Sunday, December 30, 2012

साँसों ने विराम ले लिया, लेकिन उसका संघर्ष अविराम है



जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण का बयान

16 दिसंबर को वह छः दरिंदों से अकेले ही 31 किलोमीटर तक दिल्ली की सडकों पर घूमती 'यादव ट्रैवेल' की व्हाईट-लाइन बस में लड़ती और जूझती रही. उसके दोस्त को वे पहले ही बुरी तरह घायल कर चुके थे. अगले 13 दिनों तक उसने अस्पताल में अपना बहादुराना संघर्ष जारी रखा. इन सारे दिनों में उसके इस बहादुराना संघर्ष ने भारत के लाखों-करोड़ों लड़कियों- लड़कों और आम लोगों को पहली बार औरतों के खिलाफ अन्याय और हिंसा के सभी रूपों के विरुद्ध इतने बड़े पैमाने पर सडकों पर उतार दिया. हुक्मरानों को जितना भय उसकी लड़ाकू ज़िंदगी से था, उससे भी ज़्यादा उसकी संभावित मौत से था. उन्होंने उसे गुपचुप इलाज के नाम पर वतन-बदर कर दिया, जहां आज सुबह 2.15 पर सिंगापुर के अस्पताल में उसकी साँसों ने विराम ले लिया, लेकिन उसका संघर्ष अविराम है.

21 वीं सदी के 12 वें साल के आखिरी महीने में इंडिया- गेट को तहरीर स्क्वायर में तब्दील करने को आतुर भारत की हज़ारों युवतियों-युवकों ने बैरिकेडों पर भीषण ठण्ड में लाठियों और पानी की बौछारों से लड़ते हुए एक नई लड़ाकू अस्मिता पाई, बिना यह जाने कि जिस बहादुर लड़की के बलात्कार के खिलाफ संघर्ष से वे प्रेरित हैं, उसका नाम क्या है, गाँव क्या है, जाति क्या है, धर्म क्या है. इस प्रक्रिया में वे खुद अपनी जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म के ऊपर उठ कर भारत में औरत की आज़ादी और इन्साफ के लिए एक अपराधिक सत्ता-व्यवस्था से टकरा गए. वे इतना ही जानते थे कि वह 21 वीं सदी के भारत की 23 साल की ऐसी युवती थी जिसने एक दुर्निवार सवाल के हल के लिए आर-पार की लड़ाई छेड़ रखी है.

गर्भ में भ्रूण के रूप में क़त्ल की जाती, जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा में बलात्कार कर मौत के घाट उतारी जाती, घरों में पीटी जाती, रिश्तेदारी में ही यौन-उत्पीडन का शिकार होती, धर्म और जाति के ठेकेदारों के फरमानों से मौत की सज़ा पाती, दहेज के लिए जलाई जाती, अपहरण कर बाज़ार में बिकने को लाई जाती असंख्य, अनाम भारतीय औरतों के लिए न्याय के संघर्ष का प्रतीक बन गई 'एक जुझारू युवती '. पुलिस, क़ानून में आमूलचूल बदलाव और सता तथा समाज के स्त्री के प्रति नज़रिए में भारी परिवर्तन की अपरिहार्यता को वह अपनी लड़ाकू ज़िंदगी और मौत के ज़रिए बड़े-बड़े अक्षरों में लिख गई.

कश्मीर के शोपियां में हो, चाहे छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी अथवा मणिपुर की मनोरमा, पुलिस और सुरक्षाबलों द्वारा आए दिन होने वाले यौन-बर्बरताएं, घरों-खेतों-खलिहानों-दफ्तरों-बसों-सडकों-स्कूलों-कालेजों में हर दिन अपमान सहने को विवश की जाती भारत की स्त्री-शक्ति के सामंती और पूँजीवादी जघन्यताओं के खिलाफ संघर्ष ने नए रूप अख्तियार किए हैं, नया आवेग है यह अन्याय के खिलाफ.

शरीर के खत्म हो जाने के बाद भी वह इसी नई चेतना, नए संघर्ष और अथक संघर्ष की 'प्रेरणा' बनकर हम सबके दिलों में, युवा भारत की लोकतांत्रिक चेतना में सदा जीती रहेगी.

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