवाब दिया, मैंने हँसते हुए कहा:-

"हौसला-अफज़ाई के लिए शुक्रिया, पर ज़रा और संजीदगी के साथ बताईये . मेरा मतलब है के थोडा साफ़गोई से काम लीजिये और किसी की हक़-तलफ़ी नहीं होनी चाहिए ."

साहिर ने अपनी लम्बी-२ अँगुलियों को लहराते हुए कहा :

 "मैं अपनी राय पहले भी ज़ाहिर कर चूका हूँ, सबूत की ज़रुरत हो तो कुंवर महिंदर सिंह बेदी से पूछ लो ."

अपने ज़िक्र को जान बूझ के बीच में ही छोड़ते हुए मैंने दूसरा सवाल पुछा:-

"अभी तक, आपकी अपनी नज़्मों में से, सबसे पसंदीदा नज़्म कौन सी है ?"

साहिर ने सिगरेट का एक लम्बा कश लेते हुए कहा, "अलग-२ वक़्त पर, अलग-२ नज़्में पसंद रही हैं"

"मिसाल के तौर पर इस वक़्त कौन सी नज़्म?"

"परछाइयाँ ", साहिर ने कुछ सोचते हुए जवाब दिया.

"शेर और शराब का क्या रिश्ता है? क्या शराब शायर के लिए ज़रूरी है?"

"हरगिज़ नहीं, शेर कहने के लिए नशे की कोई ज़रुरत नहीं. नशे की हालत में आम तौर पर अच्छा शेर कहा ही नहीं जा सकता ."

"फिर आप शराब क्यों पीते हो?"

"मैं तो बूट-शर्ट भी पहनता हूँ, हालांकि बूट-शर्ट पहनना शायर के लिए ज़रूरी नहीं ."

"शायरी की बात छोडिये, आपके शराब पीने की वजह क्या है ?"

 "मैं शराब नहीं पीता था, जब शराब बंदी हुई थी तब भी नहीं . बाद में लो ब्लड-प्रेशर की वजह से मुझे तकरीबन ३-४ साल शराब पीनी पड़ी, जिस से मुझे बहुत फायदा भी हुआ . अब मैं इसका आदी हो गया हूँ और रात को शराब पिए बगैर अच्छी नींद भी नहीं आती . "

"शायरी के साथ-२ आप अदब के किस-२ रूप में दिलचस्पी रखते हैं ?"

"पढने की हद तक अदब के हर रंग को पसंद करता हूँ लेकिन, ..."

साहिर ने अपनी अंगुलियाँ बालों में फिराते हुए कहा:

".. मैंने शुरूआती दिनों में कुछ कहानियाँ भी लिखीं थीं और बाद में कुछ तन्कीदी मज़मून भी ."

"क्या हमारा मौजूद अदब वाकई जमूद (स्थिरता) का शिकार है ?"

"जमूद हरक़त की ज़िद है . अदब में हरक़त तो है, बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है, ये बात अलेहदा है के वो उस कैफ़ीयत और सिफ़त का नहीं है ."

"आपका सियासी नज़रिया क्या है?"

"मैं कभी किसी सियासी पार्टी का मैम्बर नहीं रहा . गुलाम हिंदुस्तान में आज़ादी के अच्छे पहलू तलाश करना और उनको अवाम तक पहूंचना मेरा अहम काम ज़रूर रहा . अब दिमागी तौर पर इक्तेसादी (आर्थिक) आज़ादी का हामी बेशक हूँ, जिसका वाजेह (स्पष्ट) ढांचा मेरे सामने कम्यूनिज़्म है . "

"आपके ख्याल के मुताबिक, हिंदुस्तान में उर्दू का मुस्तकबिल क्या है?"

साहिर ने हिकमत भरा अंदाज़ इख्तेयार करते हुए कहा, "उर्दू ज़बान के मुस्तकबिल को हिंदुस्तान के मुस्तकबिल से अलग नहीं किया जा सकता . हिंदुस्तान एक तरक्की पसंद मुल्क है और उर्दू जुबां एक तरक्की-याफ्ता जुबां . इसलिए उर्दू का वही मुस्तकबिल है जो हिंदुस्तान का . जिस रफ़्तार से तअस्सुब और तंग-नज़री में कमी आएगी, उसी रफ़्तार से मुल्क और उर्दू आगे बढेंगे . "

"अब तरक्की-पसंद अदब की तहरीक के बारे में कुछ फरमाईये?"

"मैं समझता हूँ के तरक्की-पसंद तहरीक ने अदब और मुल्क की बहुत खिदमत की है, पर इस से इनकार नहीं किया जा सकता के इस से कुछ गलतियाँ भी हुई हैं, लेकिन जो लोग इस की सिर्फ ख़ामियां ही गिनाते हैं में उन से इतेफाक़ नहीं रखता . "

"लेकिन ये तो आप भी मानते हो के इस का शीराज़ बिखर चुका है?"

"जी हाँ, इस की मैनेजमेंट अब कायम नहीं ".

"कुछ लोग ये भी बातें करते हैं के ये तहरीक कुछ लोगों का शौहरत हासिल करने का और एक दूसरे की तारीफ करने का जरिया है, इस के ज़रिये सभी ने अपना उल्लू सीधा किया है " .

"लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे"

मुझे उम्मीद थी के मेरी इस सवाल के जवाब में साहिर अपना एक मिसरा पढ़ के पीछा छुड़ाने की कोशिश करेंगे, लेकिन मेरी उम्मीद से उलट उन्होंने बर्दास्त करते हुए ये कहना शुरू किया:-

"ऐसी कोई बात नहीं है. इस तहरीक के कार-कूनों ने बहुत कुर्बानियां दी हैं, तकलीफें झेली हैं . ये बात बेशक सच है के ये लोग एक दूसरे की शौहरत में इज़ाफा करने से नहीं चुकते थे . इस की वजह मोआशरे (समाज) और अदब के गलत रुझान के खिलाफ उनका नज़रियाती इत्तेहाद (एकता) था . अब जो तहरीक में बोहरां (संकट) पैदा हुआ है और इस का सबब ये है के जिन वजहों से सरमायेदारी के खात्मे के लिए समाजवाद का तसव्वुर किया गया था, उस में भी शख्सी आज़ादी और कुछ दूसरे मुआमले में अमली कमियाँ महसूस की गयीं ."

मैंने गुफ्तगू का मौज़ू बदलते हुए कहा, "फ़िल्मी शायरी, ख़ास तौर पर आपकी अपनी फ़िल्मी-शायरी के बारे में क्या राय है?"

"अदबी शायरी के लिए भी शुरूआत में रवायती शायरी करनी पड़ती है . उस के बाद शायर अपने मन-पसंद तरीके से शायरी करता है. शायरी के उसूल शायर की पुख्ता शायरी से बनाये जाते हैं, रद्द-ओ-बदल का दायरा थोडा बड़ा करना पड़ता है . मैंने भी शुरुआत में फ़िल्मी दुनिया की रवायत से मेल खाती शायरी की, लेकिन जब मैंने अपने लिए इस दुनिया में जगह बना ली तो अपनी शर्तों पर ही काम किया और खुद इंतेखाब की फिल्मों के लिए ही लिखा . इस तरह में आसानी से अपनी शायरी के ज़रिये अपने ख्यालात और जज़्बात भी कह पाया . फिल्मों के इस पहलू को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता के ये अपने ख्यालात और जज़्बात को ज़ाहिर करने का सबसे ताक़तवर तरीका है . "

"अब आप ये बताएं के पुराने फ़िल्मी शायरों में से कौन सा शायर आपको सब से ज्यादा पसंद है ?"

"आरज़ू लखनवी ."

"और आजकल के शायरों में से ?"

साहिर के भरे हुए चेहरे पर हलकी सी परेशानी दौड़ी लेकिन, जल्द ही उन्होंने संभल कल मुस्कुराते हुए कहा, "बात ये है कि मैं फिल्म रायटर एसोसियेशन का सदर हूँ, इस लिए इस सवाल का जवाब देना मेरे लिए मुनासिब नहीं है . क्योंकि सदर की हैसियत से, सब फ़िल्मी शायरों को एक ही नज़र से देखना मेरा फ़र्ज़ है ."

अचानक मुझे साहिर की पुरानी नज़्म का एक शेर याद आ गया .

तुम में हिम्मत हो तो दुनिया से बगावत कर दो
वरना माँ बाप, जहाँ कहते हैं शादी कर लो

"इस का जवाब देना तो आप न-मुनासिब ख्याल नहीं करोगे ?", मैंने कुछ झिझकते हुए पुछा, "आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की?"

उम्मीद से उलट इस सवाल को सुन कर साहिर कुछ चौंक से गए और फिर अपनी आदत के मुताबिक सवाल को हंसी में टालते हुए जवाब दिया, " क्योंकि कुछ लड़कियां मेरी तरफ देर से पहुंची और कुछ लड़कियों तक मैं देर से पहुंचा."

हम दोनों मुस्कुराने लगे और फिर मैंने कहा, "बहुत अच्छा साहिर साहब ! मुझे अब इजाज़त दीजिये, क्योंकि में बंबई में अपनी रिहाईश पर वक़्त से पहूंचना चाहता हूँ."

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