Sunday, September 23, 2012

गांधी, नेहरू और भारत के बारे में नेरुदा

यह पोस्ट ब्लॉग बेतरतीब विचार से साभार ली गई है.



यह हिस्सा चिली के ख्यात और पूरी दुनिया के अपने कवि पाब्लो नेरुदा की पुस्तक ‘संस्मरण’ (जिसका अनुवाद अभी पूरा किया) में है . अधिकांश लोग इससे परिचित हैं, फिर भी एक बार फिर पढ़ लेने लायक है . यह सभी जानते हैं कि पाब्लो भारत से, उसकी आजादी की कामना से, उसके लोगों से गहराई से जुड़े थे . आजाद होने पर यहां आकर उन्होंने जो देखा और सहा उसे एक शब्द में उन्होंने ‘शिट’ शब्द में बयान किया . हिंदी में ‘गंद’ शब्द उसके पूरे गतार्थों को व्यक्त नहीं करता क्योंकि वैसी जुगुप्सा नहीं पैदा करता . ऐसी ठेस इस देश ने अपने कितने प्रेमियों को लगाई होगी, इसके कोई रिकार्ड नहीं हैं.

चित्र १ - आज़ादी से पहले

भारत में एक कांग्रेस

यह एक गौरव का दिन है . हम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की काग्रेस में उपस्थित हैं . अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत एक देश . पूरा हाल हजारों प्रतिनिधियों से भरा था . मैं गांधी से मिला, आंदोलन के दूसरे नेता मोतीलाल नेहरू से भी . और उनके शानदार युवा पुत्र जवाहर लाल नेहरू से भी जो हाल ही में लंदन से लौटे हैं . नेहरू आजादी के पक्ष में है जबकि गांधी पहले कदम के रूप में केवल स्वायत्तता चाहते हैं . गांधीः एक बुद्धिमान लोमड़ी की तरह तेज, व्यावहारिक आदमी . राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी, कमेटियों के उस्ताद, चालाक रणनीति बाज, अदम्य . लोगों का रेला उनके पैरों को हाथ लगाता और श्रद्धा से ‘गांधी जी !’ गांधी जी !’ कहता हुआ . वे लापरवाही से जवाब देते हुए और बिना चश्मा उतारे हंसते हुए . वह संदेश उठाते और उन्हें पढ़ते, टेलीग्राम का जवाब देते . बिना किसी प्रयास के . वह एक ऐसा संत है जो अपने मन की बात नहीं खोलता . नेहरूः उनकी क्रांति के उद्‍घोषक .

कांग्रेस में एक महान हस्ती थे सुभाष चंद्र बोस – प्रचंड जननेता, प्रखर साम्राज्यवाद-विरोधी, अपने देश के आकर्षक व्यक्तित्व .१९१४ के महायुद्ध में जापानी आक्रमण के समय उन्होंने ब्रिटिश के विरुद्ध आक्रामकों का साथ दिया . बहुत साल बाद, भारत में एक मित्र ने मुझे बताया कि कैसे सिंगापुर का किला फतह किया गया – ‘हमारे हथियार जापानी आक्रमणकारियों की तरफ तने थे . अचानक हमने अपने से पूछा, क्यों ? हमारे सैनिकों ने एकदम पाला बदल लिया और अपनी बंदूकें अंग्रेजी सेनाओं की तरफ कर दीं . यह बहुत आसान था . जापानी आक्रमणकारी तो केवल फौरी तौर पर थे, जबकि अंग्रेज तो यहां हमेशा काबिज रहना चाहते थे .”

सुभाष बोस को गिरफ्तार किया गया, मुकदमा चला और विद्रोह का दोषी पाया गया . भारत में ब्रिटिश कोर्ट ने उन्हें मृत्युदंड की सजा दी . इसके विरोध में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा . आखिरकार बहुत सी कानूनी लड़ाइयों के बाद उनके वकील – जो स्वयं नेहरू थे – ने उनके लिए राज्यक्षमा ले ली . उसके बाद वह एक लोकप्रिय नायक बन गए .

चित्र २ – आजादी के बाद

एक बार फिर भारत यात्रा

सन १९५० में मुझे एक बार फिर भारत जाना पड़ा . पैरिस में जूलियट क्यूरी ने मुझे एक खास मिशन पर जाने के लिए कहा . मुझे नई दिल्ली जाना था और अलग-अलग तरह के राजनीतिक विचारों वाले लोगों से संपर्क करना था और भारत में शांति के आंदोलन को मजबूत करने की संभावनाएं तलाशनी थीं .

जूलियट क्यूरी शांति के आंदोलन के सभापति थे . उन्हें चिंता थी कि भारत में शांति आंदोलन का असर होगा या नहीं, हालांकि भारत हमेशा से ही एक शांतिप्रिय देश के रूप में प्रसिद्ध रहा है . उसके प्रधानमंत्री नेहरू स्वयं शांति के पक्षधर माने जाते थे .

जूलियट क्यूरी ने मुझे दो पत्र दिए . एक बंबई में किसी वैज्ञानिक के लिए और दूसरा प्रधानमंत्री के लिए, जिसे मुझे खुद देना था . मुझे इस पर अचंभा हुआ कि इतने आसान काम के लिए मुझे इतनी दूर भेजा जा रहा है . शायद उस देश से मेरे स्थाई प्रेम के कारण ऐसा किया गया, जहां मैंने अपनी जवानी के अनेक वर्ष बिताए थे . या शायद इसलिए कि उसी साल मुझे पाब्लो पिकासो और नाजिम हिकमत के साथ ही शांति का पुरस्कार मिला था .

मैंने बंबई के लिए विमान लिया . मैं भारत तीस साल बाद जा रहा था . वह अब उपनिवेश नहीं था, बल्कि स्वतंत्र गणराज्य था, गांधी और कांग्रेस का सपना, जिसकी १९१८ में हुई पहली कांग्रेस में मैं उपस्थित था . उन दिनों के मेरे उन दोस्तों में शायद ही कोई जीवित हो जिन्होंने एक भाई की तरह अपने संघर्षों की कहानियां मुझे सुनाई थीं .

मैं विमान से उतर सीधे कस्टम की ओर गया . वहां से मुझे एक होटल में जाना था और वैज्ञानिक रमन को पत्र देकर नई दिल्ली जाना था . मैंने अपने मेजबानों पर निर्भर होने की जगह अपना इंतजाम खुद किया था . बहुत देर हो गई लेकिन मेरा सामान नहीं आया . मैंने देखा कि कस्टम के अधिकारी जैसे कई लोग मेरे सामान की गहराई से जांच कर रहे थे . मैंने बहुत जांच-पड़तालें देखी थीं लेकिन ऐसी नहीं . मेरा सामान कोई ज्यादा नहीं था – एक मझौले आकार का सूटकेस जिसमें मेरे कपड़े और चमड़े का थैला जिसमें मेरे गुसल की चीजें थीं . लेकिन मेरी पेंटों, निक्करों, जूतों को बाहर निकाल कर पांच लोगों द्वारा जांचा गया . एक-एक जेब को तलाशा गया . रोम में अपने कपड़ों को गंदा होने से बचाने के लिए मैंने अपने जूतों को अपने होटल के कमरे में पड़े एक पुराने अखबार में लपेट दिया था . शायद उस अखबार का नाम ‘ऑसरवेटोर रोमानो’ था . उन्होंने अखबार के पन्ने को एक मेज पर फैला लिया, फिर रोशनी के सामने करके उसे देखा, फिर उसे बड़ी सावधानी से तहाकर रखा गया जैसे वह कोई बहुमूल्य दस्तावेज हो और अंत में मेरे कुछ कागजातों के साथ उसे अलग रख दिया गया . मेरे जूतों की अंदर तक जांच की गई मानो वे किसी महान जीवाश्म के सैंपल हों .

यह खोजबीन दो घंटों तक जारी रही . उन्होंने मेरे कागजों का एक बड़ा सा बंडल बना लिया (पासपोर्ट, पतों की डायरी, प्रधानमंत्री के नाम पत्र, और अखबार का पेज) और उन्हें मेरी आंखों के सामने लाख से सील कर दिया गया . तब मुझे बताया गया कि अब मैं अपने होटल जा सकता हूं .

अपने चिलीयन धैर्य को पूरी संकल्पशक्ति से बनाए रखकर मैंने कहा कि मेरे पहचान के कागजातों के बिना कोई होटल मुझे नहीं रखेगा और कि मेरा आने का मकसद प्रधानमंत्री को वह पत्र देना है जिसे उन्होंने अपने पास रख लिया है .

“हम होटल वालों से बात करेंगे, वे आपको रहने देंगे . जहां तक कागजों की बात है हम उन्हें कुछ समय बाद आपको वापस कर देंगे .”

यह वही देश था जिसकी आजादी का संघर्ष मेरी युवावस्था के अनुभव का हिस्सा था . मैंने अपना सूटकेस और मुंह एक साथ बंद किया . मेरे मन में केवल एक ही शब्द गूंजा – गंद !

होटल में मैं प्रोफैसर बाएरा से मिला तो उन्हें अपने साथ हुई घटना के बारे में बताया . वह एक अच्छे हिंदू थे . उन्होंने इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया . उनका अपने देश के प्रति दृष्टिकोण बहुत ही सहनशीलता का था और यह भी कि अभी हम निर्माण की अवस्था में हैं . जबकि मुझे उस व्यवहार में जानबूझकर तंग करने की बात नजर आई, जिस व्यवहार की मैं एक नव स्वतंत्र देश से अपेक्षा नहीं कर सकता था .

जूलियट क्यूरी के जिन मित्र के नाम मैं वह पत्र लाया था वे भारत में परमाणु भौतिकी के निदेशक थे . उन्होंने मुझे अपने प्रतिष्ठान को देखने के लिए बुलाया और बताया कि हम प्रधानमंत्री की बहन के साथ दोपहर का भोजन करेंगे . जीवन भर मेरा भाग्य ऐसा ही रहा है और आज भी वैसा ही है . एक हाथ मेरी पसली में घूंसा मारता है और दूसरा मुझे फूलों की डलिया देता है .

आणविक शोध संस्थान उन साफ, चमकदार स्थानों में था जहां पुरुष-स्त्री झक्क सफेद कपड़ों में बहते पानी की तरह बरामदों में आ-जा रहे थे, औजारों, ब्लैकबोर्डों के बीच से अपना रास्ता बनाते . मैं उस वैज्ञानिक व्याख्या को कुछ हद तक ही समझ पाया लेकिन वहां जाना इस मायने में अच्छा रहा कि उससे पुलिस के हाथों हुए अपमान के धब्बे कुछ कम हो गए . मुझे धुंधली सी याद है कि मैंने एक शीशे के बर्तन में पारे जैसा कुछ देखा था . इस धातु से ज्यादा आश्चर्यजनक क्या हो सकता है जो अपनी ऊर्जा पशु जीवन के रूप में दिखाता है . उसका संचरण, द्रव्य के रूप में उसका रूपांतरण मुझे हमेशा आश्चर्यचकित करता है .

मैं नेहरू की बहन का नाम भूल गया हूं जिनके साथ हमने उस दिन दोपहर का भोजन खाया था . मेरे भद्दे मजाक उनकी उपस्थिति से ऊखड़ गए . वह बहुत सुंदर महिला थीं और एक आकर्षक अभिनेत्री जैसी वेशभूषा में थीं . सोने और मोतियों ने उनकी खूबसूरती को और बढ़ा दिया था . मुझे वह पसंद आईं . इस तरह की भद्र महिला को अपने हाथों से खाते देखना विरोधाभासी सा अनुभव था जब वह अपनी सोने से भरी उंगलियों को चावल और दाल में भिगो रही थी . मैंने उन्हें बताया कि मैं उनके भाई और विश्व शांति के दोस्त से मिलने दिल्ली जा रहा हूं . उनका कहना था कि उसके विचार से भारत के सब लोगों को इस आंदोलन का साथ देना चाहिए .

उस दिन दोपहर बाद मेरे कागजों का बंडल मुझे होटल में मिल गया . दोमुही पुलिस ने मेरे सामने लगाई सील को खोला होगा और उन सब कागजों के फोटो लिए होंगे, मेरे धोबी के बिलों के साथ . मुझे मालुम हुआ कि जिन लोगों के पते मेरी डायरी में थे, उन सबके घर जाकर पुलिस ने पूछताछ की थी . उनमें एक रिकार्डो गिराल्डे की विधवा भी थी जो उस समय मेरी साली थी . यह उथली औरत उस समय ब्रह्मविद्यावादी थी और उसका एक शौक एशिया के दर्शन थे . वह भारत के एक सुदूर के गांव में रहती थी . क्योंकि उसका नाम मेरी पतों की डायरी में था इसलिए पुलिस ने उसे बहुत तंग किया .

जिस दिन मैं दिल्ली आया उसी दिन राजधानी के छः-सात गण्यमान लोगों से मिला . भयंकर गर्मी से बचने के लिए हम एक छतरी के नीचे बैठे . वे सब लेखक, दार्शनिक, हिंदू और बौद्ध पुजारी थे . ऐसे भारतीय लोग जो बिना बनावट के देखने में अत्यंत सरल थे . सब इस बात से सहमत थे कि शांति के समर्थक हमारे देश की प्राचीन परंपराओं की भावना के अनुरूप काम कर रहे हैं . फिर भी उन्होंने बुद्धिमत्ता पूर्ण सलाह दी कि इसमें किसी भी तरह की कट्टरता या नेतागिरी की प्रवृत्तियों को तूल नहीं दिया जाना चाहिए . इस आंदोलन की नेतागिरी कम्युनिस्टों या बौद्धों या मध्यवर्गों को नहीं लेनी चाहिए . कहने का मतलब यह कि सब लोगों को उसमें सहयोग करना चाहिए . मैं उनकी बातों से सहमत था .

लेखक-चिकित्सक और मेरे पुराने मित्र चिली के राजदूत डॉ. युआन मारिन मुझे रात के भोजन के समय मिलने आए . इधर- उधर की बातें करने के बाद उन्होंने बताया कि वह पुलिस के मुखिया से मिले थे . राजनयिकों से जिस शांत तरीके से अधिकारीगण बात करते हैं उसमें उन्होंने राजदूत को बताया कि मेरी कारगुजारियां भारतीय सरकार के लिए चिंता का विषय हैं और वह चाहते हैं कि मैं जल्दी ही देश से चला जाऊं . मैंने राजदूत को बताया कि मेरी कुल गतिविधि होटल के बगीचे में छः-सात लोगों से बात करना थी जिनके विचारों से सरकार पहले ही परिचित होगी . जहां तक मेरे यहां रुकने की बात है, प्रधानमंत्री को जूलियट क्यूरी का पत्र देने के बाद मैं उस देश में एक मिनट भी नहीं रहना चाहूंगा जो अपने प्रति सहानुभूति रखने वाले व्यक्ति से बिना किसी कारण के इस बदतमीजी से पेश आता है .

मेरे राजदूत चिली में समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में एक थे . लेकिन अब उनके रवैये में काफी नरमी आ गई थी . यह उम्र के कारण भी हो सकता है और राजनयिक सेवा के कारण भी . उन्होंने भारतीय सरकार के बेहूदा रवैये का विरोध नहीं किया और मैंने भी उनसे किसी समर्थन की उम्मीद नहीं की . हम सहृदयता से विदा हुए – उन्हें मेरी यात्रा के कारण उन पर आन पड़ी भारी जिम्मेदारी से मुक्ति की राहत मिली होगी . जहां तक मेरा सवाल है मेरे उनकी संवेदनशीलता और मित्रता के सारे भ्रम हमेशा के लिए टूट गए .

नेहरू ने अगली सुबह अपने दफ्तर में मिलने का समय दिया . वह उठे और चेहरे पर बिना किसी स्वागत मुस्कान के भाव के मुझसे हाथ मिलाया . उनका चेहरा इतनी बार छप चुका है कि उसे बताने की कोई जरूरत नहीं है . काली, ठंडी आंखें भावशून्य रूप में मुझे देख रही थीं . तीस साल पहले स्वाधीनता के एक बड़े प्रदर्शन में उनसे और उनके पिता से मेरा परिचय कराया गया था . मैंने इसका जिक्र किया लेकिन इससे उनके चेहरे में कोई फर्क नहीं आया . वह हां-हूं में सब बातों का जवाब देते रहे और अपनी ठंडी आंखों से मुझे घूरते रहे .

मैंने उनके मित्र जूलियट क्यूरी का पत्र उन्हें दिया . उन्होंने कहा कि उनके मन में फ्रेंच वैज्ञानिक क्यूरी के लिए बहुत सम्मान है और फिर वे पत्र पढ़ने लगे . उसमें क्यूरी ने मेरा परिचय भी दिया था और मेरे काम में नेहरू से मदद करने के लिए कहा था . उन्होंने उसे पढ़ा और पढ़कर वापस लिफाफे में रख लिया और बिना कुछ कहे फिर मुझे देखने लगे . मुझे अचानक लगा कि मेरी उपस्थिति उनमें एक तरह की वितॄष्णा जगा रही है . यह भी मुझे लगा कि पीतवर्ण का यह आदमी जरूर किसी बुरे शारीरिक, राजनीतिक, या मानसिक अनुभव से गुजर रहा है . उन्हें देखकर लगता था कि उनमें उंचा होने, शक्तिशाली होने का गुमान है . ऐसा सख्त आदमी जो केवल आदेश देने का आदी है लेकिन नेता होने के गुणों से वंचित है . मुझे याद आया कि उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू एक मालदार जमींदार थे और न केवल अपनी राजनीतिक सूझबूझ से उन्होंने कांग्रेस आंदोलन की मदद की थी बल्कि धन से भी . मैंने सोचा कि मेरे सामने बैठा आदमी शायद फिर से अपनी जमींदारी भूमिका में आ गया है और मुझे उसी हिकारत से देख रहा है जैसे जमींदार अपने नंगे पांव किसान को देखते हैं .

“वापस पैरिस जाकर मैं प्रोफैसर जूलियट क्यूरी को क्या बताऊं ?”

“ मैं उनके पत्र का उत्तर दे दूंगा,” उन्होंने रूखेपन से कहा .

मैं कुछ मिनट तक चुप रहा . वे कुछ क्षण बहुत ही लंबे लगे . लगता था अब नेहरू के पास मुझसे करने के लिए कोई बात नहीं रह गई है . लेकिन उन्होंने कोई अधीरता नहीं दिखाई मानो मेरा वहां बने रहना उनके लिए कोई महत्व की बात नहीं थी . मुझे यह अहसास हुआ कि मैं इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति का समय बर्बाद कर रहा हूं .

मुझे लगा कि अपने मिशन के बारे में कुछ शब्द कहने चाहिएं . मैंने कहा कि दुनिया में जो शीत युद्ध चल रहा है वह कभी भी युद्ध में बदल सकता है . मैंने भयानक आणविक हथियारों का भी जिक्र किया . ऐसे में जो युद्ध नहीं चाहते उन सबके लिए एक साथ आना कितना जरूरी है .

वह अपने में खोए रहे जैसे मेरी बात सुनी ही न हो . कुछ क्षण के बाद उन्होंने कहा, “दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर शांति के पक्ष में तर्क फेंक रहे हैं .”

“निजी तौर पर मेरा मानना है कि जो भी शांति की बात करता है या उसमें कुछ योगदान कर सकता है, उन्हें एक पक्ष में हो जाना चाहिए . हम किसी को अलग रखना नहीं चाहते, केवल उन लोगों को छोड़कर जो बदले और युद्ध की बातें करते हैं,” मैंने कहा .

उसके बाद देर तक खामोशी रही . मैंने समझ लिया कि बातचीत आगे नहीं बढ़ सकती . मैं उठ खड़ा हुआ और विदा लेने से पहले हाथ आगे बढ़ाया . उन्होंने चुपचाप हाथ मिलाया . जब मैं दरवाजे की तरफ जाने लगा तो उन्होंने कुछ मित्रता के अंदाज में कहा, “ क्या आपके लिए कुछ कर सकता हूं ? आपको कुछ चाहिए ?”

मैं प्रतिक्रिया करने में जरा धीमा हूं और मेरा दुर्भाग्य है कि मैं बहुत दुर्भावनापूर्ण नहीं हो सकता . लेकिन जीवन में पहली बार मैं आक्रामक हुआ, “ओह, हां ! मैं तो भूल ही गया था . मैं भारत में एक बार रहा लेकिन दिल्ली के इतना पास होते हुए भी ताजमहल देखने नहीं जा सका . यह वहां जाने का अच्छा मौका है अगर पुलिस ने मेरे शहर की सीमा छोड़ने के विरुद्ध या मेरे तुरत यूरोप लौटने के लिए सूचना जारी न कर दी हो . मैं कल वापस जा रहा हूं .”

अपनी इस प्रतिक्रिया के लिए अपने पर खुश होते हुए मैंने उनसे विदा ली . होटल मैनेजर स्वागत काउंटर पर मेरा इंतजार कर रहा था . “ आपके लिए एक संदेश है . उन्हें सरकारी दफ्तर से मुझे यह बताने के लिए फोन आया था कि मैं जब चाहे ताजमहल देखने जा सकता हूं .”

“ मेरा बिल तैयार करो”, मैंने कहा . “ मुझे अफसोस है कि मैं वहां नहीं जा सकता . मैं तुरत हवाई अड्डे जा रहा हूं और पैरिस के लिए पहला विमान पकड़ रहा हूं .”

पांच साल बाद मास्को में मुझे लेनिन वार्षिक शांति पुरस्कार की निर्णय-समिति में बैठने का मौका मिला . एक अंतर्राष्ट्रीय समिति जिसका मैं हिस्सा था . जब उस साल के पुरस्कार के लिए लोगों के नाम पर वोट करने का अवसर आया तो भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने नेहरू का नाम सुझाया . मेरे चेहरे पर हंसी की एक छाया घूम गई, जिसे वहां उपस्थित लोगों में से कोई नहीं समझ पाया . मैंने उनके पक्ष में मत दिया . अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार में नेहरू को विश्वशांति का प्रबल समर्थक कहा गया .

1 comment:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

एक जीनियस को पढ़ना हमेशा चमत्कृत करता है।