Sunday, November 11, 2012

मनुष्य समाज की धुरी है – शुभा का गद्य – बारह


अधूरी बातें – ९

-शुभा

धुरी एक ऐसा केन्द्र होती है जिसकी अपनी परिधि होती है. परिधि यानि एक संरचना जो अनेक संरचनाओं के गुंथने से बनती है. इसके आपस में गुंथने का अर्थ इन्हें जोड़ने वाला सम्बन्घ होता है. यह सम्बन्घ एक सन्तुलन के रूप में सामने आता है. भले ही यह संतुलन आपसी तनाव से बना हो. इस तरह विरोघी तत्त्वों, सांचों और संरचनाओं का सन्तुलन एक जगह (स्पेस) बनाता है. यह स्पेस विविधताओं की कर्मस्थली या रंगस्थली की तरह होता है. यहाँ विरोधी जोड़े साथ-साथ रहते हैं - जीवन-मृत्यु, बनना और बिगड़ना, जुड़ना और बिखरना, खिलना और मुरझाना. इनके बीच ऐसे जीवन्त सूत्र घड़कते रहते हैं जो परस्पर एक दूसरे के बीच ऊर्जा का आदान प्रदान करते हैं. ये जीवन सूत्र अक्सर नज़र नहीं आते लेकिन इनकी उपस्थिति बिला शक महसूस की जा सकती है. इन सूत्रों में बड़े पुराने और बड़े नए धागे जुड़े होते हैं. इनके उलझाव में एक सुलझापन, एक व्यवस्था होती है. इस व्यवस्था में कहीं भी अवरोघ आने पर कभी बड़ी दूर और कभी पास ही एक बेसुरापन ध्वनित होता है. संतुलन के बीच ही एक डगमगाहट एक घुटन पैदा होती है. इसे सर्जरी के द्वारा ठीक किया जा सकता है और ये फिर अपने सुर में लौट आती है. लेकिन धुरी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. अगर धुरी करवट बदलना चाहे या थोड़ी अपनी जगह से खिसक कर कोई नया कोण बनाना चाहे तो सारी संरचनाएँ और उनके बीच के तमाम जीवन्त तन्तु उलझ जाते हैं. वास्तव में उलझ जाते हैं इस तरह कि वे आदान प्रदान नहीं कर पाते. तरह तरह की गांठें, क्षरण आदि सड़न के दृश्य पैदा होते हैं. यदि धुरी डगमगाए तो बाहरी सर्जरी काम नहीं आती, मरहमपट्टी से तो बात और बिगड़ जाती है.

मनुष्य समाज की धुरी है.

(‘जलसा’ पत्रिका से साभार - शुभा जी के गद्य की यह सीरीज़ आज समाप्त हो रही है.)

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