Thursday, September 13, 2012

साहिर लुधियानवी का एक इंटरव्यू - १


ज़माने भर के महबूब शायर साहिर लुधियानवी (१८ मार्च १९२१ - २५ अक्टूबर १९८०) का यह इंटरव्यू उनकी मौत के काफी अरसा पहले जनाब नरेश कुमार 'शाद' ने लिया था. एक बार फिर उसे यहाँ कबाड़खाने पर पेश किया जा रहा है.

इंटरव्यू की भूमिका बांधते हुए शाद लिखते हैं -

"नए ज़माने के शायरों में जनाब साहिर लुधियानवी साहब एक ऊंची हैसियत रखते हैं. अहसास, शिद्दत और जज़्बे की सच्चाई इन की शायरी के बुनियादी हिस्से हैं . इन के दो टूक और रोशन अंदाज़-ऐ-बयाँ ने इन की शायरी को एक नया रूप रंग और निखार बख्शा है . इन की पुर-ख़ुलूस शायरी आज के हिन्दुस्तानी नौजवान के ज़हनी उतार-चढ़ाव की कहानी है . अपने महबूब शायर फैज़ अहमद ‘फैज़' की तरह साहिर ज़हनी तौर पर एक इन्क़लाबी और रूमानी शायर हैं, इसीलिए इनके इश्क का जज़्बा एक इंकेलाबी जज़्बा है"


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शाद - आप की पैदाइश कब और कहाँ की है ?

"मैं कब और कहाँ पैदा हुआ ?" मेरे इस सवाल को दांतों और होठों के दरम्यान दोहराते हुए, साहिर हंस के कहने लगे, "मेरे प्यारे दोस्त, ये तो बड़ा ही रवायती सवाल है, इस सवाल को थोडा आगे बढ़ाते हुए इस में थोडा इज़ाफा और कर लो, के क्यों पैदा हुआ ?"

मैंने जान बूझ के अपने आपको शांत और उनके जवाब से बे-असर रखते हुए पुछा . "आपकी खुश-मिजाज़ी दुरुस्त है, लेकिन साहिर साहब, इस का सहारा लेते हए आप हम गरीब इंटरव्यू लेने वालों का मज़ाक कैसे उड़ा सकते हो ?"

साहिर मन-ही-मन में मुस्कुराते और सिगरेट का पैकेट मेरी तरफ करते हुए बोले, "सन १९२१ में लुधियाने में"

मुझे कुछ तसल्ली हुई और मैंने सिगरेट के पैकेट से एक सिगरेट निकालते हुए कहा, "आपकी तालीम कहाँ से और कहाँ तक हुई है?"

"बी. ए. नहीं कर पाया, गवर्नमेन्ट कॉलेज लुधियाना और दयाल सिंह कॉलेज दोनों से निकाला गया था ", ऐसा कहने से मानो साहिर के लहज़े में जैसे फ़ख्र और ख़ुद-यकीनी की लहर दौड़ गयी .

"..अब इन कॉलेजों को मुझ पर नाज़ है की मैं इन कॉलेजों का तालिब-ए-इल्म रहा, लेकिन मुझे वहां से निकाले जाने का अफ़सोस किसी को नहीं है ."

इस ज़िक्र पर मुझे साहिर साहब की वो 'नज़र ऐ-कॉलेज' याद आ गयी -

ऐ सरज़मीन-ए-पाक़ के यारां-ए-नेक नाम
बा-सद-ख़ुलूस शायर-ए-आवारा का सलाम
ऐ वादी-ए-जमील मेंरे दिल की धड़कनें
आदाब कह रही हैं तेरी बारगाह में
तू आज भी है मेरे लिए जन्नत-ए-ख़याल
हैं तुझ में दफन मेरी जवानी के चार साल
कुम्हलाये हैं यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी के फूल
इन रास्तों में दफन हैं मेरी ख़ुशी के फूल
तेरी नवाज़िशों को भुलाया न जाएगा
माजी का नक्श दिल से मिटाया न जाएगा ...

"अच्छा, अब आप ये बताएं के आप अब्दुल हई से साहिर लुधियानवी कब बने?"

"१९३५ में दसवीं के इम्तेहान के बाद और नतीज़ा निकलने से पहले, जब में बिलकुल बेकार था ."

"आपका सबसे पहला शेर कौन सा था?”

"याद नहीं, शायद याद रखने जैसा भी नहीं है"

"आपने अपनी शायरी के शुरूआती दिनों में किस से इस्लाह ली?”

"किसी से नहीं?", फिर अचानक शायद साहिर साहब को कुछ याद आ गया, और कहने लगे, " हाँ, ऐसा ज़रूर हुआ है के मैं अपनी सब से पहले नज़्म इक दोस्त के ज़रिये अपने स्कूल के टीचर 'फैयाज़' हरियाणवी से उनकी राय जानने के लिए भेजी थी. "

"तो उन्होंने क्या राय दी?”

"यही के शेर अच्छे और वक़्त के मुत्तालिक हैं, पर पूरे तौर पर नज़्म मामूली है." इतना कहने पर साहिर ने अपने ख़ास और बड़े दिलकश अंदाज़ में कहा, "ज़ाहिर है के उस वक़्त मेरे लिए इतना ही काफी था के मेरे शेर उम्दा और समकालीन हैं."

"आपने अपना तख़ल्लुस 'साहिर' ही क्यों इंतेख़ाब किया ?"

कुर्सी से उठकर साहिर साहब कमरे में यहाँ वहां टहलने लगे और बोले, "क्योंकि कोई न कोई तख़ल्लुस रखने का रिवाज़ था, इसलिए मैं अपनी स्कूल की किताबों के वर्क उलट-पलट कर उस मौजूं लफ्ज़ की तलाश में था जिसे में अपना तख़ल्लुस मुक़र्रर कर सकूं . अचानक मेरी नज़र एक शे’र पर पड़ी जो इक मर्सिये का था जिसे 'इकबाल' ने 'दाग़' के लिए लिखा था -

इस चमन में होंगे पैदा, बुलबुल-ऐ-शीराज़ भी
सैंकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब-ऐ-एजाज़ भी 

मुझे अपनी शायरी को लेकर कभी कोई गलत-फहमी नहीं रही और में भी अपने आप को सैंकड़ों शायरों में से एक शुमार करता हूँ . इसलिए अपने लिए मुझे 'साहिर' तखल्लुस मुनासिब लगा."

(जारी)

3 comments:

Pratibha Katiyar said...

Bahut Shukriya Ashok ji!

PD said...

पूरा एक ही बार में छाप देना चाहिए था ना? नेक काम में देरी क्यों कर रहे हैं आप? :-)

मुनीश ( munish ) said...

भविष्य दृष्टा थे । पाकिस्तान बनने पर गए तो लेकिन फौरन लौट आए। अच्छी च्रर्चा छेड़ी , वहाँ वाम के आम क्यों ना फले इसके गवाह भी ये थे ।