अधूरी
बातें – ७
-शुभा
बार
बार एक दृश्य टेलीविज़न पर दिखाया जा रहा है. एक मूर्ति के गले में रस्सी डाली जाती
है और फिर वह ज़मीन पर गिर रही है हालाँकि गिरते हुए उसकी मज़बूत पीठ दिखाई देती है लेकिन
फिर भी आखि़र वह गिर ही रही है. यह मूर्ति किसी देवता की नहीं है केवल किसी राष्ट्रनायक
की भी नहीं. यह ऐसी मूर्ति है जिसे देखकर राष्ट्र की अंधी सीमाएं दूर हटने लगती हैं
और पृथ्वी की अखण्डता बहुत बार एक साथ दिखाई पड़ती है. यह उस इन्सान की मूर्ति है जिसने
एक इन्सान के तौर पर,
एक इन्सान की क्षमताओं के तौर पर अपने को अघिकतम
रूप में अभिव्यक्त किया था,
मनुष्य और मानव जाति की छुपी क्षमता का एक ख़ज़ाना
खोज निकाला था,
एक ऐसी खदान का मुंह खोल दिया था जिसमें असंख्य
खनिज और अमूल्य घातुओं का अपार बहाव था. इस खदान को मनुष्य से मानव दृष्टि से सम्पृक्त
करने वाली यह मूर्ति गिरते हुए भी ऐसे विराट दृश्यों की ही याद दिला रही थी जो दृश्य
केवल मनुष्य के सामूहिक साहस से ही पैदा होते हैं. यह मूर्ति गिरते हुए भी उतनी ही
लम्बी और मज़बूत थी.
ऐसे
लोग हैं जिनके दिलों में यह गिरती हुई मूर्ति और भी दृढ़ता से खड़ी हो गई. यह एकदम अघिक
समकालीन बन गई. यह अब तक हमारे सामने थी अब हमारे अन्दर उतर गई है. ऐसी मूर्तियां जो
समकालीन बनकर हृदयों में उतर जाती हैं गिराई नहीं जा सकतीं. कभी-कभी उनकी उपस्थिति
प्रमाणित होने में समय लग जाता है. कभी कम कभी बहुत अघिक लेकिन अंततः उनकी उपस्थिति
दर्ज होती है. दर्ज ही नहीं होती, वह अपने
को प्रमाणित भी करती है. ऐसे समय बार-बार आये हैं और आते हैं जब तमाम षडयन्त्रों, उन्माद और अत्याचार की बड़ी से बड़ी चट्टानों को तोड़ते
हुए न्याय का रास्ता चमकता है. और एक बहती हुई उज्ज्वल नदी आख़िर सबको अपनी ओर खींचती
है.
(‘जलसा’ पत्रिका से साभार)
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